Saturday, April 20, 2024

मौसम, बेमौसम और नौतपा की कहानी

मौसम का मिजाज लोगों को समझ में नहीं आ रहा है। मौसम विज्ञान अब भी अनुमान का ज्यादा सहारा ले रहा है। जबकि मौसम की मार भयावह होती जा रही है। मई के महीने में चक्रवातों की बढ़ती संख्या एक डराने वाली घटना है। मौसम का मिजाज बनाने में किसी एक व्यक्ति या समुदाय की सीधी भूमिका नहीं होती है। यह पूरे मनुष्य समाज की नीतियों का परिणाम होता है। उद्योगिक समाज का उद्भव 18वीं सदी में हो चुका था। यह यूरोप और अमेरीका में तेजी से फैला और एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरीका में एक उपनिवेशिक राज्य व्यवस्था का निर्माण किया। तकनीक, उत्पादन और नये तरह के राज्य के गठन से जो समाज बना वह युद्ध, लूट और तबाही को लेकर आया।

हालांकि उपनिवेशिक समाज में उद्योगीकरण 20वीं सदी में ही आकार ले सका और आज भी यह यूरोप और अमेरीका के पीछे घिसट रहा है। इतिहास के इस पन्ने में यह बहुत बाद में दर्ज किया गया कि इससे धरती के तापमान में कुल 0.08 की वृद्धि हुई है। इसमें अमेरीका की भूमिका सबसे ज्यादा है। लेकिन, अन्य देशों की भूमिका भी जरूर है। लेकिन, इसका असर न तो सीधे अमेरीका पर पड़ता है और न ही यूरोप पर। भारत के मौसम विज्ञानियों और भू-शास्त्रियों ने आंकड़ों के आधार पर बताया कि उत्तराखंड में पिछले दस सालों में 1.0 डिग्री सेटिग्रेड की वृद्धि हुई है। इसका सीधा असर ग्लेशियर के पिघलने की गति में वृद्धि और पेड़-पौधों के जीवन पर पड़ेगा।

वहीं विश्व तापमान के असर से अंटार्टिका में बर्फ के पिघलने का सीधा असर समुद्र के किनारे बसे लोगों के जीवन पर पड़ेगा। लेकिन, सबसे बड़ा मसला मौसम का बेमौसम हो जाना है। बारिश, सूखा, ठंड और गर्म हवाओं की प्रवृत्तियों में जो तेजी दिख रही है, वह कई देशों को तबाह करने की हद तक जा रहा है। पिछली बारिश ने पाकिस्तान के लोगों की आर्थिक स्थिति को और भी बदतर बना दिया। जबकि इस देश की विश्व पर्यावरण को खराब करने में बेहद कम हिस्सेदारी है।

आज मौसम विज्ञान और पर्यावरण की खबरों से इतना जरूर हो रहा है कि लोग इसके प्रति सचेत हो रहे हैं। लेकिन, यह मसला इतना बड़ा है कि इसके प्रति सिर्फ सचेत रहने भर से यह सुलझ नहीं सकता है। आज भी भारत जैसे देश में मौसम का सीधा असर न सिर्फ खेती पर पड़ता है, यह भारत की श्रम उत्पादकता पर असर डालता है। विश्व-बैंक भारत के पर्यावरण और मौसम में हो रहे बदलाव और गर्मी के प्रकोप पर एक अलग ही नजरिया पेश किया। अपने हालिया रिपोर्ट में उसने बताया कि बढ़ते तापमान में वैकल्पिक उर्जा और कूलिंग तकनीक का उपयोग बढ़ाया जा सकता है और यदि इस दिशा में काम किया जाय तो 2040 तक 1.60 ट्रिलियन डालर का निवेश हो सकता है।

