पलामू, झारखंड। झारखंड के पलामू की जहां मौसम अचानक व तेजी से बदल रहा है। नदियां सूख रही हैं, गर्मी समय से पहले ही बढ़ती जा रही है। इस साल जनवरी महीने में ही यहां की नदियां सूख गईं। फरवरी में मई-जून जैसी गर्मी पड़ने लगी। 28 फरवरी को अधिकतम तापमान 35.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। 15 मार्च को अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और 16 को अचानक बेमौसम की बारिश शुरू हो गई। 20 मार्च को अधिकतम तापमान 27.5 डिग्री दर्ज किया गया। पांच दिन पहले लोग पंखे चलाकर सो रहे थे और बारिश होते ही तापमान में 8 से 9 डिग्री गिरावट के बाद कंबल ओढ़ने को मजबूर हो गए।
इसके पीछे वजह वैध-अवैध रूप से पत्थरों का बड़े पैमाने पर खनन और पेड़ों की कटाई जैसे कारक शामिल हैं। 2022 में सूखे का प्रभाव ऐसा रहा कि अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई। इसी साल 12 अप्रैल को पलामू के मेदिनीनगर का अधिकतम तापमान 44.8 डिग्री सेल्सियस था जो उस वक्त पूरे देश में सर्वाधिक रहा था।
जलवायु परिवर्तन, अवैध खनन बड़ा कारण
मौसम वैज्ञानिकों की माने तो पलामू के मौसम में बदलाव का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। जलवायु परिवर्तन के कारण ही झारखंड के पलामू में सबसे ज्यादा गर्मी, सबसे कम बारिश और सबसे ज्यादा ठंड पड़ रही है। जिसका कारण पलामू में बड़े पैमाने पर वैध-अवैध रूप से हो रहे पत्थरों का खनन है। पेड़ों की कटाई हो रही है। कच्चे के स्थान पर पक्के मकान का निर्माण हो रहा है। जनसंख्या और वाहन बढ़ने से प्रदूषण बढ़ा है। इसके कारण पलामू में गर्मी बढ़ रही है।
जिले में युद्ध स्तर पर वैध-अवैध रूप से पत्थरों का खनन हो रहा है। देखते ही देखते पहाड़ गायब होते जा रहे हैं। जाहिर है इससे पर्यावरण बिगड़ रहा है। जिले के छतरपुर इलाके का यह हाल है कि इलाका ड्राइजोन में तब्दील हो गया है। हालत यह है कि लीज पट्टा की शर्तों का उल्लंघन करते हुए कई खान संचालकों द्वारा पत्थर निकालने के लिए सारे नियमों को ताक पर रखकर खनन किया जा रहा है। स्थिति यह है कि यहां सालों भर जल संकट बना रहता है। बारिश होने के सिस्टम के अभाव में दिन-प्रतिदिन तापमान बढ़ता जा रहा है। तापमान का धीरे-धीरे बढ़ता जाना माॅनसून सहित जनजीवन और फसलों को भी प्रभावित कर रहा है।
पूरी दुनिया में बढ़ रहा खतरा
वैसे तो पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन का शिकार होने की ओर बढ़ रहा है। जलवायु की दशाओं में होने वाला परिवर्तन प्राकृतिक भी हो सकता है और मनुष्य के क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप भी। वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी मनुष्य की क्रियाओं का परिणाम है जो औद्योगिक क्रांति के इस दौर में कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का चलते हुआ है। जलवायु परिवर्तन के खतरों के बारे में वैज्ञानिक लगातार आगाह करते आ रहे हैं।
