Saturday, April 20, 2024

सुशांत पर सक्रियता और जज लोया, कलिखो मौत पर चुप्पी! यह कैसी व्यवस्था है?

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या का मामला इस समय सुर्खियों में है। आत्महत्या, मुंबई में हुयी और मुंबई पुलिस इस घटना की जांच कर रही है। पर सुशांत के पिता ने पटना में इस घटना की एक एफआईआर दर्ज करवा दी और आज की ताजी स्थिति के अनुसार, बिहार सरकार ने भारत सरकार से इस अभियोग की विवेचना सीबीआई से कराने का अनुरोध किया है। सुशांत की आत्महत्या के कारणों और उन परिस्थितियों की जांच की जानी चाहिए, जिनके कारण उन्हें आत्महत्या जैसा भीषण कदम उठाना पड़ा है। 

आज जब सुशांत की आत्महत्या पर तमाम टीवी चैनल डिबेट कर रहे हैं तो कुछ ही साल पहले दो और महत्वपूर्ण संदिग्ध मौतें हुयी थीं जिन पर देश में काफी हंगामा हो चुका है, वे थीं मुम्बई में नियुक्त, सीबीआई जज बृजमोहन लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत और अरुणाचल के कलिखो पुल की आत्महत्या। जांच तो लोया और कलिखो पुल की मृत्यु के संदर्भ में भी की जानी चाहिए।

अब अगर कोई लोया और कलिखो पुल की संदिग्ध मृत्यु की जांच की मांग के साथ खड़ा नहीं है तो उसे सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या की जांच की मांग करने का कोई नैतिक हक़ नहीं है। अगर जांच का उद्देश्य अपराध का अन्वेषण, अनुसंधान और अपराधी की गिरेबान तक पहुंचना है तो यह तीनों ही मौतें संदिग्ध हैं और इनके नेपथ्य में असरदार लोग हैं। इन तीनों ही मौतों के असल सूत्रधार तक जांच एजेंसियों को पहुंचना चाहिए । 

सुशांत सिंह।

मैं चाहता हूँ कि इन तीनों संदिग्ध मौतों की जांच हो और नेपथ्य में कोने में दुबके अपराधी को चाहे वह कितना भी असरदार हो, उसे दबोच कर अनावृत्त किया जाए। लोया मामले में अगर कोई कहता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे संदिग्ध मौत नहीं माना है तो सीधा सवाल यह उठता है, बिना किसी भी छानबीन, पूछताछ और गवाही, बयानी के सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कैसे कि यह संदिग्ध मौत नहीं है ? यह शायद दुनिया की लीगल हिस्ट्री का एक नायाब मामला होगा जिसमें एक संदिग्ध मौत की कोई जांच ही न हो, इसलिए सरकार ने हर संभव कोशिश की, जबकि राज्य का यह दायित्व है कि वह हर अपराध की छानबीन कराये। 

सीबीआई जज लोया की संदिग्ध मृत्यु पर कारवां मैगजीन ( Caravan ) ने बहुत विस्तार से लिखा है और उन सब कारणों और परिस्थितियों पर चर्चा की है जिससे जज लोया की हत्या या उनकी मृत्यु की संदिग्धता के संकेत मिलते हैं। संभवतः यह देश का पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच न हो सके इसलिए सुप्रीम कोर्ट तक राज्य की फडणवीस सरकार अड़ी रही, और सुप्रीम कोर्ट ने भी, बिना किसी पुलिस जांच के ही, यह कह दिया कि मृत्यु का कारण संदिग्ध नहीं है। न एफआईआर, न तफ्तीश, न पुलिस द्वारा मौका मुआयना, न फोरेंसिक जांच, न पूछताछ, न चार्जशीट और न फाइनल रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। अदालत का, जांच और विवेचना के कानूनी मार्ग से अलग हट कर सीधे इस निष्कर्ष पर कि, कोई अपराध नहीं हुआ ‘ पहुंचना हैरान करता है।

महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने हर संभव कोशिश की, कि जज लोया के मृत्यु की जांच न हो। सरकार का किसी अपराध के मामले में जांच न होने देने के प्रयास से ही सरकार की उस मामले में रुचि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मृतक एक जज है, वह अचानक एक गेस्ट हाउस में बीमार पड़ता है और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है जहां उसकी मृत्यु हो जाती है। वह गेस्ट हाउस में अकेले भी नहीं है। उसके साथ चार अन्य जज भी हैं। यह एक सामान्य और दुर्भाग्यपूर्ण हृदयाघात का मामला भी हो सकता है और कुछ इसे संदिग्ध भी कह सकते हैं। जब तक यह जांच न हो जाए कि, यह एक सामान्य हृदयाघात था, या यह मृत्यु किसी अपराध का परिणाम है, तब तक बिना जांच के कोई भी अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकती है कि कोई अपराध ही नहीं हुआ है और मृत्यु स्वाभाविक है ।

देश के आपराधिक न्याय तंत्र में केवल न्यायपालिका ही नहीं आती है, बल्कि पुलिस भी इसका एक महत्वपूर्ण अंग है। कानून में किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच करने के लिये सीआरपीसी के अंतर्गत पुलिस को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं। उसे किसी से भी पूछने की ज़रूरत नहीं है। तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी, (सर्च, सीजर और अरेस्ट) किसी भी आपराधिक मुक़दमे में जांच या तफ्तीश करने के लिये पुलिस की कानूनी शक्तियां हैं।

यह शक्तियां इसलिए पुलिस को दी  गयी हैं ताकि पुलिस अपराध की तह तक जाकर अपराध का रहस्य खोल सके और मुल्ज़िम को पकड़ सके, और उसे विश्वसनीय सुबूतों के साथ अदालत में प्रस्तुत कर सके। पुलिस की विवेचना में अदालतें दखल नहीं देती हैं। वे मुल्ज़िम की गिरफ्तारी पर जमानत आदि के मामले में भी सुनवायी करते समय, केस के मेरिट पर नहीं जाती हैं। उनका काम तभी शुरू होता है जब पुलिस आरोप पत्र या अंतिम आख्या अदालत में दाखिल कर दे।

अब थोड़ा जज लोया की मृत्यु और फिर उस बारे में अदालती कार्यवाही पर नज़र डालते हैं। दिसंबर, 2014 में जज बृजमोहन लोया की मृत्यु, नागपुर में हुई थी। तब उस मृत्यु को संदिग्ध माना गया था। जज लोया  गुजरात के सोहराबुद्दीन शेख के मामले की सुनवाई कर रहे थे। 2005 में सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर की मौत, एक मुठभेड़ के दौरान हो गयी थी। इस मुठभेड़ के फर्जी होने का आरोप था।

इसी मामले में, एक गवाह तुलसीराम की भी मौत हो गई थी। इस हाई प्रोफाइल मामले से जुड़े ट्रायल को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में ट्रांसफर कर दिया था। आरोप था कि गुजरात मे हो सकता है, इस मामले में जज पर कोई दबाव हो। इस मामले की सुनवाई, पहले जज उत्पट कर रहे थे, बाद में उनका तबादला हो गया और जज लोया के पास इस मामले की सुनवाई आई थी। दिसंबर, 2014 में जस्टिस लोया की नागपुर में मृत्यु हो गई । तब भी जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध कहा गया था। जज लोया की मौत के बाद जिन जज साहब को इस मामले की सुनवाई मिली उन्होंने अमित शाह को लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया था । सरकार ने आरोपों से बरी करने के बावजूद हाईकोर्ट में अपील तक नहीं की। यही इस बात का प्रमाण है कि सरकार की भूमिका इस मामले में थोड़ी अलग है। 

जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध बताते हुए कुछ लोगों ने, घटना की निष्पक्ष जांच कराने की मांग सरकार से की और सरकार द्वारा कोई कार्यवाही न किये जाने पर अदालतों की भी शरण ली। सुप्रीम कोर्ट में भी इस संदर्भ में, पीआईएल दायर की गयीं। इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में, जांच का कोई आधार न पाते हुये, किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि ” इस मामले के जरिए न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है।” 

हाल ही में कुछ समय पहले एक मैग्जीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि जस्टिस लोया की मौत साधारण नहीं थी बल्कि संदिग्ध थी। जिसके बाद से ही यह मामला दोबारा चर्चा में आया। लगातार इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी भी जारी रही। हालांकि, जज लोया के बेटे अनुज लोया ने प्रेस कांफ्रेंस कर इस मुद्दे को उठाने पर नाराजगी जताई थी। अनुज ने कहा था कि ” उनके पिता की मौत प्राकृतिक थी, वह इस मसले को बढ़ना देने नहीं चाहते हैं। “

अपराध के मामले में जांच हो यह अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है न कि अपराध से पीड़ित घर वालों या वारिस पर। अपराध की जांच हो, अभियुक्त को सज़ा मिले यह जिम्मेदारी राज्य की है। घर भर अगर लिख कर दे दे कि, वे किसी मामले में जांच या कार्यवाही नहीं चाहते हैं, तो भी उस मामले की, अगर कोई अपराध का होना पाया गया है तो, जांच होगी ही। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, कानूनी प्रावधान है, यह। 

सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायमूर्तियों ने मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के संबंध में जब देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब इन न्यायमूर्तियों ने खुले तौर पर जज लोया के केस की सुनवाई को लेकर अपनी आपत्ति उठाई थी। इन न्यायमूर्तियों की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में, यह भी एक शिकायत थी  कि ” मुख्य न्यायाधीश सभी अहम मुकदमे खुद ही सुन लेते हैं यानी मास्टर ऑफ रोस्टर होने का फायदा उठाते हैं। “

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के मामले में स्वतंत्र जांच की जाए या नहीं, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की जांच वाली मांग की याचिका को ठुकरा दिया। साथ ही याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एसआईटी जांच की मांग वाली याचिका में कोई दम नहीं है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने यह मामला सुना था। इस याचिका में, कोर्ट को तय करना था कि लोया की मौत की जांच एसआईटी से कराई जाए या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “जजों के बयान पर हम संदेह नहीं कर सकते।” अदालत ने इस मामले को राजनीतिक लड़ाई का मैदान बनाने पर भी आपत्ति की। कोर्ट ने माना है कि “जज लोया की मौत प्राकृतिक है।” कोर्ट ने यह भी कहा कि “जनहित याचिका का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में जो कहा उसे संक्षेप में आप यहां पढ़ सकते हैं,

● जज लोया की मौत प्राकृतिक थी।

● सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग की आलोचना की।

● सुप्रीम कोर्ट ने कहा, पीआईएल का दुरुपयोग चिंता का विषय है।

● याचिकाकर्ता का उद्देश्य जजों को बदनाम करना है।

● यह न्यायपालिका पर सीधा हमला है।

● राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताओं को लोकतंत्र के सदन में ही सुलझाना होगा।

● पीआईएल, शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई, यह आपराधिक अवमानना है।

● हम उन न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर संदेह नहीं कर सकते, जो जज लोया के साथ थे।

● ये याचिका आपराधिक अवमानना के समान है और याचिका स्कैंडलस है, लेकिन हम कोई कार्रवाई नहीं कर रहे।

● याचिकाकर्ताओं ने याचिका के जरिए जजों की छवि खराब करने का प्रयास किया।

● यह सीधे सीधे न्यायपालिका पर हमला।

● जनहित याचिकाएं जरूरी लेकिन इसका दुरुपयोग चिंताजनक है।

● कोर्ट कानून के शासन के सरंक्षण के लिए है।

● जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल एजेंडा वाले लोग कर रहे हैं।

