राष्ट्रीय नदी घाटी मंच ने नदियों के संरक्षण, सुरक्षा एवं पुनर्जीवन के लिए कानून का मसौदा तैयार किया

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बड़वानी। भारत में 400 से अधिक बड़ी नदियां हैं। लगभग सभी नदियों का पानी प्रदूषित हो चुका है। नदी का पानी ना पीने लायक बचा है और ना ही नहाने लायक बचा है। नदियों के किनारों का अतिक्रमण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, रेत का अंधाधुंध उत्खनन होने के कारण तथा बड़े पैमाने पर जंगल कटाई के चलते नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। नदियों पर आश्रित मछुआरों के सामने जीवकोपार्जन का संकट पैदा हो गया है।

नदियों को बांधकर बड़े से बड़े बांध बनाने की सोच ने नदियों के प्रवाह को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है। इस स्थिति से निपटने और बदलने के विचार को लेकर 38 वर्षों से नर्मदा घाटी में सक्रिय नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर के नेतृत्व में 15-16 सितंबर को बड़वानी में राष्ट्रीय नदी घाटी मंच द्वारा देशभर की प्रमुख नदियों की सुरक्षा, संवर्धन और पुनर्जीवन के लिए कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरण विशेषज्ञों, किसानों एवं मछुआरों के संगठनों को बुलाकर नदियों को बचाने के लिए ‘नदियों के संरक्षण, सुरक्षा और पुनर्जीवन’ पर अधिनियम का मसौदा तैयार किया गया। जिसे हजारों किसानों तथा विभिन्न नदी घाटी के नागरिकों की उपस्थिति में राज्यसभा सांसद अनिल हेगड़े को सौंपा गया।

सम्मेलन को संबोधित करते हुए सांसद अनिल हेगड़े ने कहा कि दुनिया का इतिहास बताता है कि नदियों के इर्द-गिर्द ही विभिन्न सभ्यताएं और संस्कृतियां पनपी हैं। उन्होंने डॉ लोहिया का उल्लेख करते हुए कहा कि डॉ लोहिया ने इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए देश की नदियों को बचाने और सफाई की आवश्यकता पर बल दिया था। यदि देश के शासकों ने उनकी दृष्टि से नदी घाटी विकास की योजनाएं बनाई होतीं तो आज देश की विभिन्न नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा नहीं होता।

उन्होंने उपस्थित जन समुदाय को आश्वस्त किया कि वे सदन के अगले सत्र में निजी विधेयक के माध्यम से देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए ‘नदियों के संरक्षण, सुरक्षा एवं पुनर्जीवन पर अधिनियम’ का मसौदा को पेश करेंगे।

देश की विभिन्न नदियों से जुड़े तमाम मुद्दों को लेकर कई दशकों से सर्वोच्च न्यायालय में केस लड़ रहे वरिष्ठ अधिवक्त्ता संजय पारीख ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि उनके जीवन की यह बड़ी उपलब्धि है कि वे नर्मदा घाटी के विस्थापितों और देश के वंचितों के किसी काम आए।

उन्होंने कहा कि सरकारों को नदियों से लेकर विकास की दृष्टि बदलनी होगी क्योंकि वर्तमान नीति न तो मानव केन्द्रित है और न ही पर्यावरणमुखी। आने वाली पीढ़ियों को हम क्या छोड़ कर जा रहे हैं, यह सरकारें सोचने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने न्याय के लिए संघर्ष करने वालों पर हो रहे राज्य दमन को लेकर कविता भी सुनाई, जिसमें सत्ताधीशों द्वारा आंदोलनकारियों के प्रति क्रूरता का मार्मिक चित्रण हुआ है।

सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए मेधा पाटकर ने कहा कि जिस अवधारणा को लेकर सरकारें आगे बढ़ रही हैं उनमें यदि आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया गया तो हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। उत्तराखंड में बार-बार हो रही तबाही का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि प्रकृति द्वारा सरकारों को बार-बार चेतावनी दी जा रही है लेकिन सरकारें अपने तौर तरीकों में परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं। जिसका परिणाम उत्तराखंड के नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है।

