Thursday, April 25, 2024

किसान को खेती से निकालकर दिहाड़ी मजदूर बना देने की नीति ठीक नहीं

हवा में मौजूद तत्वों के साथ बैक्टेरिया से प्रतिक्रिया कराकर खाने की वस्तुएं बनाई जा रही हैं। यह प्रयोग फिनलैंड में हो रहा है। खेती में रासायनों के प्रयोग के बाद अब खेतों को ही किनारे किया जा रहा है। इस प्रकार पूरी दुनिया में खेती संकट में है। जरूरत रासायनिक खेती से वापस लौटकर पारिस्थितिकी के अनुसार खेती करने की है। पर जो नीतियां पूरी दुनिया में नाकाम हो गई हैं, उन्हें ही आगे बढाया जा रहा है।

यह बात कृषि पत्रकार देवेन्दर शर्मा ने पटना में एक व्याख्यान में कही। उन्होंने कहा कि खेती संकट में है। संकट पूरी दुनिया में है। पूरी दुनिया में किसानों को लूटा जा रहा है। किसानों की दुर्दशा को समझने की कभी कोशिश ही नहीं की गई। भारत में किसानों की हालत अधिक बुरी है। उसमें भी बिहार सबसे निचले पादान पर खड़ा है। बिहार में एक किसान की औसत सालाना आय सात हजार रुपये है। पंजाब में यह आंकड़ा 25 हजार बैठता है।

उन्होंने कहा कि देश के 17 राज्यों में किसानों की सालाना आय 20 हजार रुपये से कम है। यह प्रति महीने 1700 रुपये से भी कम होता है। 2018 में हुआ एक अध्ययन बताता है कि सन 2000 से 2016 के बीच किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। जो मिलना चाहिए, उससे तुलना करें तो नुकसान इससे कहीं अधिक होगा।

कहा जाता है कि किसान फसलों की पैदावार बढ़ा लें तो नुकसान कम होगा। पर यह बेकार की बात है। अमेरिका में तो बहुत अधिक पैदवार होती है, पर वहां भी किसान संकट में हैं। उसे अपनी उपज का बहुत कम हिस्सा मिल पाता है। अमेरिका में भी किसान आत्महत्या करता है। शहरों के मुकाबले देहातों में 45 प्रतिशत अधिक आत्महत्याएं होती हैं।

दरअसल खेती का प्रचलित तरीका और उपज के मूल्य निर्धारण में गड़बड़ी है। कृषि उपज का मूल्य निर्धारित नहीं होता जिस तरह औद्योगिक उत्पादों का मूल्य निर्धारित होता है। कृषि उपज का केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने से काम नहीं चलने वाला, गारंटेड मूल्य की प्राप्ति सुनिश्चित करना होगा।

अभी देश में 23 फसलों का न्यूनतम मूल्य घोषित किया जाता है, पर यह केवल दो अनाज- गेहूं और चावल पर मिल पाता है। इसे सभी 23 फसलों पर मिलना सुनिश्चित किया जाना चाहिए और इसकी गारंटी होनी चाहिए।

देवेन्दर शर्मा ने कहा कि अभी यह कहा जाने लगा है कि खेती पर निर्भर आबादी की संख्या कम हो जाए तो बाकी की आमदनी बढ़ जाएगी। यह बेकार की बात है। अमेरिका में तो बहुत कम लोग (करीब 1.8 प्रतिशत) खेती पर निर्भर हैं, पर उन किसानों को भी अपने उत्पाद की कीमत में औद्योगिक उत्पादों के मुकाबले काफी कम हिस्सा मिल पाता है।

उन्होंने कहा कि भारत में तो अभी भी करीब 50 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है। इसे कम करने की सलाह दी जाती है। चेन्नई के एमएस स्वामीनाथन इंस्टीट्यूट के एक कार्यक्रम में विश्वबैंक के उपाध्यक्ष ने कहा कि भारत में करीब 40 करोड़ लोगों को खेती से बाहर निकालने की जरूरत है। इसके लिए खेती को अलाभकारी बना देने का तरीका अपनाया गया, जिससे तंग आकर लोग खेती करना छोड़ दें।

परन्तु किसान को खेती से निकालकर दिहाडी मजदूर बना देने की यह नीति ठीक नहीं है। यह ऐसा रिफॉर्म है जो विदेशों में- अमेरिका, कनाडा में नाकाम हो चुका है। वहां खेती पर निर्भर आबादी बहुत कम है फिर भी उपज में किसानों को बहुत कम हिस्सा मिल पाता है। किसान कंगाल है।

कृषि को लेकर ढेर सारी विरोधाभाषी बातें की जाती हैं। प्रश्न है कि खेती को लाभकारी कैसे बनाएं। खेती की लागत बढ़ा देने से यह नहीं होने वाला। इसे करके देख लिया गया है। खेती में रसायनों का प्रयोग बढ़ने से लागत बढ़ती है, उस तुलना में आमदनी नहीं बढ़ती। जरूरत गारंटेड मूल्य का निर्धारण करने की है। जरूरत खेती को रसायनों के चक्कर से बाहर निकालकर पारिस्थितिकी के अनुकूल बनाने की है।

देवेन्दर शर्मा ने कहा कि अब खेती में क्रांति की जरूरत है। यह क्रांति उपभोक्ताओं की ओर से आए तो किसानों और आम अवाम के लिए फायदेमंद होगी। पूरी धारा को बदलने की जरूरत है। पश्चिम के देशों में खेती में रोबोट के इस्तेमाल की चर्चा हो रही है। थाईलैंड जैसे विकासशील देश में भी इसका प्रयोग होने लगा है। लेकिन इससे खेती समाप्त हो जाएगी, उसका संकट दूर नहीं होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ झा की रिपोर्ट)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles