जनाब सत्यपाल मलिक को चौधरी चरण सिंह के जमाने से जानता हूं। शायद उन्हें भी हमारी थोड़ी-बहुत याद हो! हाल के वर्षों में हमारी उनकी मुलाकात नहीं है। सिर्फ एक बार जब वह शिलांग के राजभवन में पदस्थापित थे तो फोन पर उनसे हमारी लंबी बातचीत हुई थी। उन्होंने बहुत अच्छे से बात की। यह भी बताया कि अमुक समय वह दिल्ली आने वाले हैं, तब हम दोनों की मुलाकात हो सकती है। पर नेताओं से बहुत ज्यादा मेलजोल न कर पाने की अपनी कमजोरी के चलते बीते कई वर्षों से हमारी उनकी मुलाकात नहीं हुई। पर एक पत्रकार के तौर पर उनकी खूबियों और खामियों से अच्छी तरह परिचित हूं।
आज मैं उनकी एक ‘ऐतिहासिक चूक’ पर लिख रहा हूं। अगर न चूके होते तो वह देश की सियासत में बदलाव के बड़े प्रेरक या प्रतीक बनकर उभरे होते! आजादी के बाद कई ऐसे मौके आये जब कुछ नेता सही मौके पर सटीक कदम उठाकर ‘हीरो’ बन गये और जो ऐसा नहीं कर पाये वे इतिहास में दर्ज तो हुए पर ‘हीरो’ नहीं बन सके। जिन लोगों ने सटीक फैसला नहीं किया, वे बस संदर्भ सूची (रिफरेंस) में ही दर्ज हो सके! जनाब सत्यपाल मलिक के साथ ऐसा ही हुआ, वह ‘रिफरेंस’ तक सीमित रह गये क्योंकि वह सही और सटीक मौके पर सही और सटीक पहल करने से चूक गये! पर ‘द वॉयर’ का बहुचर्चित इंटरव्यू उन्हें इतिहास के एक खास अध्याय की संदर्भ सूची में जरूर दर्ज करेगा।
एक खास फाइल और एक कॉर्पोरेट हाउस की तरफ से सत्ताधारी दल के एक नेता के जरिये आये कथित रिश्वत-प्रस्ताव का प्रसंग मार्च, 2019 में जरूर सामने आया पर उसके सारे पहलू उद्घाटित नहीं हुए। तब सीबीआई की तरफ से इसकी छानबीन की बात सामने आई। यह अलग बात है कि उक्त मामले में आज तक कुछ भी नहीं हुआ। सोचिये, फरवरी-मार्च 2019 में ही मलिक ने अगर राज्यपाल पद छोड़े बगैर या केंद्र द्वारा डिसमिस किये जाने की स्थिति में बड़ा अभियान छेड दिया होता तो राष्ट्रीय राजनीति में क्या हुआ होता!
इस कथित रिश्वत कांड और पुलवामा प्रसंग पर उनके बड़े रहस्योद्घाटन के बाद केंद्र निश्चय ही उन्हें डिसमिस कर देता और फिर जो बड़ा बावेला मचता, उसकी कल्पना करना भी आज कठिन है! बस मलिक को सारे तथ्यों का सप्रमाण रहयोद्घाटन करना था। तब निश्चय ही वह भारत की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ देते! मलिक उन रहस्योद्घाटनों के साथ शहर-शहर अभियान पर निकल पड़े होते तो बहुत संभव है कि 2019 के लोकसभा चुनाव का नतीजा कुछ और होता!
पर मलिक साहब ने समय-समय पर सरकार को तंग करने वाले कुछ बयान जरूर दिये। किसान आंदोलन से जुड़े मुद्दों पर दिये उनके बयानों ने मोदी सरकार को थोड़ा तंग जरूर किया। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं किया!
मलिक ने चाहा होता तो पुलवामा कांड का मुद्दा बहुत बड़ा हो सकता था। वह सरकार को हिला सकता था। क्योंकि समाज के अपेक्षाकृत समझदार और शिक्षित लोगों के मन में पुलवामा कांड को लेकर उस समय भी संदेह और सवाल उठे थे। लेकिन सत्यपाल मलिक ने तब राजनीति में ‘बड़ा नायक’ और बदलाव का प्रेरक बनकर उभरने का ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने उस मुद्दे पर उनको चुप रहने को कहा और वह चुप रह गये!
कश्मीर के राज्यपाल के रूप में उन्होंने एक और बड़ा राजनीतिक और संवैधानिक गड़बड़झाला किया। नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस ने जब साझा सरकार की पहल की तो मलिक साहब ने तीनों दलों की पहल को दरकिनार कर दिया। दलील दी कि उनके राजभवन की फैक्स मशीन खराब थी, जिसकी वजह से विपक्ष के इन दलों की पहल या प्रस्ताव की बात उन तक नहीं पहुंची। और इस तरह उन्होंने सूबे की विधानसभा भंग कर भाजपा की भरपूर मदद की। इसके बाद ही केंद्र ने कश्मीर को लेकर 370 के खास प्रावधान के खात्मे जैसे बड़े फैसले किये।
पुलवामा कांड के बाद जब महामहिम मलिक केंद्र के सत्ताधारी दल या सत्ता-प्रतिष्ठान के एक ताकतवर हिस्से की ‘राष्ट्र विरोधी साजिश’ को समझ या भांप चुके थे तो वह लगातार उस प्रतिष्ठान के संचालकों का सहयोग क्यों करते रहे? इस सवाल या मुद्दे पर मलिक ने कभी सुसंगत स्पष्टीकरण नहीं दिया। इस तरह वह भारत के आधुनिक इतिहास के एक अध्याय का नायक बनने से वंचित रह गये।
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं।)