नर्मदा संरक्षण न्यास की संस्थापक अमृता दिग्विजय सिंह ने कहा कि विधेयक का प्रारूप तैयार करना एक महत्वपूर्ण पहल है। उन्होंने कहा कि नदियों को बचाने के मुद्दे को राष्ट्रीय एजेंडे में लाने की जरूरत है। उन्होंने अब तक नर्मदा पर बने 10 बांधों के सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय असर के अध्ययन की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए नर्मदा संरक्षण न्यास द्वारा देश के विशेषज्ञों द्वारा यह अध्ययन कराने की घोषणा की।

सम्मेलन को तीस्ता बचाओ अभियान की ओर से पूर्व सांसद देव प्रकाश रे; कोसी नदी के जन आयोग की रिपोर्ट को महेंद्र यादव; ताप्ती और बेल पर ताप विद्युत गृहों का अध्ययन- चंद्रकांत चौधरी; ऑल केरला रिवर प्रोटक्शन काउंसिल द्वारा नदी-घाटियों के पुनर्जीवन की नीति; जलधारा अभियान जयपुर द्वारा जल स्रोतों के सुधार; 38 वर्षों के संघर्ष और रचना के नर्मदा बचाओ आंदोलन को लेकर मेधा पाटकर; नदियों, पहाड़ों और जंगल को बचाने के संवैधानिक अधिकार को लेकर जबलपुर के राजकुमार सिन्हा; गंगा और असी के प्रदूषण से सुरक्षा के उपाय को लेकर यू एन राय (डायरेक्ट क्लीन इंडिया); पेंच नदी को पेंच व्यपवर्तन परियोजना तथा अडानी पेंच पावर प्रोजेक्ट से होने वाले नुकसान पर एड. आराधना भार्गव ने अपने वक्तव्य रखे।

असल में किसानों से यह अपील करने की जरूरत है कि वे जिस पानी से अन्न उपजाते हैं तथा जिसके कारण वे अन्नदाता कहलाते हैं, उन जल स्रोतों को बचाना, उनका संवर्धन और पुनर्जीवित करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी तो है ही, साथ ही जीविकोपार्जन को बचाने हेतु आवश्यक कार्य भी है।

प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के परिणाम स्वरूप पैदा हुए जलवायु संकट को अतिवृष्टि, ओलावृष्टि और सुखे के तौर पर दुनिया भुगत रही है। जिसकी सीधी मार किसानों पर पड़ रही है। इसलिए जिस तरह से किसान संपूर्ण कर्जा मुक्ति, एमएसपी की कानूनी गारंटी की लड़ाई लड़ रहे हैं, उसी तरह उन्हें नदियों की सुरक्षा, संरक्षण और संवर्धन संबंधी विधेयक को केंद्र और राज्य सरकारों से लागू कराने की लड़ाई लड़नी चाहिए।

मेधा पाटकर को पहल कर विधेयक के प्रारूप पर राजनीतिक दलों से चर्चा कर उनसे समर्थन जुटाना चाहिए। इंडिया गठबंधन से अपील करनी चाहिए कि वे इस विधेयक के मसौदे को स्वीकार कर कानून बनाने का आश्वासन देकर देश की जनता को आश्वस्त करें कि एनडीए विकास का मोदानी मॉडल लादकर नदियों को बर्बाद कर रहा है। जिससे नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है तथा इंडिया गठबंधन नदियों को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है।

विधेयक को कानून बनवाना तभी संभव होगा जब देश की विभिन्न नदियों के किनारे रहने वाले किसान, ग्रामीण, मछुआरे और नदियों से पीने का पानी प्राप्त करने वाले शहरी नागरिक संयुक्त किसान मोर्चा की तर्ज पर दिल्ली को घेरेंगे या अपने जिला मुख्यालय को घेरकर अनिश्चितकालीन सत्याग्रह के माध्यम से सरकारों को मजबूर करेंगे।

(डॉ सुनीलम, पूर्व विधायक एवं किसान संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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