Friday, April 26, 2024

कार्पोरेट्स के लाखों करोड़ की कर्जा माफ़ी क्या रेवड़ियां नहीं हैं मी लार्ड!

उच्चतम न्यायालय ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि फ्रीबीज या रेवड़ियां क्या हैं, मुफ्तखोरी की परिभाषा क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने भी अभी तक यह परिभाषा तय नहीं की है। क्या समाज के गरीब वर्ग को मुफ्त भोजन देना रेवड़ी बांटना कहलाएगा? क्या उज्ज्वला योजना में मिले रसोई गैस के सिलेंडर रेवड़ी कहला सकते हैं? इसके साथ ही यदि राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए जनता को मुफ्त उपहार देने की घोषणा करते हैं और वह फ्रीबीज या रेवड़ियां हैं तो उच्चतम न्यायालय को यह भी तय करना पड़ेगा कि कार्पोरेट्स से मोटा चंदा लेने वाले राजनीतिक दल जब सरकार में आते हैं तो कार्पोरेट्स के लाखों करोड़ के कर्जे माफ़ कर देते हैं तो क्या यह रेवड़ियां या फ्रीबीज नहीं हैं ?

उच्चतम न्यायालय को यह भी तय करना पड़ेगा कि लोक कल्याण के नाम पर सत्ता में बैठी सरकार जब जनता के लिए चुनाव से पहले मुफ्त के उपहारों की घोषणा करती है तो उस पर कैसे लगाम लगेगी क्योंकि तब चुनाव मैदान सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए समान खेल मैदान नहीं रह जाता।

उच्चतम न्यायालय को यह भी तय करना पड़ेगा कि विधायक या सांसद बनने के बाद कई पेंशन और भारी सुख सुविधाएँ जनता के टैक्स की गाढ़ी कमाई से दिए जाने वाली क्या फ्रीबीज या रेवड़ियां नहीं हैं। सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को एक ही पेंशन मिलती है। वह भी 33 साल की नौकरी पूरी करने के बाद। वहीं, नेताओं को एक दिन का विधायक या सांसद बनने पर भी पेंशन की पात्रता होती है। देश में चपरासी से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक को केवल एक पेंशन मिलती है, लेकिन सांसद, विधायक और मंत्रियों पर यह नियम लागू नहीं है। यानी, विधायक से यदि कोई सांसद बन जाए तो उसे विधायक की पेंशन के साथ ही लोकसभा सांसद का वेतन और भत्ता भी मिलता है। इसी तरह राज्य सभा सांसद चुने जाने और केंद्रीय मंत्री बन जाने पर मंत्री का वेतन-भत्ता और विधायक-सांसद की पेंशन है।

जब पब्लिक दो में है तो उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में भी होगा कि कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की वजह से बीते दो वित्त वर्षों में केंद्र सरकार को लगभग 1.84 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होने की बात कही जा रही है। जहां वित्त वर्ष 2019-20 में 87 हजार 835 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, वहीं 2020-21 में 96 हजार 400 करोड़ रुपये का नुकसान सरकार को हुआ। तो क्या यह कार्पोरेट्स को दी गयी रेवड़ियां या  फ्रीबीज नहीं हैं, जिसके एवज में सत्ताधारी दलों को लाखों करोड़ों का चंदा मिलता है।

बड़े कॉरपोरेट्स को बैंक कर्ज माफी और कॉरपोरेट टैक्स में कमी क्या फ्रीबीज या रेवड़ियाँ नहीं हैं? पांच वर्षों में बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले गए 9.92 लाख करोड़ रुपये के कर्ज में से 7.27 लाख करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का है। उन्होंने कहा कि सरकार ने संसद में एक जवाब में स्वीकार किया है कि उसके द्वारा बट्टे खाते में डाली गई राशि में से केवल 1.03 लाख करोड़ रुपये की वसूली की गई है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने 5.8 लाख करोड़ रुपये के ऋण की वसूली नहीं की है। क्या उच्चतम न्यायालय तय करेगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा पिछले पांच वर्षों में 5.8 लाख करोड़ रुपये के मुफ्त उपहारों पर चर्चा कब होगी?मोदी सरकार ने भगोड़े हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी की कंपनी गीतांजलि जेम्स के 7,110 करोड़ रुपए और एरा इंफ्रा इंजीनियरिंग के 5,879 करोड़ रुपये के साथ-साथ कई अन्य बड़ी डिफॉल्टर कॉरपोरेट कंपनियों का कर्ज माफ कर दिया है, वह कार्पोरेट्स को दी गयी रेवड़ियां या फ्रीबीज नहीं हैं? 

