मानसून के आगमन में विलंब की संभावना

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इस वर्ष मानसून के थोड़ी देर से आने की संभावना है। मानसून देश में सबसे पहले केरल के तट पर आता है। एक जून इसकी संभावित तारीख होती है। इस बार केरल तट पर मानसून के 4 जून को आने के संभावना है। भारतीय मौसम विभाग ने मंगलवार को इसकी घोषणा की है। मौसम विभाग के पूर्वानुमान में चार दिन की घट-बढ़ की संभावना रखी जाती है। लेकिन केरल में मानसून आने की तारीख में फेरबदल का समूचे मानसून की वर्षा की मात्रा पर कोई असर नहीं होता। इससे मानसून में घट-बढ़ के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

केरल के तट पर मानसून के आगमन से केवल उस मौसम की शुरुआत का पता चलता है जिस मौसम में वर्ष भर में होने वाली वर्षा का 80 प्रतिशत बरसता है। हालांकि केरल से भी पहले अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में वर्षा होने लगती है। वहां केरल से करीब दो सप्ताह पहले मानसून आ जाता है। लेकिन भारत की मुख्यभूमि पर मानसून के आगमन की घोषणा कतिपय शर्तों के पूरा होने पर भारतीय मौसम विभाग करता है। इसके लिए केरल के तटीय क्षेत्र में मौसम केन्द्र बनाए गए हैं।

केरल के तटों पर चुने हुए 14 मौसम केन्द्रों पर वर्षा की मापी होती है। अगर 60 प्रतिशत केन्द्रों पर 10 मई के बाद लगातार दो दिनों तक कम से कम 2.5 मिलीमीटर वर्षा रिकॉर्ड की गई तो कहा जाता है कि मानसून का आगमन हो गया। कुछ दूसरी शर्तें भी हैं जो हवा की गति और दबाव से जुड़ी हुई हैं। उसके बाद मानसून उत्तर की दिशा में आगे बढ़ता है। इसकी गति स्थानीय मौसम की परिस्थितियों पर निर्भर करती है। खासकर निम्न दबाव के क्षेत्र बनने पर निर्भर करती है।

देश के विभिन्न इलाकों में इसके पहुंचने की तारीख तय है। हालांकि मानसून के पहुंचने की तारीख हमेशा एक समान नहीं रहती। उसमें आगे-पीछे होता रहता है। केरल में मानसून के देर से आने पर अन्य जगहों पर भी आमतौर पर मानसून देर से पहुंचता है। हालांकि ऐसा हमेशा नहीं होता।

केरल में बीते पांच वर्षों में केवल एक बार 2020 में तय तारीख को मानसून आया। पिछले 11 वर्षों में ऐसा एक बार और हुआ है। ज्यादातर वर्षों में मानसून का आगमन चाहे पहले हुआ है या बाद में, लेकिन मानसून के दौरान वर्षा की मात्रा पर कोई असर नहीं दिखा है। उदाहरण के लिए 2016 में मानसून का आगमन 8 जून को हुआ जो पिछले 12 वर्षों में सर्वाधिक विलंब से आगमन था। उस वर्ष मानसून के दौरान सामान्य, दीर्घकालीन औसत का 97.5 प्रतिशत वर्षा हुई। 2018 में मानसून पहले 29 मई को ही आ गया, उस साल वर्षा दीर्घकालीन औसत का 90 प्रतिशत हुई।

मानसून का आगमन पहले या विलंब से होना कोई मतलब नहीं रखता, मतलब इस दौरान प्रशांत महासागर में विषुवत रेखा के क्षेत्र की बनने वाली परिस्थितियों का होता है, इसका असर पड़ता है। इस वर्ष अल नीनो जो दुनिया भर में मौसम को प्रभावित करता है, के जल्दी उत्पन्न होने की संभावना बन रही है। अल नीनो भारतीय मानसून को काफी प्रभावित करता है। यह वर्षा को घटा देता है।

भारतीय मौसम विभाग ने इस साल के लिए पहला मौसम पूर्वानुमान पिछले महीने जारी किया, जिसमें मानसून में सामान्य वर्षा होने की संभावना जताई गई थी। पर तब से प्रशांत क्षेत्र की परिस्थिति काफी बदल गई है। ताजा पूर्वानुमान है कि इस वर्ष मई-जून में ही अल नीनो परिस्थिति विकसित हो सकती है। अमेरीका के ‘नेशनल वेदर सेंटर के क्लाइमेट प्रिडिक्शन सेंटर’ ने 11 मई को चेतावनी जारी की और कहा कि अगले महीनों में अल नीनो के विकसित होने की संभावना है। इसकी 90 प्रतिशत संभावना है कि तब से यह परिस्थिति पूरे साल भर बनी रहेगी।

कुछ वैज्ञानिक पूरे वर्ष शक्तिशाली अल नीनो परिस्थिति बनी रहने की संभावना जता रहे हैं। इसका यह भी मतलब है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी होने की संभावना है। भारतीय मौसम विभाग पूर्वानुमान को इस महीने के आखिर तक अद्यतन करे, इसकी पूरी संभावना है। उसमें अल नीनो की ताजा स्थिति के प्रभावों को भी शामिल किया जाएगा।

मानसून की स्थिति का आकलन मोटे तौर पर वर्षापात की स्थिति से किया जाता है। पूरे साल में हुई वर्षा की मात्रा और दीर्घकालीन औसत का प्रतिशत देखा जाता है। इसमें 4 प्रतिशत के विचलन, कम या अधिक को सामान्य माना जाता है। इस प्रकार वर्ष 2009 के बाद अब तक केवल तीन साल मानसूनी वर्षा सामान्य से कम रही- 2014, 2015 और 2018। अन्य दस वर्षों में वर्षा सामान्य या अधिक हुई।

लेकिन इस इकलौते सूचक से देश में वर्षापात में आ रहे बदलाव को नहीं समझा जा सकता। मानसून के दौरान वर्षापात के दिन घट रहे हैं, कम दिनों में अधिक वर्षा होने लगी है। इसके साथ ही सूखे दिनों की संख्या बढ़ रही है। इसके अलग-अलग क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा में बहुत ही बदलाव दिखाई पड़ता है। समूचे भारत को देखें तो 2009 के बाद केवल तीन बार वर्षा सामान्य से कम रही।

बाढ़ और सूखा भी आते रहते हैं। अतिवृष्टि की घटनाएं बढ़ गई हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होगी। इसलिए मोटे तौर पर इसका कोई मतलब नहीं रह गया कि मानसून के दौरान देश में सामान्य वर्षा होती है या नहीं। वर्षा में क्षेत्रीय विचलन और अतिवृष्टि की घटनाएं अधिक महत्वपूर्ण हो गई हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि मानसून कैसा रहा।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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