प्रोजेक्टर पर चार चिड़ियों का कोलाज दिख रहा है। एक चिड़िया की चोंच में कीड़ा दबा है, दूसरी चिड़िया की चोंच में अनाज का दाना, तीसरी चिड़िया की चोंच में मच्छर जैसा कुछ और चौथी चिड़िया की चोंच खाली है। प्रोफेसर रघु सिन्हा हॉल में बैठे बच्चों से पूछते हैं कि तीन चिड़ियों के चोंच में कुछ न कुछ है और चौथी चिड़िया के चोंच में कुछ नहीं है, इससे आप लोगों ने क्या समझा।
जाहिर है बच्चों के पास जवाब नहीं है। प्रो रघु खुद जवाब देते हुए बच्चों को समझाते हैं कि जब किसी चिड़िया के मुंह में दाना देखें और वो नहीं खा रही हो, उसको मुंह में लेकर उड़ रही हो या इधर उधर फुदक रही हो तो ये समझ लें कि वो अपने बच्चों लिए खाना ले जा रही है। नहीं तो चिड़िया मक्खी, कीड़े, पतंगे पकड़ेगी पटकेगी और गटक जाएगी।
अगर आपने स्कूटर पर किसी को गर्म जलेबी लेकर जाते हुए देखा है तो आप समझ सकते हैं जिनके घरों पर बच्चे होते हैं उन्हीं के पिता जलेबी लेकर जाते हैं। जिनके बच्चे नहीं होते वो वहीं दुकान पर ही खड़े होकर जलेबी खा लेते हैं। बच्चों के क़हक़शों से पूरा हॉल गूंज उठा।
‘आइए चुनमुन चिड़िया की बात करें, चिड़ियों के दोस्त रघु सिन्हा से’ इस टैगलाइन के साथ 29 मॉर्च 2019 को बाल भारती स्कूल इलाहाबाद में एक कार्यक्रम हुआ। यह आयोजन इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी ने आयोजित किया, जिसके मुख्य प्रतिभागी बच्चे रहे। प्रोफ़ेसर रघु सिन्हा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे हैं। नौकरी से वीआरएस लेकर एक दशक से वह पर्यावरण विशेषकर चिड़ियों पर काम कर रहे हैं।
प्रोफ़ेसर रघु सिन्हा ने चिड़ियों के साथ साथ पर्यावरण, प्रकृति और तमाम मूल्यों से बच्चों को परिचित करवाया। उन्होंने बच्चों को बताया कि चिड़ियों में लैंगिक भेदभाव नहीं होता। यह सिर्फ़ इंसानों में होता है। उन्होंने बताया कि चिड़ियों में सिर्फ़ नर के पंख रंग-बिरंगे होते हैं मादा के पंख सादे होते हैं क्योंकि विवाह या प्रेम के लिए साथी का चुनाव मादा चिड़िया करती है।
उन्होंने बच्चों को बताया कि अंडा देने के बाद मादा चिड़िया बाहर सैर सपाटे पर चल देती है और नर चिड़िया घोंसले में अंडों को सेता, सिरजता, रखाता है। इतना ही नहीं साथी मादा चिड़िया के अंडे देने के लिए घोंसला भी नर चिड़िया बनाती है। बच्चों के लिए आहार ढोने का काम नर और मादा दोनों करते हैं। उन्होंने बच्चों को बताया कि प्रकृति में लिंगभेद कम है।
फिर उन्होंने बच्चों को कुछ अच्छे मानवीय गुणों से परिचित कराया जो चिड़ियों में नहीं पायी जाती। उन्होंने बताया कि अपने बूढ़े माता पिता की सेवा करना नेचुरल नहीं है, यह कल्चरल है। ये मानव प्रवृत्ति है। चिड़िया केवल अपने बच्चों के लिए घोंसले बनाती है। वे घोंसलों में अपने माता पिता को नहीं रखते। करुणा, न्याय, लिंगभाव ये केवल मनुष्यों में होता है।