पिछले 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस था। इस अवसर पर पूरे भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर कार्यक्रम किए गए। झारखंड भी इससे अछूता नहीं रहा। राज्य के विभिन्न जिलों, प्रखंडों, पंचायतों और यहां तक कि गांवों में भी सरकारी व गैर-सरकारी स्तर पर कई कार्यक्रम हुए। जाहिर है इस अवसर पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर लंबे चौड़े भाषण भी हुए। पौधारोपण करते हुए तस्वीरे भी खींची गयीं और तस्वीरें स्थानीय अखबारों सहित सोशल मीडिया पर भी चलीं।
ये तमाम बातें पर्यावरण को लेकर भले ही हमें जागरूकता के फ्रेम में दिखा रही हों, लेकिन सच तो यह है कि उक्त अवसर पर पर्यावरण को लेकर जो औपचारिकताएं की गईं वे सारी औपचारिकताएं भी दूसरे दिन से भूला दी जाएंगी या यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि भूला दी गईं।
कृषि जीवन की सांसें हैं तो नदियां धमनियां
बुजुर्गों से सुना है कि कृषि जीवन की सांसें हैं तो नदियां धमनियां हैं। झारखण्ड जो धमनियों यानी नदियों के साथ साथ कृषि और खनिजों से भरा हुआ है। यह आदिवासी बहुल राज्य है जो अपनी आदिम आदतों से प्रकृति को बड़ी ही नजाकत से संभाले रखा है।
कहना ना होगा कि इसका भौगोलिक संदर्भ प्राचीन ग्रंथों में भी दर्ज है। संस्कृत के एक श्लोक में झारखण्ड की पौराणिक एवं सांस्कृतिक पहचान की झलक मिलती है। ‘अयस्क: पात्रे पय: पानम, शाल पत्रे च भोजनम् शयनम खर्जूरी पात्रे, झारखंडे विधिवते।’
यानी ‘झारखण्ड में रहने वाले धातु के बर्तन में पानी पीते हैं, शाल के पत्तों पर भोजन करते हैं, खजूर की चटाई पर सोते हैं।’
इन आदिवासियत परंपराओं के बीच अगर जंगल-झाड़, नदी व पहाड़ का हृदय स्थली झारखण्ड का कोई राज्य रेगिस्तान बनने के कगार पर आ जाए तो जाहिर है ऐसी स्थितियों के कारक राजनीतिक अदूरदर्शिता, व्यवस्थागत लापरवाही और प्रशासनिक भ्रष्टाचार ही हो सकता है।
पलामू में वनों की कटाई से बदला मौसम
रांची मौसम केंद्र के मौसम विज्ञानी अभिषेक आनंद कहते हैं कि पलामू में वनों की तेजी से कटाई व पहाड़ों के खनन से यहां का मौसम अन्य जिलों से ज्यादा परिवर्तनीय हो गया है। पहले यहां 44 प्रतिशत वन था, जो अब महज 9-10 प्रतिशत शेष रह गया है। पहाड़ व पहाड़ियां पेड़ विहीन हो गईं हैं। इस कारण अचानक तापमान में उतार-चढ़ाव, काफी गर्मी तो काफी सर्दी, सूखा, ओलावृष्टि, अधिक वर्षापात की क्रिया यहां में हो रही है। पर्यावरण के प्रति हम सभी सचेत न हुए तो पलामू रेगिस्तान बन जाएगा।
वे आगे कहते हैं कि पलामू में असामान्य मौसम के दो प्रमुख कारण हैं। एक तो जलवायु परिवर्तन है। दूसरा यहां की भौगोलिक परिस्थिति। झारखंड में पलामू सबसे अंतिम छोर पर है। गर्मी के मौसम में गर्म हवा और ठंड के मौसम में बर्फीली हवा जब पश्चिम की ओर से आती है तो सबसे पहले पलामू में ही प्रवेश करती है। इस कारण सबसे ज्यादा गर्मी और ठंड पड़ती है। जब मानसून आता है तो पूरब की तरफ से आता है और झारखंड के सबसे अंतिम छोर पर पलामू में सबसे अंत में पहुंचता है। इस कारण बारिश भी कम होती है।