● याचिका के पीछे असली चेहरा कौन है पता नहीं चलता।

● तुच्छ और मोटिवेटिड जनहित याचिकाओं से कोर्ट का वक्त खराब होता है।

● हमारे पास लोगों की निजी स्वतंत्रता से जुड़े बहुत केस लंबित हैं।

जबकि इसी मामले की शुरुआती सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि

” यह मामला गंभीर है और एक जज की मौत हुई है। हम मामले को गंभीरता से देख रहे हैं और तथ्यों को समझ रहे हैं। अगर इस दौरान अगर कोई संदिग्ध तथ्य आया तो कोर्ट इस मामले की जांच के आदेश देगा। सुप्रीम कोर्ट के लिए यह बाध्यकारी है। हम इस मामले में लोकस पर नहीं जा रहे हैं। चीफ जस्टिस ने दोहराया कि पहले ही कह चुके हैं कि मामले को गंभीरता से ले रहे हैं।”

शरद पवार और लोया की तस्वीरों के प्लेकार्ड।

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत की स्वतंत्र जांच को लेकर दाखिल याचिका पर महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने जांच का पुरजोर विरोध किया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि

” इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को जजों को सरंक्षण देना चाहिए। ये कोई आम पर्यावरण का मामला नहीं है जिसकी जांच के आदेश या नोटिस जारी किया गया हो। ये हत्या का मामला है और क्या इस मामले में चार जजों से संदिग्ध की तरह पूछताछ की जाएगी। ऐसे में वो लोग क्या सोचेंगे जिनके मामलों का फैसला इन जजों ने किया है। सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालतों के जजों को संरक्षण देना चाहिए।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश मुकुल रोहतगी ने कहा कि

” ये याचिका न्यायपालिका को स्कैंडलाइज करने के लिए की गई है। ये राजनीतिक फायदा उठाने की एक कोशिश है। सिर्फ इसलिए कि इस मामले में सत्तारूढ़ पार्टी के एक बड़े नेता का नाम आ रहे हैं, यह सब आरोप लगाए जा रहे हैं, प्रेस कांफ्रेंस की जा रही है। अमित शाह के आपराधिक मामले में आरोप मुक्त करने को इस मौत से लिंक किया जा रहा है। उनकी मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं है। इसकी आगे जांच की कोई जरूरत नहीं है। लोया की मौत 30 नवंबर 2014 की रात को हुई थी और तीन साल तक किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया। यह सारे सवाल कारवां की नवंबर 2017 की खबर के बाद उठाए गए।

जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसके तथ्यों की सत्यता की जांच नहीं की।  29 नवंबर से ही लोया के साथ मौजूद चार जजों ने अपने बयान दिए हैं और वो उनकी मौत के वक्त भी साथ थे। उन्होंने शव को एंबुलेंस के जरिए लातूर भेजा था। पुलिस रिपोर्ट में जिन चार जजों के नाम हैं उनके बयान पर भरोसा नहीं करने की कोई वजह नहीं है। इनके बयान पर भरोसा करना होगा। अगर कोर्ट इनके बयान पर विश्वास नहीं करती और जांच का आदेश देती है तो इन चारों जजों को सह साजिशकर्ता बनाना पड़ेगा। जज की मौत दिल के दौरे से हुई और 4 जजों के बयानों पर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं है। याचिका को भारी जुर्माने के साथ खारिज किया जाए। “

सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े वकील हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी की ऊपर दी गयी दो दलीलें पढ़िये। उनका जोर इस बिंदु पर अधिक था कि,

● जो चार जज अंतिम समय में जज लोया के साथ थे, उन्होंने लोया की मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं देखी। अतः उनका कथन माना जाना चाहिये।

● अगर जांच या विवेचना के दौरान, उन जजों से पूछ-ताछ होगी तो इससे जनता में उनके प्रति अविश्वास होगा विशेषकर उन लोगों में जिनके मुक़दमे उन जजों ने निपटाए हैं।