प्रोफ़ेसर रघु ने बच्चों से बताया कि चिड़िया की बोली जो है वो एक तरह की कहानी है। अगर हम लोग चिड़ियों की बोली सुनेंगे तो उसमें कहानी नज़र आएगी, नहीं सुनेंगे तो नहीं नज़र आएगी। उन्होंने तमाम भारतीय चिड़ियों के चित्र दिखाये, उनकी आवाज़ें सुनाईं और उन चिड़ियों से जुड़े दिलचस्प क़िस्से और बातें बतायी। उन्होंने बच्चों से चिड़ियों की आवाज़ की नकल करने को भी कहा।
उन्होंने बच्चों से चिड़ियों से जुड़ी कहानियां भी सुनाने का आग्रह किया। रघु सिन्हा ने बच्चों को एक ही प्रजाति की दो चिड़ियों के चित्र दिखाते हुए बताया कि ये चिड़िया के सारे बाल इसलिए झड़ गये क्योंकि वो गोल्फकोर्स में रहती थी वहां केमिकलयुक्त दाने चुगती थी। खेतों में जो हम लोग रासायनिक खाद डालते हैं उससे चिड़िया को कितना नुकसान होता है।
उन्होंने बच्चों को मैना, धनकिरवा, मच्छीपूंछ अबाबील, शाही बुलबुल, मैना, बुलबुल, चाहा, पपीहा, चातक, सतबहना, कोयल, कौआ, बगुला, सारस, चरखी, आदि तमाम खेतों खलिहानों, नदी, नालों तालाबों में पायी जाने वाली तमाम चिड़ियों के आकार प्रकार और आवाज़ के बारे में बच्चों को दिखाया बताया सुनाया।
प्रोजेक्टर पर सतबहना चिड़िया का चित्र देखते ही हॉल में बैठे सारे बच्चे एकस्वर में चीखे चर्खी। बच्चों के रिस्पांस से गदगद प्रोफ़ेसर रघु ने सतबहना की आवाज़ सुनाते हुए बच्चों से पूछा कि इसे चर्खी क्यों कहते हैं। बच्चों ने बताया कि ये बहुत शोर मचाती है इसलिए।
इसके बाद बच्चों ने चर्खी की आवाज़ भी निकाली। अबाबील के चित्र दिखाकर, आवाज सुनाते हुए उन्होंने बताया कि इसे बेसुरिया भी कहते हैं क्योंकि वो तमाम चिड़ियों की आवाज़ की नकल करती है। उसका अपना कोई सुर नहीं है इसलिए उसे बेसुरिया कहते हैं।
चिड़िया पहचानने का तौर सिखाते हुए उन्होंने बताया कि एक चिड़िया के पंख मछली जैसे होता है इसलिए उसे मच्छीपूंछ कहते हैं। किंगफिशर के बारे में उन्होंने बताया कि इसकी आवाज़ किड़ किड़ होती है इसलिए इसे कई जगह किड़किड़ी बुलाते हैं।
उन्होंने बताया कि किंगफिशर मछली खाती है और वो हवा में बिल्कुल स्टेबल होकर एक जगह रुक जाती है और ये मछली पर सीधा वार नहीं करती। सूरज जब भी होगा इसके पीछे होगा ताकि शिकार इसे देख न सके और ये झपट्टा मारकर शिकार पकड़ लेती है। कभी भी सूरज के विपरीत दिशा से ये मछली नहीं पकड़ती। इसको लोग धोबिनिया भी कहते हैं।
चाहा पक्षी के बारे में उन्होंने बच्चों को बताया कि इसकी चोंच प्लास की तरह होती है। ये कीचड़ से घोंघा पकड़ती है और ले जाकर साफ पानी में रख देती है। जब घोंघा नहा धोकर निकलता है सैर करने तब उसे निकालकर खा लेती है। सैनिटेशन का बहुत ख्याल रखती है। इसकी चोंच घोंघा तोड़ने के लिए प्लास की तरह अनुकूलित होती है।
