Friday, March 29, 2024

मोदी अर्थव्यवस्था की अर्थी ढोएंगे या ढूंढेंगे कोई इलाज?

सरकार ने 31 अगस्त को, जीडीपी के आंकड़े जारी कर दिए, जिसमें यह नकारात्मक रूप से 23.9 फ़ीसदी यानी माइनस 23.9% है। इस गिरावट को ऐतिहासिक और भारतीय अर्थव्यवस्था में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट माना जा रहा है। सरकार ने इसका प्रमुख कारण कोरोना महामारी के कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन को बताया है, लेकिन भारतीय आर्थिकी पर नज़र रखने वाले यह तो मानते हैं कि इस बड़ी गिरावट का एक कारण कोरोनाजन्य लॉकडाउन है, लेकिन अर्थव्यवस्था में गिरावट का यह दौर 2016 की नोटबंदी के बाद से ही शुरू हो गया था। गिरावट का मूल कारण सरकार की गलत और मूर्खतापूर्ण आर्थिक नीतियां और उनका अकुशल क्रियान्वयन है।

यह एक छोटा सा आंकड़ा है जो यह बताता है कि 2018-19 से ही कैसे जीडीपी अधोगामी हो चुकी थी। सरकार ने कोशिश भी की, उसे उर्ध्वगामी करने की, पर हर कोशिश नाकाम हुई और अर्थव्यवस्था थौंसती चली गई और जब मार्च में कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन करना पड़ा तब धीरे-धीरे नीचे गिरती हुई विकास दर, इतनी गिरी कि वह शून्य के भी नीचे चली गई।

अब इन आंकड़ों को देखें
Q2 2018-19  7.1%
Q3 2018-19  6.6%
Q4 2018-19  5.8%
Q1 2019-20  5.0%
Q2 2019-20  4.5%
Q3 2019-20  4.7%
Q4 2019-20  3.1%

उपरोक्त आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि, 2018-19 की दूसरी तिमाही से विकास दर गिरने लगी थी। इससे यह स्पष्ट है कि अधोगामी विकास दर की यह गति नोटबंदी और जीएसटी जैसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक रणनीतिक निर्णयों के कारण ही हुई है।

माइनस 23.9% जीडीपी या इस गिरती हुई अर्थव्यवस्था से अगर यह उम्मीद की जा रही है कि यह सरकार उसे उबार लेगी तो यह एक भ्रम है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सरकार इससे उबरना नहीं चाहती। सरकार इस संकट से उबरना चाहती है, पर वह उबरे कैसे, यह वह बिल्कुल नहीं सोच पा रही है। यह एक खब्त उल हवास की स्थिति है। आलमे बदहवासी है। सरकार के पास न तो इस आर्थिक संकट से निपटने के लिए कोई योजना है, न नीति, और न ऐसे संकट में काम आने वाली प्रतिभाएं।

अक्सर लोग कहते हैं कि देश के कृषि क्षेत्र या अनौपचारिक सेक्टर में इतनी जिजीविषा है कि वह गिरती हुई अर्थव्यवस्था को थाम ले और उसे पुनः नए सिरे से बढ़ाने लगे। यह बात सच है, लेकिन कृषि क्षेत्र को तो हमने लंबे समय से उपेक्षित कर रखा है। विकास के रूप में बस तीव्र औद्योगिकीकरण, चमचमाती अट्टालिकाओं और एक्सप्रेस वे को ही हमने मानक बना रखा है, जबकि विकास का अर्थ लोगों के जीवन स्तर के विकास से समझा जाना चाहिए।

उद्योग या इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास बुरा नहीं है और इससे लोगों का जीवन स्तर सुधरता भी है, पर उद्योगों और पूंजीपति विकास के मॉडल को अपनाने में खेती, विशेषकर छोटे किसान, खेतिहर और भूमिहीन मज़दूर जो ग्रामीण आबादी का एक अहम हिस्सा हैं की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

जीडीपी से हम सीधे तौर पर कैसे प्रभावित होते हैं, इसे सरल भाषा में पत्रकार सौमित्र रॉय जो आर्थिक मामलों में अक्सर अपना विश्लेषण लिखते रहते हैं, ने बताया है, “जीडीपी का घट कर माइनस में चले जाने का सीधा मतलब है कि आपकी हमारी आय घट गई है, क्योंकि जीडीपी से सीधे लोगों की औसत आय जुड़ी हुई है।

