अभी बात पश्चिमी बंगाल की, उत्तरप्रदेश की बाद में करेंगे

अभी बात पश्चिमी बंगाल की, उत्तर प्रदेश की बाद में करेंगे। वामपंथियों के किले के ध्वस्त होने पर टीले जितना भी न बच पाने के कारण ढूँढेंगे। वर्ष 1972, पं. बंगाल में राजनीतिक उठापटक व बारम्बार के मध्यावधि चुनाव व राष्ट्रपति शासन के बाद सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस की स्थाई सरकार बनी। 6 फीट से अधिक की लम्बाई, आकर्षक व्यक्तित्व के सिद्धार्थ शंकर रे पढ़ाई व खेल में सदैव अग्रणी रहे। राजनीति में उनकी दिलचस्पी विद्यार्थी जीवन से ही थी तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन के पदाधिकारी रहे। परिवार व ससुराल सम्पन्नता के साथ बौद्धिकता से परिपूर्ण था। कांग्रेस पार्टी के टिकट पर प.बंगाल विधानसभा का चुनाव जीत कर सबसे युवा विधायक, बाद में निर्दलीय सांसद जीते तथा केन्द्र में मंत्री बने। 1972 में प.बंगाल के मुख्यमंत्री का पद संभाला।

कानून के विलक्षण ज्ञान तथा राजनीतिक आपदा में संकट मोचन के रूप में संजय गांधी से नजदीकी बढ़ी व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्णायक मंडली के प्रमुख सदस्य हो गये।

नक्सली समस्य़ा पर वे अधिक क्रूर हो कर टूटे, जिसके प्रतिफल में पं.बंगाल में 34 वर्ष कम्यूनिस्टों ने राज किया। उन्होंने नक्सल उन्मूलन की ठान ली फिर पं.बंगाल में जो हुआ क्रूरतम इतिहास बन गया। 16 से 25 वर्ष का नौजवान संदिग्धता के दायरे में प्रताड़ना का शिकार हुआ।

मैंने उनका थोड़ा परिचय इसीलिए दिया कि बहुत कुशाग्र वकीलों, जजों के परिवार में पालन-पोषण, विदेश में शिक्षा की सुविधाओं को प्राप्त करने वाले परिपक्व व्यक्ति ने सत्ता के केंद्र बिंदु पर पहुँच कर ऐसा क्या कर दिया कि बंगाल की जनता कांग्रेस से इतना डर गयी कि दो पीढ़ियों तक कम्युनिस्टों को जिताती रही। कम्युनिस्टों की हठधर्मी को ममता की सादगी ने तोड़ा तथा अपने द्वारा गठित टीएमसी के बैनर तले 2012 में मुख्यमंत्री बनी।

साम्यवादियों का प्रभाव क्षेत्र मूलतः गरीब, मजदूर, शोषित, किसान व कमजोर लोग रहे हैं परंतु इनका नेतृत्व सदैव उच्च शिक्षित अभिजात वर्ग के व्यक्तियों के हाथ रहा। पश्चिमी बंगाल में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले ज्योति बसु तथा पंजाब के हरिकिशन सिंह सुरजीत जरुर ऐसे व्यक्ति रहे जो जनमानस से धरातल पर जुड़े रहे। स्वतंत्र भारत में विपक्ष के नेतृत्व का आकलन करें तो आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश नरायण, डा. राममनोहर लोहिया जैसे कुछ नेताओं को छोड़कर हरिकिशन सिंह, सुरजीत भारतीय राजनीति की संजीवनी रहे। कोई शक नहीं कि सीपीएम, सीपीआई के नेताओं के पास बेहतर दिमाग रहा, परंतु ज्ञान से परिपूर्ण मस्तिष्क तो सिद्धार्थ शंकर रे के पास भी था। फिर भी गलती भारी की थी। उनकी गलती कुछ-कुछ वैसी ही थी जैसी ब्यूरोक्रेट जगमोहन ने कश्मीर में की थी। विकल्प क्या हो सकता है? के बारे में चिंतन करें तो नक्सलियों, बागियों पर समाजवादियों की सौम्यता सदैव भारी रही है। यदि दीमक जड़ में है तो पत्ते व तना तोड़ कर बचे ठूंठ से फल नहीं निकते। समाजवादियों ने जड़ में जाकर सुधार की बात की, इसलिए चंबल में जो पुलिस की रायफले न कर सकी जयप्रकाश जी ने निहत्थे शांति से कर दिया। राजनीति में संभावनाएं एवं विकल्पों के परिणामों की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती परंतु देवगौड़ा के स्थान पर बहुतों की राय ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की थी।