प्रोफ़ेसर रघु सिन्हा ने तमाम पंक्षियों में नर मादा की पहचान भी बच्चों को बताया। जैसे उन्होने बताया कि तीतर पंक्षी में नर की चोंच काली होती है और मादा की चोंच लाल होती है। उन्होंने मजाकिया लहजे में बच्चों से कहा कि इसने लिप्सटिक लगाया होता है। इस पर बच्चे खिलखिलाकर हंस पड़े।
धनेश (हॉर्नबिल) चिड़िया के बारे में उन्होंने बताया कि यह हिन्दुस्तान में पाई जाने वाली चिड़ियों की 1300 प्रजातियों में सबसे प्राचीन चिड़िया है। यह डायनासॉर युग से चली आ रही है।
कवि अंशु मालवीय ने कार्यक्रम के दौरान अपने बचपन का वाकया साझा किया कि जब वो छोटे थे तो उनके सिर में बहुत दर्द होता था। उनकी ताई धनेश का तेल कहीं से ले आई और सिर में लगा दिया। अंशु जी ने पूछा कि क्या धनेश का तेल सिर दर्द और जोड़ों के दर्द में काम आता है क्या।
इसके जवाब में प्रोफ़ेसर रघु सिन्हा ने बताया कि गठिया और सिरदर्द में इसका तेल लगाया जाता था दर्दनिवारक के तौर पर। लोगों ने अपने फायदे के लिए इसे मारना शुरू कर दिया। एक समय यह लुप्त होने के कगार पर पहुंच गया था। लेकिन पिछले 10 सालों से धनेश की संख्या बढ़ी है। वजह है, चोरी।
उन्होंने बताया कि ट्रांसफॉर्मर का तेल गर्म होने के बाद लसलसी सी बन जाती है। एक विद्युत विभाग के सज्जन ने इसका इस्तेमाल किया और अब गांव गांव में इसका प्रचार हो गया है तो लोग अब ट्रांसफॉर्मर के तेल की चोरी करके बेंचने लगे हैं गठिया दर्द के इलाज के लिए। ट्रांसफर्मर का तेल लोगों को सस्ते में मिल जाता है। इससे अब लोग धनेश का शिकार नहीं करते। दाग अच्छे हैं कि तर्ज़ पर उन्होंने कहा कि ये चोरी अच्छी है जिसके चलते धनेश की जान बच गई और उनकी तादात बढ़ने लगी है।
मुनिया और ललमुनिया के बारे में उन्होंने बताया कि 16 प्रकार की मुनिया पक्षी हिंदुस्तान में पायी जाती हैं। इसकी एक प्रजाति ललमुनिया को लोग पिंजरे में सजाने के लिए पालते हैं। फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मारे गले गुलफाम पर आधारित शैलेंद्र निर्मित फिल्म तीसरी कसम में एक लोकगीत है– “चलत मुसाफिर मोहि लियो रे पिंजरे वाली मुनिया।” पपीहा (ओरियो) के बारे में प्रोफ़ेसर साहेब ने बताया कि इसका जिक्र शास्त्रों में आता है। जैसे जैसे आम के पेड़ पर बौर आएगा वैसे वैसे है ये चिड़िया नज़र आने लगती है, इसीलिए इसे बौरायी हुई चिड़िया भी कहते हैं।
उल्लू के बारे में उन्होने बच्चों को बताया कि इसकी आंख इंसानों की तरह सामने होती है। जिससे यह बहुत दूर तक देख सकता है और अंधेरे में भी देख सकता है। ये अपना सिर 240 डिग्री एंगल तक घुमा सकता है। ये लक्ष्मी का वाहन माना जाता है। इसकी एक प्रजाति को मरचिरैया भी कहते हैं। इसे देखकर लोग बाग श्राद्ध तक कर देते हैं। जिसके घर पर बैठ जात है वहां के लोग इसे अपशकुन मानकर डरते हैं। हिन्दुस्तान में 32 तरह के उल्लू पाये जाते हैं। दीवाली के समय इनको पकड़कर बलि दी जाती है। क्योंकि भूत-प्रेत वाली बातें भी उल्लू से जुड़ी हैं।