इस ऊर्जा का उपयोग मुख्यतः कूलिंग के लिए, जैसे एयर-कंडिशनर के लिए किया जायेगा। जाहिर सी बात है कि जब भी नयी तकनीक की बात होगी तब उससे पैदा होने वाले ‘विशाल’ रोजगार की संभावना पर भी उतनी ही बात होती है। यहां जिस तकनीक की बात हो रही है वह घरों और अर्पाटमेंट जैसे निर्माणों में कारगर होगी। लेकिन, गर्म हवाओं की सीधी जद में आने वाले लगभग 30 करोड़ भारतीयों के लिए क्या योजना है, इसका जिक्र नहीं मिलता है। जबकि पर्यावरणविदों का अनुमान है कि आने वाले वर्षों में गर्म मौसम के दिनों में वृद्धि होगी। इसका सीधा असर रोजगार और खेती में लगे लोगों पर पड़ेगा।

जब इस साल फरवरी के अंत में ही मौसम गर्म होने लगा और 15 मार्च से 10 अप्रैल के बीच जिस तेजी से गर्म हवाएं चलने लगीं, उससे लोगों में एक डर का माहौल बना। श्रम मंत्रालय ने सीधी गर्मी झेलते हुए काम करने वाले मजदूरों के लिए, खासकर भट्ठा, खदान, भवन निर्माण, परिवहन आदि क्षेत्रों में पीने के पानी, आराम, इलक्ट्राईट आदि की व्यवस्था करने के लिए कहा गया और काम के घंटे और उत्पादकता को लेकर उपयुक्त कदम उठाने का आग्रह किया गया। यदि हम उपयुक्त क्षेत्रों में काम की स्थितियों के बारे में बात करें, तो इसमें काम करने वाले मजदूर काम वाली जगह के आसपास ही, और ज्यादातर मामलों में कार्य-क्षेत्र परिसर में ही अस्थाई निवास बनाकर रहते हैं। जिसमें न तो बिजली की व्यवस्था होती है और न ही गर्मी से बचने के लिए ढंग की छत होती है।

मंत्रालय के आदेश में इन स्थितियों को बेहतर बनाने की जगह एक ऐसी व्यवस्था बनाने की बात कही गई, जो किसी भी मौसम में उपलब्ध रहना ही चाहिए। बहरहाल, अप्रैल के मध्य से लेकर मई के शुरुआती हफ्ते में मौसम का मिजाज बदल गया। इसके बाद ज्यादा बातें अलनीनों के असर को लेकर होने लगीं। यह अनुमान लगाया गया कि इस साल बारिश सामान्य से कम होगी। ऐसे में केंद्र सरकार ने ‘सबसे खराब स्थिति’ से निपटने के लिए तैयार रहने के लिए कहा। इस संदर्भ में हुई मीटिंग में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने यह उम्मीद जताई कि खेती को सिर्फ घरेलू मांग को ही नहीं विदेशी अपेक्षाओं को भी पूरा करना है। उनका जोर गारंटीशुदा लाभ के लिए लागत में कमी और प्रौद्योगिकी का उत्तम प्रयोग करने पर था।

यहां यह देखना जरूरी है कि भारत की कुल खरीफ फसल वाली खेती का लगभग आधा हिस्सा मानसून पर निर्भर है। और, शेष बचे आधे हिस्से में मानसून की कमी लागत को न सिर्फ बढ़ा देती है, फसल की उत्पादकता को भी प्रभावित करती है। सिंचाई पर केंद्रित खेती का बड़ा हिस्सा नहरों पर निर्भर होता है, खासकर पंजाब, हरियाणा में धान की खेती। सूखे की स्थिति में पानी की आपूर्ति और खपत के बीच का दायरा बढ़ने लगता है। ऐसे में कम पानी की जरूरत वाले खाद्यान्न और धान के बीजों की जरूरत मुख्य हो जाती है। चूंकि बाजार में एक खास तरह के चावल और खाद्यान्नों की मांग रहती है, इसके दबाव में मौसम चाहे जो हो, खेत से बाजार की जरूरत को पैदा करना ही मुख्य ध्येय हो जाता है। ऐसे में कृषि मंत्री का बीज की उपलब्धतता पर जोर और लाभदायक खेती के लिए तकनीक के प्रयोग को बढ़ाने की बात बेमौसम मार से किसानों को राहत देता हुआ नहीं लगता है।