संसद में दी गयी जानकारी के अनुसार मार्च 2022 तक शीर्ष 25 चूक कर्ताओं में मेहुल चोकसी की कंपनी गीतांजलि जेम्स पर बैंकों का 7,110 करोड़ रुपये बकाया है, जबकि एरा इंफ्रा इंजीनियरिंग पर 5,879 करोड़ रुपये और कॉनकास्ट स्टील एंड पावर लिमिटेड पर 4,107 करोड़ रुपये बकाया है। आरईआई एग्रो लिमिटेड और एबीजी शिपयार्ड ने बैंकों से क्रमश: 3,984 करोड़ रुपये और 3,708 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की है। इसके अलावा फ्रॉस्ट इंटरनेशनल लिमिटेड पर 3,108 करोड़ रुपये, विनसम डायमंड्स एंड ज्वैलरी पर 2,671 करोड़ रुपये, रोटोमैक ग्लोबल प्राइवेट लिमिटेड पर 2,481 करोड़ रुपये, कोस्टल प्रोजेक्ट्स लिमिटेड पर 2,311 करोड़ रुपये और कुडोस केमी पर 2,082 करोड़ रुपये बकाया हैं। देश के कई बैंकों ने पिछले 5 वित्त वर्ष के अंदर लगभग 10 लाख करोड़ रुपये के लोन को बट्टे खाते में डाल दिया है।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के अवसर पर  सार्वजनिक तौर पर चुनाव के दौरान मुफ्त सुविधाएं देने के वादों की आलोचना कर चुके हैं, वहीं मुफ्त बिजली-पानी जैसी सेवाएं देने के लिए जाने जानी वाली आम आदमी पार्टी सरकार की तरफ से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साध चुके हैं। इस बीच ये मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुका है जो मुफ्त चुनावी वादों को लेकर पहले भी अपनी चिंता जाहिर कर चुका है।

रेवड़ियां बांटने का मामला गंभीर हो गया है। खासकर राजनीतिक लाभ के लिए रेवड़ी बांटने या चुनाव जीतने के लिए लुभावने वादे करने पर सवाल खड़े हो गए हैं। सवाल पहले भी थे, पर अब सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा इस पर विचार के लिए विशेषज्ञ समूह बनाने का ऐलान कर दिया है। समूह में चुनाव आयोग, नीति आयोग, वित्त आयोग, रिजर्व बैंक और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। इन विशेषज्ञों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाएगी कि राजनीतिक दल चुनाव से पहले मुफ्त बांटने के जो वादे करते हैं, उनके लागू होने का करदाताओं व अर्थव्यवस्था पर क्या असर होता है? इसका अध्ययन करें और इन पर नियंत्रण रखने के तरीके सुझाएं।

आजादी के समय भारत की आबादी करीब 34 करोड़ थी। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोगों की जिंदगी खेती के भरोसे चलती थी, पर देश में कुल साठ लाख टन गेहूं पैदा हो पाता था। अब पंजाब, मध्य प्रदेश और हरियाणा ही मिलकर इससे पांच गुना गेहूं सरकारी खरीद में देते हैं। अगर आजादी के फौरन बाद सरकार ने सिंचाई पर खर्च बढ़ाकर किसानों को सहारा न दिया होता, तो यह नहीं हो सकता था। वह भी एक समय था, जब 1 मई, 1951 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रेडियो पर जनता से अपील करनी पड़ी थी कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखें और अनाज बचाएं। आजादी से पहले ही भारत में राशन और कंट्रोल की व्यवस्था लागू हो चुकी थी।

दरअसल, कुछ राजनीतिक दलों को यह समझ में आया कि जनता को कुछ देने का वादा उन्हें वोट दिला सकता है। शुरुआत आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने की थी, दो रुपये किलो चावल देने के वादे के साथ। उसके बाद तो जैसे सिलसिला चल निकला। तमिलनाडु में तो दोनों बडे़ दलों में होड़ ही लग गई। सस्ते अनाज, धोती, साड़ी वगैरह से शुरू हुआ सिलसिला प्रेशर कुकर, मिक्सी, सौ यूनिट बिजली फ्री, मंगलसूत्र, रंगीन टेलीविजन और स्कूटी खरीदने के लिए सब्सिडी तक पहुंच गया। कुछ ही समय की बात थी कि उत्तर भारत के राज्यों में भी साइकिल, स्कूटी, टैबलेट और लैपटॉप तक के वादे होने लगे। फिर दिल्ली की सरकार ने पानी और बिजली के बिलों में फ्री यूनिट का एलान करके एक नया मॉडल खड़ा कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में चुनाव आयोग पर भी सवाल उठाया है। सुप्रीम कोर्ट से पहले भी तमाम विश्लेषक इस बात पर हैरानी जताते रहे हैं कि आखिर चुनाव आयोग ऐसी घोषणाओं पर रोक क्यों नहीं लगाता? अतीत में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, खासकर टी एन शेषन के कार्यकाल में और उसके बाद भी, जब चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों के वादों पर ही नहीं, बल्कि सरकार के फैसलों तक पर रोक लगाई, लेकिन साल 2013 में तमिलनाडु के ऐसे चुनावी वादों के खिलाफ एक याचिका सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी, तब शीर्ष अदालत ने इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना था। शायद इसी वजह से चुनाव आयोग भी ऐसे वादों पर लगाम नहीं कस पाया। पंजाब पर तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज होते हुए भी आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली का वादा किया और सरकार बना ली। पैसा कहां से आएगा, यह सवाल अब उसे खुद से पूछना है। देश की आर्थिक खस्ताहाली के बीच केंद्र और यूपी सरकार गरीबों को 5-5 किलो मुफ्त राशन बाँट रही है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।) 

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