टिटहरी की आवाज़ सुनाते हुए चिड़ियों के दोस्त रघु ने बच्चों को बताया कि यह अंग्रेजी में पूछती है ‘डिड यू डू इट’ (क्या तुमने किया था)। एक्टिविस्ट कवि अंशु मालवीय जी ने टिटहरी से जुड़ा आसमान बचाने वाला किस्सा याद दिलाते हुए पूछा तो प्रोफ़ेसोर रघु ने बताया कि वो कहानी है। लेकिन ‘मेरी वजह से आसमान टिका हुआ है यह टिटहरी की सोच नहीं है, ये आईएसएस अफसरों और हाकिमों की सोच होती है’।
टिटहरी के बहाने इवोल्यूशन की प्रक्रिया को समझाते हुए उन्होंने बच्चों को समझाया कि चिड़ियों के ‘पर’ उनके पंजे होते हैं। लेकिन टिटहरी के चार अंगुली तो ‘पर’ में बदल गये लेकिन अंगूठा ‘पर’ में परिवर्तित नहीं हुआ इसलिए इसे हॉर्नबिल कहते हैं।
उन्होंने बताया कि बेजर्स चिड़ियां पानी में चलती हैं इसलिए इनकी टांगे बहुत लम्बी होती हैं। उन्होंने बताया कि ये एक पैर पर सोती है और 20-25 मिनट बाद जब वो पैर थक जाता है तो दूसरा पैर निकालकर सो जाती है।
बाज पक्षी की चालाकी के क़िस्से सुनाते हुए उन्होंने बच्चों को बताया कि बाज चिड़िया मधुमक्खी के छत्ते के कीड़ों को निकालकर खाती है। ये चिड़िया झपट्टा मारकर मधु का छत्ता ले भागती है और मधुमक्खी वहां मौजूद लोगों और जानवरों पर हमला कर देती है।
पानी का कौआ (पनकौव्वा) दिखाते हुए रघु सिन्हा ने बच्चों को बताया कि ये चिड़िया पानी में डुबकी लागकर अपना आहार इकट्ठा करती है। पंख गीले होने से ये उड़ नहीं सकती तो पंख फैलाकर ज़मीन पर दौड़ती है ताकि पंख सूख जायें।
फाख्ता चिड़िया को दिखाते हुए उन्होंने ‘होश फाख्ता होना’ मुहावरे की व्याख्या की। प्रोफ़ेसर साहेब ने बच्चों को बताया कि किसी और चीज को कोई और चीज समझ लेना यानि फाख्ता का अर्थ भ्रम में होना। फाख्ते को कबूतर समझकर बहुत लोगों ने मारा और खाया। इसलिए ये मुहावरा भी है कि बड़े मियां फाख्ते उड़ाया करो। फाख्ता ग़लतफ़हमी का एक प्रतीक है।
सारस चिड़िया आजकल राजनीतिक चर्चा का केंद्र बनी हुयी है। सारस का चित्र दिखाते हुए उन्होंने बताया कि इसको कंठिया भी कहते हैं। इसकी बेसुरी आवाज़ के चलते इसे क्रौंच भी कहते हैं। यही वो चिड़िया जिसके चलते रामायण लिखा गया। ये चिड़िया न होती तो वाल्मीकि रामकथा न लिखते। सारस दुनिया का सबसे बड़ा क्रेन पक्षी होता है।
डॉ विक्रम ने सारस और डॉ रघु के सम्बन्ध में इंडियन एक्सप्रेस का हवाला देकर पूछा तो उन्होंने बताया कि जब वो बहुत छोटे थे तो एक सारस ज़ख्मी होकर उनके घर आंगन में आ गया था। घऱ वालों ने उसका ख्याल रखा। ठीक होकर वो उनके घर के सभी कमरों में घूमा करता था और पूजा पाठ के समय वो घंटा बजाया करता। उन्होंने बताया कि जितनी भी चिड़िया होती हैं उनके जन्म के तीन-चार सप्ताह भीतर जो भी उसको खिलाएगा पिलाएगा ख्याल रखेगा उसी के पीछे पीछे वो चलने लगती हैं। वे कंडीशन्ड हो जाते हैं।
