Thursday, April 25, 2024

क्या कर्नाटक में भाजपा की डूबती नैया को बजरंग बली और केरल स्टोरी के सहारे पार लगा पाएंगे मोदी?

कर्नाटक चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले बजरंग बली, फिर विवादास्पद फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ और रविवार को अपने मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस पार्टी को देश में विभाजनकारी और टुकड़े-टुकड़े गैंग बताकर पूरे चुनाव को ही नया मोड़ देने की भरपूर कोशिश करते दिखे। 

देश में आज मणिपुर हिंसा की खबरें सबसे पहले स्थान पर हैं। 35 लाख की कुल आबादी वाले इस प्रदेश में 54 लोगों की हत्या और 20,000 से अधिक लोगों के पलायन की खबर ने देश ही नहीं दुनिया भर को चौंका दिया है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की इस विषय में चुप्पी हैरत में डालने वाली है। वहीं दूसरी सबसे बड़ी घटना संसद से कुछ ही दूरी पर महिला पहलवान खिलाड़ियों का धरना बना हुआ है।

यौन उत्पीड़न का आरोपी और कोई नहीं बल्कि भाजपा का ही एक सांसद बृज भूषण शरण सिंह है, जो कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद पर 12 वर्षों से विराजमान है। दूसरी बार धरने पर बैठने के बावजूद प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए देश की चोटी की अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों को सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगानी पड़ी। पोस्को एक्ट की धारा लगने के बावजूद यह सांसद हिरासत में लिए जाने की बात तो दूर, पुलिस ने अभी तक पूछताछ तक के लिए नहीं बुलाया है।

जहां तक कर्नाटक चुनावों में राज्य में अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को बखान करने का प्रश्न है, उस पर पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की चुप्पी बताती है कि उनके पास शायद उपलब्धियों के नाम पर कुछ नहीं है। डबल इंजन की सरकार का नारा भी वे नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि डबल इंजन की सरकार तो पिछले चार वर्षों से कर्नाटक में थी ही।

मुख्यमंत्री बोम्मई के शासनकाल में लगातार मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाकार ध्रुवीकरण की कोशिशें हुईं। इसमें स्कूल-कॉलेज में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने पर पाबन्दी से लेकर टीपू सुल्तान बनाम सावरकर जैसे विभाजनकारी मुद्दों को लगातार तूल दिया गया। कर्नाटक में इस प्रयोग का दोहन उत्तरप्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों तक में किया गया।

उम्मीद की गई कि गुजरात, यूपी की तर्ज पर दक्षिण के इस पहले राज्य में सफल प्रयोग से हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लिए एक स्थायी पैठ बन जाए, और पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ कर्नाटक में भाजपा जीतकर शेष दक्षिण के राज्यों में अपने प्रभाव को विस्तारित कर सके।

लेकिन कई कारक रहे जिसने कर्नाटक राज्य में हिंदू-मुस्लिम विभाजन की खाई को चौड़ा करने में मदद नहीं पहुंचाई। इसमें कर्नाटक राज्य की क्षेत्रीय विशिष्टताएं एक प्रमुख कारक हैं। इसके साथ-साथ लिंगायत समुदाय पर भाजपा की अति निर्भरता उसे चाहते हुए भी विस्तारित करने में मददगार नहीं होने दे रही है। भाजपा ने इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए किसी लिंगायत के बजाय अन्य समुदाय को आगे करने की योजना बना रखी थी, जिसके चलते लिंगायत समुदाय के प्रमुख नेता येद्दुरप्पा एवं केंद्र में कर्नाटक का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं में प्रमुख बी.एल. संतोष के बीच में खींचातानी की खबरें भी थीं।

चुनाव उम्मीदवारों में इस बार बड़ी संख्या में पूर्व विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटे जाने से पहले भाजपा की जीत की शंका के चलते बड़ी संख्या में बागियों द्वारा कांग्रेस में शामिल होना और भाजपा के खिलाफ मैदान में उतरना, भाजपा के लिए हार पक्की कर रहा है।

उससे भी बड़ी बात यह रही कि चुनाव से पहले कांग्रेस के भीतर जहां हर राज्य में गृहकलह देखने को मिलती थी, कर्नाटक में भी उसकी संभावना पूरी-पूरी थी। पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंदिता काफी पुरानी है। लेकिन एक तो भारत जोड़ो यात्रा में कर्नाटक राज्य में राहुल गांधी की मौजूदगी में दोनों नेताओं को करीब लाने की कोशिशों और दूसरा सिद्धरामैय्या द्वारा इसे अपना अंतिम चुनावी सफर घोषित करने के बाद कांग्रेस के भीतर सत्ता संघर्ष फिलहाल नजर नहीं आता। विपक्षी दल की एकजुटता और उसका भाजपा सरकार के शासनकाल पर धारदार चुनाव प्रचार आज भाजपा को बेदम कर रहा है।

