मेनस्ट्रीम मीडिया से आखिर क्यों गायब है रवीश के मैग्सेसे की ख़बर?

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वैसे तो विनोबा भावे (1958) से लेकर अमिताभ चौधरी (1961), वर्गीज कुरियन (1963), जयप्रकाश नारायण (1965), सत्यजीत राय (1967), गौर किशोर घोष (1981), चंडी प्रसाद भट्ट (1982), अरुण शौरी (1982), किरण बेदी (1994), महाश्वेता देवी (1997), राजेन्द्र सिंह (2001), संदीप पांडेय (2002), जेम्स माइकल लिंगदोह (2003), अऱविन्द केजरीवाल (2006), पी साईंनाथ (2007), बेजवाड़ा विल्सन (2016) तक कई भारतीयों और कई पत्रकारों को रेमॉन मैग्सेसे पुरस्कार मिल चुका है और याद नहीं है कि भारतीय अखबारों ने इन खबरों को कितना महत्व दिया था।

अब रवीश कुमार को यह पुरस्कार मिला है तो आसानी से कहा जा सकता है कि भारतीय पत्रकारों और भारतीय पत्रकारिता की नालायकी के कारण यह पुरस्कार मिला है। यही नहीं, रवीश यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के पहले पत्रकार हैं। ऐसे में हिन्दी अखबारों और चैनलों के लिए यह खबर खास महत्व की है। सामान्य या आदर्श स्थिति में इन दिनों जो हालात हैं उसमें देश में ऐसे इतने पत्रकार हो सकते थे कि यह तय करना मुश्किल हो जाता कि पत्रकारिता का यह पुरस्कार किसे दिया जाए।

रवीश कुमार ने पुरस्कार स्वीकार करते हुए अपने भाषण में कहा भी, “सभी लड़ाइयां जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती हैं। कुछ दुनिया से सिर्फ यह कहने के लिए लड़ी जाती हैं कि युद्ध मैदान में कोई और था” (एनडीटीवी ने रवीश के अंग्रेजी के भाषण का हिन्दी अनुवाद भी दिखाया था)। आज ‘द टेलीग्राफ’ ने इसे कोट बनाया है और रवीश को पुरस्कार मिलने की खबर तीन कॉलम में फोटो के साथ छापी है। मनीला डेटलाइन से प्रकाशित इस खबर की शुरुआत इस तरह होती है (अनुवाद मेरा), “पत्रकार रवीश कुमार ने यहां 2019 का रेमॉन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करते हुए कहा, भारतीय मीडिया ‘संकट’ की अवस्था में है और यह अचानक या संयोग से नहीं हो गया है बल्कि सुनियोजित और संस्थागत तरीके से इसे अंजाम दिया गया है।” उन्होंने आगे कहा, “पत्रकार होना एक अलग किस्म का काम हो गया है क्योंकि समझौता नहीं करने वाले पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया जाता है और उनके कॉरपोरेट स्वामियों से कभी सवाल नहीं किया जाता है।”

भ्रष्टाचार और कालेधन से लड़ने का ढोंग करने वाली सरकार मीडिया को गोद में लेकर काम कर रही है और राष्ट्रसेवा से अघाए लोग खबरों से ही राजनीति कर रहे हैं। ऐसे में मेरा मानना है कि रवीश कुमार को इस पुरस्कार के लिए चुना जाना भारतीय मीडिया के लिए शर्म की बात है और इसलिए यह खबर आज देश के अखबारों में पहले पन्ने पर जरूर होनी चाहिए थी। इसलिए नहीं कि भारतीय पत्रकार रवीश कुमार को एशिया का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले रेमॉन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है और प्रशस्ति पत्र में कहा गया है कि भारत के प्रभावशाली टीवी पत्रकारों में एक रवीश कुमार अपनी खबरों में आम लोगों की समस्याओं को तरजीह देते हैं बल्कि इसलिए कि उन्होंने यह सत्य बताया है कि भारतीय मीडिया का संकट एक दिन में नहीं आया है ना संयोग से है बल्कि बाकायदा बनाया हुआ है, संस्थागत रूप से।

यह मीडिया संस्थाओं के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है। आज इस खबर को अपेक्षित प्रमुखता नहीं देकर भारतीय मीडिया ने अपना हाल और खराब किया है। और यह स्थिति सुधरने वाली नहीं है। हालत यह है कि एक तरफ तो मीडिया संस्थान अपने चहेतों को सरकारी पुरस्कार दिलाने (और दूसरे काम कराने) के लिए रिटायर संपादकों की सेवाएं लेते हैं (और संपादक देते हैं) दूसरी ओर सरकार ने इन पुरस्कारों को खुद ले लो जैसा बना दिया है और पुरस्कार लेने या पाने वाले अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन निकाल कर अपनी पीठ थपथपाते हैं। ऐसे में लीक से हटकर काम करने वाले को एशिया का नोबल ही मिल जाए मुफ्त में क्यों बताना? दूसरी ओर, याद कीजिए कि अपने भगवान को मिले कैसे-कैसे पुरस्कारों की खबर इन्हीं अखबारों ने कितनी प्रमुखता से छापी है। ऐसे जैसे लेने वाले के कारण पुरस्कार महान होता हो। लगे रहो बेशर्मों।

(संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं। यह लेख उनकी फेसबुक वाल से साभार लिया गया है।)

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