पनडुब्बी चिड़िया के बारे में उन्होंने बताया कि इसकी आंखें नीलम की तरह होती हैं। इसकी प्रजाति सिर्फ़ हिन्दुस्तान में पायी जाती है। ऐसा 55-56 चिड़िया हैं जो केवल हिन्दुस्तान में पायी जाती हैं। इसके बाद उन्होंने पानी की एक और चिड़िया शार्प के बारे में बताया कि गांव में इसें घेंचा चिड़िया कहते हैं।
ये चिड़ियों की अर्जुन है। यह मछली पकड़ती नहीं बल्कि चोंच मारकर मछली में छेद कर देती है। इसके गले में 25 हड्डियां होती हैं। इसीलिए इसकी गर्दन बहुत ताकत से तीर की माफिक चलती है। फिर प्रोजेक्टर पर चकोर चिड़िया को दिखाते हुए उन्होंने बताया कि चकोर चांद के लिए प्यासा होता और चातक पानी के लिए प्यासा होता है।
बगुलों के चित्र दिखाते हुए उन्होंने बताया कि बगुला गाय भैंस आदि जानवरों के पीछे चलता है। उनके खुर से ज़मीन खुद जाती है और ज़मीन में पड़े कीड़े केचुए बाहर निकल आते हैं। तो वो पकड़कर खा लेता है। अब ये भी मॉडर्न हो गया है अब ट्रैक्टर के पीछे पीछे चलता है। इसकी पॉटी बहुत एसिडिक होती है इसलिए ये जिस पेड़ को अपना ठिकाना बनाते हैं वो पेड़ कुछ ही सालों में सूख जाता है।
बगुले की एक बड़ी धवल प्रजाति को दिखाते हुए उन्होंने बताया कि आप लोगों ने एक मुहावरा सुना होगा कि सुरखाब के ‘पर’ निकल आये हैं। वो सुरखाब के नहीं होते इसी के होते हैं। यूरोप में क़रीब करीब लुप्त हो गया था क्योंकि इसी के पर से लोग अपने ड्रेस वगैरह बनाते थे। लेकिन अब प्लस्टिक के पर चलन में होने से इनकी संख्या बढ़ चली है।
उन्होंने बच्चों को बताया कि चिड़ियों को नमक नहीं खिलाना चाहिए। उन्हें अनाज और फल खिलाना चाहिए। इसके बाद कठफोड़वा के बाबत मिथक को दूर करते हुए उन्होंने बच्चों को बताया कि ये काठ नहीं फोड़ती। फोड़ेगी तो इसके चोंच टूट जाएंगे। इसके चोंच इसलिए लम्बे हैं क्योंकि यह ज़मीन से कीड़े खोदकर खाती है।
उन्होंने आवाज़ सुनाकर बताया कि इसकी आवाज़ सुनकर आप जान जाएंगे कि अंग्रेजी में इसका नाम कुकू क्यों पड़ा होगा। इसका पारसी नाम है हुदहुद। एक बच्चे ने पूछा कि क्या पहले इसका सिर और पंख सोने के होते थे ऐसी लोक कहानी है। जवाब में रघु सिन्हा जी ने बताया कि नहीं ऐसा हुआ नहीं होगा पर कहानी अच्छी है। पर ज़रूरी नहीं कि वो सच भी हो।
इसके बाद उन्होंने तीतर के चित्र दिखाते हुए कहा कि रामायण के लिए अगर सारस जिम्मेदार है तो तैत्तरीय उपनिषद के लिए तीतर जिम्मेदार है। उपनिषद का पहला श्लोक इसी पर है। पहले लोग तीतर की लड़ाई मनोरंजन के लिए करवाते थे। इसके पंजे बहुत मजबूत और पैने होते हैं। पनडुब्बी चिड़िया के बारे में उन्होंने बताया कि इसे इसकी आवाज़ के चलते डिपचिक भी कहते हैं। ये पानी में एक जगह डुबकी मारती है और दूसरी जगह निकलती है।
साईबेरियन पक्षी का मिथक तोड़ते हुए प्रोफ़ेसर रघु सिन्हा ने बताया कि ठंडियों में गंगा जमुना के किनारे बहुतायत दिखने वाली इस चिड़िया को तमाम अख़बर, टीवी और लोग कहते हैं ये विदेश से आया है, साईबेरिया से आया है। लेकिन ये यहीं की चिड़िया है सिर्फ़ बच्चे देने के लिए यह हिमालय जाती है। ठंड से बचने के लिए ये इलाहाबाद से बनारस भी चली जातीं हैं। आप जानते कि इंडियन है, तो थोड़े न लाई चना खिलाते। साईबेरियन समझकर ही लाई चना खिलाते हैं।