किसी देश की सीमा में एक निर्धारित समय के भीतर तैयार सभी वस्तुओं और सेवाओं के कुल मौद्रिक या बाजार मूल्य को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) कहते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि जीडीपी कम होने की वजह से लोगों की औसत आय कम हो जाती है देश की अर्थव्यवस्था की सेहत जीडीपी से ही नापी जाती है।”

जीडीपी के कमजोर आंकड़ों के प्रभाव को विस्तार से बताते हुए एक्सपर्ट्स कहते हैं कि 2018-19 के प्रति व्यक्ति मासिक आय 10,534 रुपये के आधार पर, वार्षिक जीडीपी पांच फीसदी रहने का मतलब होगा कि प्रति व्यक्ति आय वित्त वर्ष 2020 में 526 रुपये बढ़ेगी। जीडीपी चार प्रतिशत की दर से बढ़ती है तो आमदनी में वृद्धि 421 रुपये होगी। इसका मतलब है कि विकास दर में एक फीसदी की कमी से प्रति व्यक्ति औसत मासिक आमदनी 105 रुपये कम हो जाएगी, यानी एक व्यक्ति को सालाना 1260 रुपये कम मिलेंगे।

ध्यान दीजिए यहां वार्षिक आंकड़े की बात हो रही हैं। 2018-19 में जीडीपी की दर 4.2 प्रतिशत थी अब 2020-21 की पहली तिमाही की शुरुआत -23.9 से हुई है। दूसरी तिमाही जो चल रही है वह भी कोई खास ग्रोथ नहीं दिखा रही है, तो यह माना जा सकता है कि इस साल आंकड़े निगेटिव ग्रोथ दर्शा सकते हैं, यानी आम आदमी की औसत आय में बड़ी कमी दर्ज हो सकती है।

अब जीडीपी माइनस में जा रही है तो इसका असर अर्थव्यवस्था पर तो पड़ेगा ही, लेकिन सबसे अधिक प्रभाव, बैंकिंग व्यवस्था पर नजर आएगा। मध्यवर्गीय लोग अपने लोन की किस्तें नहीं भर पाएंगे। इस संकट को सिर्फ सरकार ही संभाल सकती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में आम आदमी कमाई कम होने की खबर सुनकर खर्च कम और बचत ज्यादा करने लगता है और बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार कंपनियां भी करने लगती हैं, और कुछ हद तक सरकार भी यही काम करती है इसके संकेत दिखने भी लगे हैं।

बीबीसी ने भारत की गिरती विकासदर पर दुनियाभर के तमाम अख़बारों और मीडिया हाउसेज़ में हो रही प्रतिक्रियाओं पर एक लंबा लेख छापा है। उनमें से कुछ उद्धरण पढ़ना वैश्विक प्रतिक्रिया के मिजाज को स्पष्ट कर देगा।

सीएनएन ने इसे ‘रिकॉर्ड रूप से सबसे तेज़ी से सिकुड़ी अर्थव्यवस्था’ के शीर्षक से समाचार छापा है। इस ख़बर में कैपिटल इकोनॉमिक्स के शीलन शाह कहते हैं कि इसके कारण अधिक बेरोज़गारी, कंपनियों की नाकामी और बिगड़ा हुआ बैंकिंग सेक्टर सामने आएगा जो कि निवेश और खपत पर भारी पड़ेगा।

जापान के बिजनेस अख़बार निकेई एशियन रिव्यू में भारतीय वित्त आयोग के पूर्व सहायक निदेशक रितेश कुमार सिंह ने एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है, ‘नरेंद्र मोदी ने भारत की अर्थव्यवस्था को जर्जर बनाया’ इसमें लिखा गया है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यापार समर्थित छवि होने के बावजूद वे अर्थव्यवस्था संभालने में अयोग्य साबित हो रहे हैं, 2025 तक अर्थव्यवस्था को 5,000 करोड़ बनाने का सपना अब पूरा होता नहीं दिख रहा है।