देश के जाने माने वन्य प्राणी विशेषज्ञ सह पर्यावरणविद डॉ दयाशंकर श्रीवास्तव की माने तो “2035 तक पलामू का कई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जायेगा। यही नहीं तेजी से बदल रहे पर्यावरण का असर इंसानों के दिलो-दिमाग पर भी पड़ेगा, जिसके कारण संवेदनाएं मरेंगी और वे एक दूसरे से खूनी संघर्ष में उलझ जायेंगे।” वे कहते है कि “समय तेजी से निकलता जा रहा है, अगर अभी भी सचेत होकर पहल नहीं की गयी तो इसका दुष्परिणाम सभी को भुगतने होंगे।”
डॉ श्रीवास्तव बताते हैं कि “बात 1951 में पलामू के कुल क्षेत्रफल का 43 प्रतिशत हिस्सा वन भूमि था जो वनों से आच्छादित हुआ करता था। सेटेलाइट डाटा के अनुसार उसमें से अब सिर्फ नौ प्रतिशत जंगल बचा हुआ है। सरकारी आंकड़ों में वन भूमि तो यथावत दिख रही है परन्तु उसमें से जंगल गायब हो गए हैं। पलामू के घने वन अब विरल वन में और विरल वन झाड़ीनुमा वन में तब्दील हो गये हैं। इससे पहाड़िया नंगी हो गयी है।”
उन्होंने बताया कि “नंगी चट्टानों को छाया न मिल पाने के कारण वे तेजी से गरम होते जा रहे हैं और सूरज ढलने के बाद तेजी से ठण्ड भी हो रहे हैं। इसलिए गर्मी के समय दिन व रात के तापमान में 18 से 20 डिग्री सेल्सियस का फर्क होने लगा है। इससे छोटे छोटे बवंडर व तूफान आ रहे हैं। यह खतरे की घंटी है। ऐसा होना यह संकेत दे रहा है कि पलामू की धरती रेगिस्तान बनने की ओर अग्रसर है।”
खत्म हो रही है जल संधारण क्षमता
वो कहते हैं कि “पेड़ों की बेतहाशा कटाई से पलामू के वैसी दोहर भूमि जो दो पहाड़ों के बीच है, उसमें जल संधारण की क्षमता खत्म होती जा रही है। पानी के ठहराव नहीं होने से भूमिगत जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। पलामू की वैसी नदियां जिसमें पहले सालों भर कुछ न कुछ पानी रहता था, या वैसी नदियां जो कभी जलस्रोत से लबालब होती थीं, वे अब जल शून्य होकर सिर्फ बरसाती नदी बनकर रह गयी हैं। इसका सीधा असर भूमिगत जलस्तर और मिट्टी के ऊपर पड़ रहा है। भूमिगत जलस्तर नीचे होने से मिट्टी के प्रकार में भी बदलाव हो रहे हैं, इसमें बालू का तत्व बढ़ता जा रहा है।”
इंसान के व्यवहार में बदलाव
डॉ श्रीवास्तव कहते हैं कि “पर्यावरण में हो रहे इस प्रतिकूल परिवर्तन का असर इंसान की प्रकृति और व्यवहार में भी हो रहा है। तेजी से बढ़ते तापमान का असर सीधे इंसान के मस्तिष्क पर हो रहा है। इंसान को संचालित और नियंत्रित करने वाली कोशिकाएं इंसान के बस में नहीं रह रही हैं। लोग जल्दी ही अपना आपा खो दे रहे हैं। इंसान बदलते पर्यावरण के कारण पहले से अधिक हमलावर हो गए हैं।”
ऐसे भी पलामू की बात करें तो यहां आपस में होने वाले झगड़ों की संख्या अन्य जगहों से अधिक थी, वो इन दिनों और भी बढ़ गयी है। लोगों को यह अटपटा लग सकता है लेकिन हकीकत यही है कि बदलते पर्यावरण से बेतहाशा बढ़ रही गर्मी के कारण इंसान अपने दिमाग पर से नियंत्रण खोता जा रहा है, जो उसे एक दूसरे के प्रति हमलावर बना दे रहा है। इंसानी लालच की शिकार यह धरती इस तरह से तेजी से रेगिस्तान बनने की ओर अग्रसर हो रही है।
(पलामू से विशद कुमार की रिपोर्ट)
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