पनचीर (इंडियन स्कीमर) पंक्षी को दिखाते हुए प्रोफ़ेसर रघु ने बताया कि इसके ऊपर के चोंच छोटे और नीचे के चोंच बड़े होते हैं। ये पानी में चोंच डालकर पानी चीरते हुए उड़ती है इसलिए इने पनचीर चिड़िया कहते हैं। मछली खाने वाली ये चिड़िया ग़ायब होने के कगार पर है।
उन्होंने बताया कि लोग गंगा जमुना में मछली पकड़ने के लिए जाल लगाते हैं और जब पनचीर चिड़िया पानी में चोंच डुबोये उड़ती है तो उसकी चोंच जाल में फंस जाती है और झटके से उसकी गर्दन टूट जाने से उसकी मौत हो जाती है। इसके लुप्त होने के पीछे ये एक मुख्य कारण है। ये चिड़िया इलाहाबाद और चंबल में बहुत गिनी-चुनी बची हैं इस पर अध्ययन करने के लिए विदेशों से लोग इलाहाबाद आते हैं।
प्रोफेसर रघु सिन्हा ने कार्यक्रम में शिरकत करने वाले बच्चों को चिड़ियों के चित्र दिये और कहा कि इन चिड़ियों को अपने आस पास देखना और उनके जैसा रंग भरना। उन्होंने बच्चों से आग्रह किया कि आप लोग चिड़ियों की तस्वीर बनाइएगा। आप लोग चिड़ियों से बात करना सीखिए। आप तभी बात कर पाएंगे जब चिड़ियों की आवाज़ ध्यान से सुनेंगे और उसकी नकल करेंगे और उसे पहचानेंगे।
डेढ़ घंटे के मनोरंजक और शिक्षाप्रद सत्र के आखिर में प्रोफ़ेसर रघु ने कहा कि ये बच्चे देश के भविष्य हैं और हमारी प्रकृति, पर्यावरण और धरती के यही लोग बचाएंगे, इसलिए इन्हें सजग शिक्षित और संवेदनशील बनाये जाने की ज़रूरत हैं।
इससे पहले पर्यावरण और चिड़ियों से बच्चों के संवाद कार्यक्रम की रूप-रेखा बनाते हुए कार्यक्रम का संचालन कर रहीं एक्टिविस्ट, समाजिक व महिला अधिकार कार्यकर्ता उत्पला शुक्ला ने कहा कि हम लोग बच्चों के साथ बहुत सारी बातें करते हैं। वर्कशॉप करते हैं। इसमें हम लोग समाज में दोस्ताना रहे, इस मुद्दे पर बातचीत करते हैं।
उन्होंने प्रकृति के महत्व को समझाते हुए बच्चों से कहा कि हवा, पानी, मिट्टी सबसे दोस्ती की बात समझनी और सीखनी होगी। क्योंकि अगर चिड़िया की बात करेंगे तो पेड़ की बात कैसे नहीं करेंगे। चिड़ियों की बात करेंगे तो उनके आहार की बात कैसे नहीं करेंगे। बहुत ज़्यादा प्रदूषण है मिट्टी में पानी में। हम लोग बहुत खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं उसने चिड़ियों पर असर डाला है।
प्रकृति में हम सब एक दूसरे से कितना जुड़े हुए हैं और कोई भी एक पक्ष को हम नज़रअंदाज़ करते हैं तो वो दूसरे पक्ष को भी प्रभावित करने लगता है। उसकी ज़िंदगी को भी प्रभावित करता है। इसी आपसी रिश्ते को चिड़ियों के बहाने जानने समझने की कोशिश है और चिड़ियों को जानने पहचानने का यह आयोजन है।
(प्रयागराज से सुशील मानव की रिपोर्ट)