यहां तक कि आमतौर पर भाजपा के लिए माहौल बनाने वाले एग्जिट पोल के सर्वे भी इस बार शुरू से ही कांग्रेस की जीत के आंकड़े पेश कर रहे थे। एक हारी हुई बाजी को कैसे जीता जाये, आज यह कर्नाटक के भाजपा नेताओं से कहीं अधिक नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए मुद्दा बना हुआ है। यही कारण है कि भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व सरमा कर्नाटक चुनाव के स्टार प्रचारक बने हुए हैं। 

कर्नाटक में 40% कमीशन की सरकार की चर्चा आम है। आम लोगों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस ने 40% कम बताया है, यहां पर तो 55% तक कमीशन आम है। हाल के दिनों में बेंगलुरु शहर में जरा सी बारिश बाढ़ का रूप ले लेती है। पिछले दिनों इसी प्रकार की स्थिति में कॉर्पोरेट जगत से भी कटु आलोचना सुनने को मिली थी, और यहां तक धमकी दे दी गई थी कि यदि राज्य सरकार इतना टैक्स कमाने के बावजूद यदि सीवेज भी ठीक नहीं कर सकती तो हमें कहीं दूसरी जगह ठिकाना ढूंढना पड़ेगा।

बेंगलुरु के ट्रैफिक जाम को अब देश में सबसे ऊंचा दर्जा मिला हुआ है। हाल ही में देश में आयकर देने के मामले में बेंगलुरु का स्थान मुंबई और दिल्ली के बाद तीसरे स्थान पर है, और दूसरे स्थान पर आने से वह इस वर्ष थोड़े से मार्जिन से ही चूक गया है। देश में आईटी एवं स्टार्टअप कंपनियों के गढ़ के रूप में प्रतिष्ठित बेंगलुरु को परिवहन व्यवस्था, स्वच्छ जल और हवा सहित रहने, खाने, पीने और नागिरक सुविधाओं की दरकार है, न कि रोज-रोज के सांप्रदायिक तनाव और उत्तेजनापूर्ण भाषणों की। 

यही वजह है कि चुनावी समर में उतरते ही मुख्यमंत्री बोम्मई सहित प्रदेश में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता ने हिंदू-मुस्लिम बहस से साफ़ किनारा करते हुए इससे किनारा कर लिया था। एक टीवी साक्षात्कार में तो इंडिया टुडे के एंकर के हिजाब एवं अन्य मुद्दों पर बात रखते ही बोम्मई ने इसे मीडिया द्वारा प्रायोजित बता उल्टा सवाल करने वाले को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। जाहिर सी बात है कि राज्य में आम लोग क्या सोच रहे हैं, से स्थानीय नेता वाकिफ हैं।

लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेता लगता है इससे नावाकिफ हैं। उन्हें शायद लगता है कि वे अपने भारी भरकम प्रचार और अब तक के टिकाऊ नुस्खे से कर्नाटक के चुनाव का रुख बदल सकते हैं। कांग्रेस ने इस बार बेहद सोच समझकर समूचे चुनाव को राज्य और स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रखा है। 40% कमीशनखोरी का मुद्दा इस बार जैसे भाजपा सरकार पर चिपक सा गया है, और इसे हटाने के लिए किसी ऐसे मुद्दे की ओर लोगों का ध्यान ले जाना है जो एक बार फिर से लोगों को हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव की पटरी पर ला सके। 

इसके लिए ही पीएम मोदी ने कमान खुद संभाली है। सबसे पहले उन्होंने बजरंग बली को चुनाव में उतार दिया। हालांकि यह मौका उन्हें कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र से ही मिला। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में पीएफआई और बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही है। भाजपा अपने प्रचार में बजरंग दल को बजरंग बली से जोड़ रही है और कांग्रेस को भगवान हनुमान विरोधी, इस्लाम परस्त बता रही है।

उसका तर्क है कि पीएफआई को तो पहले ही प्रतिबंधित किया जा चुका है, ऐसे में कांग्रेस स्पष्ट रूप से सिर्फ बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का इरादा रखती है। आज हाल यह है कि पीएम मोदी अपनी सभा में भारत माता की जय की बजाय बजरंग बली की जय का उद्घोष लगा रहे हैं, गोया वे भारत के 140 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री न होकर एक धर्म विशेष के धर्मरक्षक हो गये हों।

इस मुद्दे ने जरूर कांग्रेस को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया है, और वह सफाई दे रही है कि यह बजरंग दल नामक एक संगठन को लेकर कही गई है। लेकिन भाजपा का प्रचार तंत्र कितना मजबूत है, और यह बात कहां तक किस रूप में पहुंचेगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।

9 मई को बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद की ओर से पूरे देश में हनुमत शक्ति जागरण अभियान चलाने की बात कही जा रही है। यह साफ़-साफ़ 10 मई को होने वाले चुनाव में कर्नाटक की आम जनता को हिंदुत्व के आधार पर वोट डालने की मुहिम है। वोटिंग से ठीक एक दिन पहले इसे एक बड़ा मुद्दा बनाकर तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया के लिए दिन भर राष्ट्रीय बहस चलाने के लिए आवश्यक खुराक मिल जायेगी। 