यह भी लिखा है, “भारत के सबसे आधुनिक औद्योगिक शहर से आने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने वादा किया था कि वो अर्थव्यवस्था सुधारेंगे और हर साल 1.2 करोड़ नौकरियां पैदा करेंगे। छह साल तक दफ़्तर से आशावाद की लहर चलाने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर हो गई है। जिसमें जीडीपी चार दशकों में पहली बार इतनी गिरी है और बेरोज़गारी अब तक के चरम पर है। विकास के बड़े इंजन, खपत, निजी निवेश या निर्यात ठप्प पड़े हैं। ऊपर से यह है कि सरकार के पास मंदी से बाहर निकलने और ख़र्च करने की क्षमता नहीं है।”

लेख में लिखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी की इकलौती चूक सिर्फ़ अर्थव्यवस्था संभालना नहीं है, बल्कि वो भ्रष्टाचार समाप्त करने के मामले में फ़ेल हुए हैं।

“मोदी ने विनाशकारी नोटबंदी की घोषणा की थी, जिसका मक़सद काले धन को समाप्त करना था। इसने अराजकता का माहौल बनाया। इस योजना ने लाखों किसानों और मंझोले एवं छोटे उद्योगों के मालिकों को तबाह कर दिया। हालांकि, उनके समर्थकों का कहना था कि यह सब थोड़े समय के लिए है और भ्रष्टाचार से लड़ने में आगे फ़ायदा देगा।”

इस लेख में अर्थव्यवस्था के नीचे जाने की वजह जीएसटी के अलावा, एफ़डीआई, 3600 उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाना और प्रधानमंत्री मोदी का सिर्फ़ कुछ ही नौकरशाहों पर यकीन करना बताया गया है।

अमरीकी अख़बार द न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, “भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में सबसे बुरी तरह बिगड़ी है। अमरीका की अर्थव्यवस्था में जहां इसी तिमाही में 9.5 फ़ीसदी की गिरावट है, वहीं जापान की अर्थव्यवस्था में 7.6 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।”

अख़बार लिखता है, “अर्थव्यवस्था के आंकड़ों के मामले में भारत की तस्वीर कुछ अलग है, क्योंकि यहां अधिकतर लोग ‘अनियमित’ रोज़गार में लगे हैं, जिसमें काम के लिए कोई लिखित क़रार नहीं होता और अकसर ये लोग सरकार के दायरे से बाहर होते हैं। इनमें रिक्शावाले, टेलर, दिहाड़ी मज़दूर और किसान शामिल हैं।”

अर्थशास्त्री मानते हैं कि आधिकारिक आंकड़ों में अर्थव्यवस्था के इस हिस्से को नज़रअंदाज़ करना होता है जबकि पूरा नुक़सान तो और भी अधिक हो सकता है। अख़बार आगे लिखता है, “130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की अर्थव्यवस्था कुछ ही सालों पहले आठ फ़ीसदी की विकास दर से बढ़ रही थी, जो दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी, लेकिन कोरोना वायरस महामारी से पहले ही इसमें गिरावट शुरू हुई। उदाहरण के लिए पिछले साल अगस्त में कार बिक्री में 32 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई जो दो दशकों में सबसे अधिक थी।”

इस प्रकार 31 अगस्त को आए जीडीपी के आंकड़ों में उपभोक्ता ख़र्च, निजी निवेश और आयात बुरी तरह प्रभावित हुए दिख रहे हैं। व्यापार, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्र में 47 फ़ीसदी की गिरावट आई है। एक समय भारत का सबसे मज़बूत रहा निर्माण उद्योग 39 फ़ीसदी तक सिकुड़ गया है। सिर्फ़ कृषि क्षेत्र से ही अच्छी ख़बर आई है जो मानसून की अच्छी बारिश के कारण तीन फ़ीसदी से 3.4 फ़ीसदी के दर से विकसित हुआ है।

न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार आगे लिखता है, “प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वो 2024 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को 5,000 करोड़ का बनाना चाहते हैं। 2024 में आम चुनाव हैं और संभवतः वो तीसरी बार चुनाव लड़ें। 2019 में भारत की जीडीपी 2900 करोड़ की थी जो अमरीका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। हालांकि, कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था 10 फ़ीसदी छोटी हो जाएगी।”

फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार का शीर्षक है, ‘भारतीय अर्थव्यवस्था एक तिमाही के बराबर सिकुड़ी।’ यह अख़बार लिखता है, “भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस की मार से पहले ही कमज़ोर हालत में थी, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में मैन्युफ़ैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे उद्योगों पर बड़ा असर डाला और व्यावसायिक गतिविधियां तकरीबन ठप्प पड़ गईं।”