पं.बंगाल में ज्योति बसु एवं राष्ट्रीय राजनीति में हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद साम्यवादियों से धरातल छूटने लगा था। बाद के प्रकाश करात व सीताराम येचुरी विद्वान तो है, धरातल पर कार्यकर्ताओं को बांधने में असफल रहे हैं। किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता चाहे वे अखाड़े के बाहर की व्यवस्था देखने वाले ही हों, खाली नहीं बैठ सकते। पं.बंगाल में भाजपा के धन व सत्ता बल के साथ हुए प्रवेश के बाद साम्यवादी कार्यकर्ता टीएमसी व भाजपा में बंटने लगे। दरअसल उन्हें करने को कुछ न कुछ चाहिए था, जिसको जहां तरजीह मिली वे जुड़ते चले गये। इस चुनाव में सीताराम येचुरी के विषय में अत्यंत विनम्र भाव से सोच सकते है कि अचानक पुत्र के चले जाने से पहाड़ टूट कर गिरने जैसा रहा होगा।

राजनीतिक आकलन है कि पं.बंगाल में बंटवारा भाजपा विरोध या भाजपा समर्थक का बना अथवा इसे टीएमसी समर्थन या टीएमसी विरोधी का भी मान सकते है जिसमें मतदाताओं ने टीएमसी को वरीयता दी।

कभी एक दूसरे के प्रचण्ड विरोध की राजनीति करने वाले सीपीएम व कांग्रेस ने एक ही नाव पर सवार होकर चप्पू साथ पकड़ लिये। टूट चुके जनसमर्थन के अभाव में इन दो विपरीत धाराओं के संगम पर नाव खेने के नीति चल न सकी। वामपंथियों ने पहले भी कांग्रेस की सरकार को सहयोग व सहारा देकर चलवाया है जिसे कार्यकर्ताओं का समर्थन न मान कर नेताओं द्वारा दिया समर्थन कहना ही उचित होगा। वामपंथी कार्यकर्ता कांग्रेस के साथ कभी दिल से जुड़ नहीं सका।

हाल के चुनावों में कांग्रेस यदि अकेले लड़ती तो सीटें कितनी मिलती, यह कहना मुश्किल है किंतु भाजपा के उस वोट को भाजपा से बाहर जरुर रख लेती जो साम्यवादियों व संप्रदायवादियों को नहीं देना चाहते थे। वामपंथियों को पुनः गांव, विद्यार्थियों तथा मिलों की तरफ रुख करना चाहिए। भारत में हिन्द मजदूर सभा के बाद ट्रेड यूनियन कहीं थी तो वह सीटू से संबद्ध थी। कभी उत्तर भारत में भी कुछ पॉकिटो पर प्रभाव रखने वाली साम्यवादी पार्टीयां उत्तर प्रदेश से विलुप्त हो चुकी है। राजनीति में हर विचारधारा का प्रभावी रहना जरुरी हैं। सत्ता बना पाये यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना राजनीतिक व्यवस्था में अलग-अलग वर्गों के हित के लिए राजनीतिक ताकत को बनाए रखना है।

गोपाल अग्रवाल
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गोपाल अग्रवाल