इसके अगले ही दिन पीएम मोदी ने एक ऐसी फिल्म को अपना चुनावी भाषण का आधार बनाया, जिसके बारे में बड़े बड़े चुनावी समीक्षकों ने कल्पना तक न की होगी। द केरल स्टोरी नामक एक फिल्म की रिलीज भी ऐन कर्नाटक चुनाव के दौरान की गई। इस फिल्म में दावा किया गया है केरल की हिंदू और ईसाई लड़कियों का धर्मांतरण कराकर उन्हें अफगानिस्तान, सीरिया जैसे देशों में सेक्स वर्कर्स के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, और यह संख्या एक दो नहीं बल्कि 32,000 है।

इस विषय पर केरल में काफी बवाल मचा और कांग्रेस नेता शशि थरूर सहित सत्तारूढ़ सीपीआई(एम) की ओर से तीखी आलोचना हुई। फिल्म केरल और तमिलनाडु में लगभग फ्लॉप है। फिल्म निर्देशक ने भी स्वीकार किया कि ये आंकड़े 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री अच्युतानंद द्वारा विधानसभा में दिए गये एक वक्तव्य से लिए गये हैं, और उसके आधार पर गणितीय हिसाब लगाकर यह आंकड़ा दिया गया है।

इस बारे में तथ्य सार्वजनिक हो चुके हैं। आईएसआईएस में शामिल होने के लिए लगभग 30 देशों की सूची में भारत सबसे निचले क्रम पर बना हुआ है, और उस दौरान आतंकवादी समूह में यह चिंता का विषय बना हुआ था कि दुनिया में मुस्लिम आबादी के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश होने के बावजूद भारत से कट्टरपंथी मुस्लिम क्यों नहीं तैयार हो पा रहे हैं। 

अपने चुनावी भाषण से पीएम मोदी ने इस फिल्म को तूल देकर कर्नाटक चुनाव में ध्रुवीकरण की ऐसी कोशिश की है, जिसे आजतक नहीं देखा गया। किसी राज्य स्तर के नेता की भी यह हिम्मत नहीं हुई, ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक राज्य विधानसभा का चुनाव मोदी जी के लिए कितना अहम बन गया है।

कर्नाटक में इसका कितना असर पड़ेगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है, लेकिन 2500 किमी दूर लखनऊ में भाजपा के एक नेता ने जरूर एक विद्यालय की 100 छात्राओं को यह फिल्म मुफ्त में दिखाई है। भाजपा संघ द्वारा लव जिहाद और धर्मांतरण विषय पर हिंदू छात्राओं को आगाह करने के लिए जल्द ही देशभर में यह फिल्म मुफ्त में दिखाई जा सकती है और इसे टैक्स फ्री तक किया जा सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

29 अप्रैल से अभी तक प्रधानमंत्री की 18 सभाएं और 6 रोड शो हो चुके हैं। चुनाव की घोषणा होने से पहले भी जनवरी से मार्च के बीच में 7 बार किसी न किसी योजना या सड़क का उद्घाटन करने पीएम मोदी आ चुके हैं। 

रविवार के अपने चुनावी भाषण में पीएम मोदी ने एक बार फिर से निशाना गांधी परिवार को बनाया है। गांधी परिवार को ‘कांग्रेस का शाही परिवार’ बताकर नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया है कि यह शाही परिवार भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय ताकतों को प्रोत्साहित करता रहता है। इसके साथ ही उन्होंने इस चुनाव को कर्नाटक को देश का नंबर 1 राज्य बनाने के लिए भाजपा को पूर्ण बहुमत से जिताने का आह्वान किया है। 

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सारा जोर राज्य में भ्रष्टाचार खत्म करने, सांप्रदायिक सद्भाव को कायम रखने, 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने और महिलाओं को मुफ्त राजकीय परिवहन में यात्रा करने सहित बरोजगारों को भत्ता देने के साथ-साथ गिग वर्कर्स के लिए कार्पस फण्ड बनाने को दिया है। वहीं दूसरी तरफ भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व हिंदुत्व की विचारधारा के आधार पर ध्रुवीकरण करने और गांधी परिवार के वंशवाद जैसे मुद्दे पर यहां की जनता को संगठित करने पर आमादा है।

कर्नाटक के मतदाताओं के लिए यह एसिड टेस्ट है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में वोट भाजपा के समर्थन में करने और असर शाहीन बाग़ में पड़ने जैसे विभाजनकारी बयान मध्य वर्ग के लिए अपच हो गये थे, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा था। कर्नाटक अपेक्षाकृत काफी बड़ा राज्य है। हिंदुत्व के एजेंडे और भ्रष्टाचार, आर्थिक गैर-बराबरी और दिशाहीन विकास के बीच में झूलते मतदाता के लिए चुनाव करने का समय नजदीक आ गया है। सोमवार को चुनाव प्रचार खत्म हो गया, 10 मई को मतदान होंगे और 13 मई को आने वाला जनादेश 2024 के महासमर के लिए काफी कुछ दे जाने वाला है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के हिस्से हैं।)

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