उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जलवायु परिवर्तन का कहर

अंधाधुंध सड़क निर्माण और जल विद्युत परियोजनाएं उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को बढ़ा रही हैं जो हाल के वर्षों में बादल फटने और अचानक बाढ़ आने (flash floods) के रूप में प्रकट हो रहा है। हर गुजरते साल के साथ, आपदाओं की आवृत्ति और परिमाण दोनों और अधिक गंभीर होते जा रहे हैं।

यह कैसे जमीनी स्तर पर लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है, इसका एक उदाहरण उत्तराखंड के जोशीमठ से मिलता है, जो चमोली जिले में आता है। यहां पिछले साल 7 फरवरी को एक हिमनद (glacier)फटने के कारण एक बड़ी आपदा आई, जिसने नैना देवी राष्ट्रीय उद्यान के पास दो जलविद्युत परियोजनाओं को नष्ट कर दिया था। इस घटना में 74 लोगों की जान चली गई। यद्यपि तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के पास एक सुरंग में फंसे कई श्रमिकों को बचा लिया गया, कई शव कुछ दिनों बाद ही मिले।

विशेषज्ञों का मानना है कि जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण, जिसमें पत्थर उत्खनन, पहाड़ों को नष्ट करना और पर्वत प्रणाली के आधार में सुरंग खोदना शामिल है, आपदा का कारण बन सकता है।

एक साल बाद भी, भूमि अस्थिर है और स्थानीय निवासियों ने शिकायत की है कि उनके घरों में दरारें पड़ रही हैं या परिसर और सड़कें बेतरतीब जगहों पर धंस रही हैं।

“हमारे गांव के नीचे की सड़क धंस गई है। गौरा देवी, जिन्होंने प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया था, की प्रतिष्ठित प्रतिमा को सड़क के केंद्र से स्थानांतरित करना पड़ा। कई घरों में चौड़ी दरारें आ गई हैं और ये कभी भी गिर सकती हैं। जब भी भारी बारिश होती है, तो लोगों के पास नज़दीक के वन क्षेत्र में शरण लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है, ” रैनी गांव के निवासी और गौरा देवी के पोते चंदर सिंह राणा ने कहा। “यह गांव पिछले साल इस क्षेत्र में अचानक आई बाढ़ आपदा की उत्पत्ति-केंद्र के सबसे करीब था।“

राज्य सरकार के आदेश पर पिछले साल की अचानक आई बाढ़ (flash floods) के बाद जाने-माने भूवैज्ञानिकों – सरस्वती प्रकाश सती, शुभ्रा शर्मा और नवीन जुयाल – ने जोशीमठ की नाजुकता (fragility)पर एक अध्ययन किया, और भविष्य में इस नाजुक क्षेत्र के लिए, विनाशकारी परिणामों को रोकने या कम करने के उपाय सुझाए।

रिपोर्ट के अनुसार, प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक हेम और गांसर (1939) द्वारा पहली बार देखा गया कि जोशीमठ शहर एक पुराने भूस्खलन जमाव पर स्थित है; यह खुद ही बताता है कि ढलान कितने नाजुक हैं।

हालांकि, अपने स्थान की भूगर्भीय नाजुकता को नजरअंदाज करते हुए, शहर 1960 के बाद तेजी से बढ़ने लगा। 60 के दशक के अंत में ही शहर की सुरक्षा और स्थिरता के बारे में चिंता एक मुद्दा बन गई। तत्कालीन सरकार ने 1976 में मिश्रा समिति के नाम से एक निकाय की स्थापना की। इस समिति की सिफारिशें आज भी प्रासंगिक हैं।

समिति ने सिफारिश की कि तात्कालिक उपाय के रूप में, विशेष रूप से अनिश्चित रूप से टिके हुए क्रिस्टलीय शिलाखंडों की कोई उत्खनन गतिविधियां नहीं होनी चाहिए। आगे, क्षेत्र में निर्माण स्थल की स्थिरता की जांच के बाद ही निर्माण कार्य किया जाना चाहिए और ढलानों पर खुदाई पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