मौसम विभाग और इससे जुड़े और संस्थानों के अलावा भी मौसम के बेमौसम हो जाने और बेमौसम के ठीक हो जाने का अनुमान पेश करने वाली एक पुरानी व्यवस्था भी है। यह नक्षत्रों, सूर्य और चंद्र की स्थितियों और कैलेंडर के दिनों के शुभ-अशुभ होने के आधार पर बनाई जाती है। इनके अनुमान को हिंदी से लेकर अंग्रेजी मीडिया तक, जगह मिलती है। यह हवाओं के दबाव, तापमान और प्रदूषण आदि मसलों से अलग वे नक्षत्रों की गति आदि पर ज्यादा बात करते हैं। जब मई का पहला हफ्ता बारिश से भीग रहा था, तब यह चिंता व्यक्त की जा रही थी कि इस हवा के दबाव और समुद्र की सतह के तापमान पर क्या असर पड़ेगा।

एक निराशाजनक माहौल में नौतपा की कहानी लाई गई। मई के अंतिम हफ्तों में सूर्य रोहिणी नक्षत्र में पहुंचता है और आग बरसाने लगती है। चूंकि इस बार सूर्य यहां नौ दिन से अधिक समय तक रहेगा, इसलिए ताप का असर भी खूब रहेगा। खबरों में सूर्य के इस नक्षत्र में घुसने और निकलने का समय भी बताया गया। यह बताया गया कि इसके प्रभाव से लू चलने लगेगी और समुद्र का पानी उबलकर बादल में बदलने लगेगा। इन खबरों को लिखने वाले जरूर ही इस बात को जानते होंगे कि मानसून का निर्माण, जो भारत में बारिश का मुख्य आधार है, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी, दो जगहों पर होता है और इसमें से सबसे पहले अरब सागर से चलने वाला मानसून केरल और पश्चिमी घाट पर उतरता है।

समुद्र से भाप बनाने के लिए नौतपा की कहानी न सिर्फ ज्यादा सरलीकृत है, बल्कि भ्रामक भी है। इस कहानी के पीछे का जो कैलेंडर सिस्टम है, वह बहुत सारे अनुभवों के साथ विकसित हुआ। और, आज भी इसमें कई निहितार्थ सही साबित होते हुए दिखते हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण यही है कि नक्षत्र, सूर्य और चंद्र की स्थिति, जिसका अनुमान विभिन्न तकनीकों के आधार पर लगाया गया था, वे अपनी जगह पर ही हैं, लेकिन इंसानों ने अपने जिस पर्यावरण पर असर डाला है उसका अध्ययन और निष्कर्ष एक अलग अध्ययन की मांग करता है।

ऐसे में, खेती और जीवन से जुड़े वे किस्से-कहानियां, दोहे आदि ज्यादा उपयुक्त हैं, जिसे गांव के किसानों और मेहनतकशों ने अपने अनुभवों से रचा। घाघ, भड्डरी आज भी बदलते पर्यावरण में खेती पर कुछ हद तक उपयोगी साबित हो सकते हैं। हालांकि खेती के बदलते पैटर्न में उनकी उपयोगिता बेहद सीमित है। खेती और उद्यम दोनों ही उस देश की परिस्थितिकी, पर्यावरण और संस्कृति के साथ जुड़े होते हैं। बाजार का जोर इस विविधता को जितना ही नष्ट करेगा, परिस्थितिकी और पर्यावरण उतना ही निर्णायक साबित होगा। ऐसे में जरूरी है कि मौसम को वैज्ञानिक तरीके से समझा जाय और इसके प्रभाव से निपटने के लिए वैज्ञानिक तरीके अख्तियार किये जायें।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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