हालांकि, आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने इंटरव्यू के दौरान बेहद विश्वास से पहले कहा था कि आरबीआई कमज़ोर आर्थिक स्थिरता या बैंकिंग प्रणाली को महामारी के झटके से बचा सकता है, इसमें अगले स्तर का आर्थिक प्रोत्साहन दिए जाने का अनुमान लगाया गया है।

वहीं यह महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि ‘कोरोना आपदा के साथ हमें जीना सीखना होगा’ की सीख देने वाली सरकार के पास इस गिरती हुई आर्थिक स्थिति से निपटने के लिए क्या योजना है और उस योजना में आम जनता भी कहीं है या बड़े पूंजीपति और कॉरपोरेट ही हैं। सरकार को यह स्पष्ट करना होगा।

सरकार और सरकारी दल को प्रतिभाओं से स्वाभाविक रूप से परहेज है। पिछले छह साल में हर उस प्रतिभा और विचार को हतोत्साहित करने, उसका मजाक बनाने और मिथ्यावाचक तथा फर्जीवाड़े करने वाले लोगों में ही नायकत्व ढूंढने की सनक में देश और विदेश में उपलब्ध हर उस प्रतिभा का मज़ाक बनाया है, जिसने अर्थव्यवस्था के इस दारुण संकट से मुक्त होने का मार्ग सुझाया है।

सरकार से पूछिए कि उसकी आर्थिक नीति क्या है? 2014 के बाद उसने किस आर्थिक नीति का अनुसरण किया? पूंजीवाद और समाजवाद की तो बात ही छोड़िए, न तो मनमोहन सिंह की सरकार समाजवादी अर्थव्यवस्था पर चल रही थी, न ही नरेंद्र मोदी की सरकार चल रही है, मूल रूप से दोनों ही सरकारें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से ही संचालित हैं।

हर अर्थ व्यवस्था में कुछ न कुछ मौलिक खामियां होती हैं, कोई भी अर्थव्यवस्था, चाहे वह पूंजीवाद पर आधारित हो या समाजवाद पर, त्रुटिरहित नहीं है, लेकिन दोनों में एक मौलिक अंतर है, जहां पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लाभ और निजी पूंजी के एकत्रीकरण पर जोर देती है, वहीं समाजवादी अर्थव्यवस्था जनहित की ओर केंद्रित होती है। एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से संभव ही नहीं है।

यह एक बहस का विषय हो सकता है कि पूंजीवाद उपयुक्त है या समाजवाद और यह विषय एक अकादमिक भी है जो सदैव चलती रहेगी। इस समय सबसे बड़ी चुनौती है कि हम गिरती हुई विकास दर तो आज ऐतिहासिक गिरावट पर आ गई है, उससे कैसे पार पाएं। यह आंकड़ा जिस पर आज तरह-तरह के मज़ाक बन रहे हैं, अगर उसे अभी से रोका नहीं गया तो, वह हमें एक ऐसे गर्त में डाल देगा, जहां से उबरना मुश्किल होगा।

सरकार या भाजपा की कोई स्पष्ट आर्थिक नीति नहीं है। आर्थिक नीति भाजपा के किसी भी दस्तावेज में आप को नहीं मिलेगी। आज भी केवल डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी को छोड़ कर कोई भी भाजपा का सांसद इस मसले पर नहीं बोलता है। डॉ. स्वामी को आर्थिक स्थिति की समझ है, हो सकता है, उनके पास, इस संकट से निकलने का कोई मार्ग हो, पर यह सरकार उनसे भी परहेज करती है, जबकि डॉ. स्वामी एक पूंजीवादी मॉडल के समर्थक हैं।

वित्तमंत्री की तो बात ही छोड़िए, उन्होंने तो यह मान लिया है कि यह सब, ईश्वर का किया-धरा है। नियतिवाद कभी-कभी तनाव से बचा तो देता है, पर वह, उस संकट, जिसे भाग्य या ईश्वरीय विधान कहते हैं, से निकलने की कोई राह नहीं सुझाता है। नियतिवाद, इसे बस भवितव्य मान कर के थोड़ा समय ज़रूर दे देता है, पर उस संकट से उबरने के लिए तो राह खुद ही बनानी पड़ती है। आज न तो वित्तमंत्री और न ही थिंक टैंक नीति आयोग ही इस काबिल दिख रहा है जो इस गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभाल सके।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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