दूसरे, खुदाई या ब्लास्टिंग से कोई पत्थर नहीं हटाया जाना चाहिए और भूस्खलन क्षेत्र में कोई पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए। विशेष रूप से मारवाड़ी और जोशीमठ के बीच के क्षेत्र में व्यापक वृक्षारोपण कार्य शुरू किया जाना चाहिए और ढलानों पर जो दरारें पैदा हुई हैं, उन्हें सील कर दिया जाना चाहिए। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तलहटी पर लटके हुए शिलाखंडों को उचित सहारा दिया जाना चाहिए और कटाव निरोधक उपाय किए जाने चाहिए। इस बात पर भी जोर दिया गया कि जोशीमठ शहर के 5 किमी के दायरे से निर्माण सामग्री एकत्र करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए।

हालाँकि, मिश्रा समिति की किसी भी सिफारिश को सरकार की नीतियों में न तो अपनाया गया और न ही धरातल पर लागू किया गया।

नदी पारिस्थितिकी और जल विद्युत परियोजनाओं से संबंधित मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ रवि चोपड़ा ने कहा , “जिस तरह से ऋषि गंगा जलविद्युत परियोजना धराशायी हो गई और तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना पिछले साल जोशीमठ में अचानक आई बाढ़ में बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई, यह दर्शाता है कि साइट चयन या परियोजना व्यवहार्यता से पहले कोई होमवर्क नहीं किया गया था। बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान उठाने के अलावा, परियोजना संरचनाओं के मलबे ने बाढ़ की मात्रा और कहर की भयावहता को भी बढ़ाया, जिसके कारण इस क्षेत्र में स्थिर भूस्खलन का पुनरुत्प्रेरण भी हुआ।

विख्यात भूवैज्ञानिकों की हालिया रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि उत्तराखंड हिमालय में ढांचागत विकास गतिविधियों का अभूतपूर्व दौर देखा जा रहा है। नतीजतन, अनिश्चित व खतरनाक रूप से टिके हुए, मलबे से लदी ढलान प्राकृतिक (चरम जल-मौसम संबंधी घटनाओं) और मानवजनित हस्तक्षेपों  के प्रति बेहद संवेदनशील हो जाती है। मानव जनित हस्तक्षेपों  में शामिल हैं हिमनदों से पोषित नदियों की जलविद्युत क्षमता का दोहन करने के प्रयास, सड़क नेटवर्किंग के लिए ढलानों की खुदाई, और सबसे महत्वपूर्ण, अर्बन टाउन्स का अनियोजित प्रसार। संकट की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मानसून के दौरान मध्य हिमालय के किसी न किसी क्षेत्र में विनाशकारी आपदा आती है।

रिपोर्ट में भूवैज्ञानिकों ने इस तथ्य पर खेद व्यक्त किया कि ढलान की स्थिरता और घरेलू अपशिष्ट जल (domestic wastewater) के निपटान के लिए कम से कम ध्यान दिया जाता है। चोपड़ा ने कहा, “सड़क चौड़ीकरण के काम ने कई नए भूस्खलन क्षेत्र बना दिये हैं जो हर मानसून में स्थानीय लोगों के लिए परेशानी पैदा करते हैं। ढलानों से मलबा नीचे गिरने के कारण कई लोग घायल हुए हैं या उनकी मौत हो गई है। इन ढलानों को बेतरतीब ढंग से काट दिया गया था और सड़क चौड़ीकरण का काम पूरा होने के बाद मानदंडों के अनुसार दुरुस्त नहीं किया गया था। ”

रिपोर्ट में, भूवैज्ञानिकों का सुझाव है कि सड़क इंजीनियरों को अत्याधुनिक (state-of the art) ढलान उपचार विधियों का प्रयोग करके अवतल क्षेत्रों में स्थिरता प्रदान करने के तरीके खोजने चाहिए, जैसा कि एनएच-58 के रास्ते में कुछ स्थानों पर देखा गया है।

उत्तराखंड जलवायु परिवर्तन केंद्र के अधिकारियों के लगातार प्रयासों के बावजूद कि हर राज्य सरकार  का विभाग अपनी नीतियों और बजट आवंटन में जलवायु परिवर्तन की चिंताओं को शामिल करे, उनकी सलाह से कोई खास फर्क नहीं पड़ा है।