● इससे न्यायपालिका पर अविश्वास होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इन चार साथी जजों के कथन पर पूरी तरह से भरोसा किया और यह मान लिया कि मृत्यु के संदिग्ध माने जाने का कोई कारण नहीं है और जांच करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि याचिका राजनैतिक कारणों से दायर की गयी है। यह बात निराधार नहीं है। वह याचिका राजनैतिक कारणों से भी चूंकि उसमें सरकार के एक बड़े नेता पर संदेह की सुई जा रही थी इसलिए दायर की गयी है, यह मान भी लिया जाए तो जिस तरह से महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार, येन-केन प्रकारेण जज लोया के प्रकरण की जांच नहीं होने देना चाहती थी, क्या राजनीति से प्रेरित नहीं है ?

सुप्रीम कोर्ट।

सुप्रीम कोर्ट का, केवल जजों के बयान पर भरोसा करके यह मान बैठना कि, चूंकि जब उन साथी जजों ने मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं बतायी है अतः जांच का कोई आधार नहीं है, एक खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। क्या यह फैसला एक नज़ीर के तौर पर नहीं देखा जाएगा कि जिस मामले में कोई जज गवाह हों तो उन मामलों की तफ्तीश करने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि गवाह जज ने जो कहा है उसे कैसे नकार दिया जाए !

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1861 में शायद ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें गवाह की हैसियत से उपस्थित जज साहब की बात को विवेचना में सुबूत के रूप में, माना जाना अनिवार्य है। एक सम्मानजनक पद और कानून के जानकार होने के नाते, एक जज अगर किसी मामले में गवाह है तो उसके बयान की सत्यता का अंश ज़रूर अधिक होगा पर मात्र उसी के बयान पर, एक मृत्यु जिसकी संदिग्धता के संबंध में बार-बार सवाल उठाया जा रहा हो, के केस का निपटारा नहीं किया जा सकता है। इस केस में गवाह अगर साथी जज थे तो मृतक भी एक जज थे और जिस मुक़दमे की वह सुनवाई कर रहे थे वह मुक़दमा भी अत्यंत महत्वपूर्ण था।

अपराध का नियंत्रण, अन्वेषण और अभियोजन यह राज्य का कार्य है। इसीलिए सारे मुक़दमे बनाम राज्य ही अदालतों में जाते हैं। सरकारी वकीलों की लंबी चौड़ी फौज जो मजिस्ट्रेट की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नियुक्त रहती है उसका काम ही है कि वह आपराधिक मामले में मुल्जिमों को सज़ा दिलाएं। और यह क्रम सुप्रीम कोर्ट तक अपील दर अपील बना रहे।  लेकिन जज लोया के मामले में राज्य की भूमिका अपराध अन्वेषण की ओर कम अपने राजनैतिक स्वार्थ की ओर अधिक थी।

इस स्वार्थ का कारण भी छिपा नहीं है। इस मामले में होना तो यह चाहिये था कि राज्य सरकार अपराध शाखा या किसी भी अन्य एजेंसी से स्वयं जांच करा लेती और जो भी निष्कर्ष निकलता उसे सक्षम न्यायालय में जैसे अन्य आपराधिक मामले जाते हैं, प्रस्तुत कर देती, और जो भी न्यायिक प्रक्रिया होती वह नियमानुसार पूरी की जाती। पर इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि, यह मामला दफन हो जाए। यह कोशिश ही यह सन्देह मज़बूत करती है कि जज लोया की मृत्यु में कुछ न कुछ, कहीं न कहीं असंदिग्धता है।

न्याय से वंचित करना भी न्याय और न्यायालय की अवमानना होती है। लोया और कलिखो पुल के मामले में ऐसा ही हुआ है। सरकार, इन तीनों मामलों में गहराई से जांच कराए और सत्य को सामने लाये। 

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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