डॉ अंजल प्रकाश, जो इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (ISB), हैदराबाद में शोध निदेशक और सहायक सहयोगी प्रोफेसर हैं, ने कहा, “आईपीसीसी की बदलती जलवायु में महासागरों और क्रायोस्फीयर पर विशेष रिपोर्ट (Special Report on Oceans and Cryosphere in a Changing Climate, SROCC) रिपोर्ट करती है कि जलवायु परिवर्तन ने प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और परिमाण को बदल दिया है। जोशीमठ में हिमस्खलन के कारण के बारे में आपको जानकारी देने के लिए हमारे पास अभी डेटा नहीं है, लेकिन हम प्रथम दृष्ट्या जो जानते हैं, यह है कि यह काफी हद तक एक जलवायु परिवर्तन घटना जैसा दिखता है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हिमनदों के पीछे हटने (glacier retreat) पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव अच्छी तरह से डॉक्यूमेंट किया गया है। हाल के ICIMOD-समर्थित HI-MAP नामक मूल्यांकन रिपोर्ट ने भी इन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया है। रिपोर्ट से पता चलता है कि हिंदू-कुश हिमालयी क्षेत्र में तापमान बढ़ रहा है और वैश्विक तापमान में वृद्धि का हिमालयी क्षेत्र में ऊंचाई पर निर्भर वार्मिंग (elevation-dependent warming) के कारण अधिक प्रभाव पड़ेगा।

उन्होंने आगे कहा, “मैं सरकार से इस क्षेत्र की बेहतर निगरानी के हक में अधिक संसाधन खर्च करने का अनुरोध करूंगा ताकि हमें परिवर्तन प्रक्रिया के बारे में अधिक जानकारी मिल सके। इसका परिणाम यह होगा कि हम अधिक जागरूक रहेंगे और बेहतर अनुकूलन प्रथाओं को विकसित कर सकेंगे।” प्रकाश जी महासागरों और क्रायोस्फीयर, 2018 पर विशेष रिपोर्ट के समन्वयक प्रमुख लेखक और IPCC की छठी आकलन रिपोर्ट के प्रमुख लेखक थे।

इसका खामियाजा स्थानीय लोगों को ही, जो आपदा संभावित क्षेत्रों में रह रहे हैं, भुगतना पड़ रहा है। राज्य सरकार उन्हें किसी प्रकार की राहत देने में विफल रही है। स्थान परिवर्तन या पुनर्वास नीति खामियों से भरी है। हजारों ऐसे लोग हैं जो कई वर्षों से सुरक्षित स्थानों पर पुनर्वास की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

उत्तराखंड ग्रामीण विकास और प्रवासन आयोग के उपाध्यक्ष शरद सिंह नेगी ने कहा, “आपदा प्रभावित गांवों के लोगों के पुनर्वास हेतु नए सुरक्षित स्थान बनाने के लिए जंगलों को साफ करने की कोई आवश्यकता नहीं है। राज्य में लगभग 1000 गाँव हैं जो निर्जन पड़े हैं या निवासियों के प्रवास के कारण खाली घरों सहित, कम आबादी वाले हैं। बुनियादी ढांचे में सुधार के बाद इन गांवों को पुनर्वास के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।”

प्रवासन आयोग के अनुसार, 2011 की जनगणना और 2017 के बीच, 734 गांवों को निवासियों ने पूरी तरह से खाली कर दिया था, जबकि राज्य में अन्य 565 गांवों में, जनसंख्या में 50 प्रतिशत की गिरावट आई थी।

जोशीमठ स्थित कार्यकर्ता अतुल सती ने कहा, “राज्य पुनर्वास नीति में स्पष्ट खामियां हैं, जो 360,000 रुपये और 100 वर्ग भूमि आवंटन के मुआवजे का प्रावधान करती है। एक परिवार को कृषि, पशु चराई आदि के लिए पर्याप्त भूमि नहीं मिलती । यही कारण है कि जिन लोगों को नए स्थानों पर स्थानांतरित किया गया है, वे अपनी कृषि भूमि की देखभाल के लिए अपने पुराने आपदा-संभावित गांवों में वापस जा रहे हैं।

(सीमा शर्मा चंडीगढ़ की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकारों और लैंगिक मुद्दों पर लिखती हैं। इसका हिंदी अनुवाद कुमुदिनी पति ने किया है।)

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