मुंबई में विनाशकारी बाढ़ें अधिक आएंगी। अहमदाबाद में अत्यधिक लू चलेगी। कई महानगरों जैसे चेन्नई, भुवनेश्वर, पटना और लखनऊ में गर्मी व उमस खतरनाक रूप से बढ़ जाएगी। समुद्र-तल उठने से तटीय क्षेत्र में बाढ़-तूफान की घटनाएं बढे़ंगीं व पानी अधिक दिनों तक टिकेगा।
यह आईपीसीसी की छठीं रिपोर्ट के दूसरे हिस्से में भारत के महानगरों के बारे में दी गई चेतावनी का हिस्सा है। रिपोर्ट का यह हिस्सा पिछले 28 फरवरी को जारी किया गया। इसके साथ ही रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली स्वास्थगत समस्याओं की भी विस्तार से चर्चा की गई है। आईपीसीसी ने पहली बार जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का क्षेत्रवार और विषयवार विवरण प्रकाशित किया है।
भारत वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले इलाकों में है। खासकर समुद्र-तल के ऊंचा उठने, गर्म हवा चलने, बर्फ पिघलने, अत्यधिक बाढ़ आने व सूखा पड़ने जैसी सभी आपदाएं इस देश के विभिन्न इलाकों में आती हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से इन घटनाओं में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी होना संभावित है। इसके साथ ही वायु प्रदूषण की समस्याएं भी अधिक गंभीर हो जाएगी। इन सबका प्रभाव शहरी इलाकों के निवासी गरीब व वंचित समुदायों पर अधिक होगा।
इसके अलावा जन-सुविधाओं, आवागमन के साधन,जलापूर्ति, स्वच्छता और बिजली आपूर्ति में समस्याएं आएगीं। जिससे आर्थिक नुकसान होगा और लोगों के कुशल क्षेम पर असर पड़ेगा। अनुमान है कि इस शताब्दी के मध्य तक भारत के साढ़े तीन करोड़ लोग समुद्र तल बढ़ने से हर साल बाढ़ से प्रभावित होंगे। इस सबसे प्रत्यक्ष तौर पर लगभग 24 करोड़ अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह नुकसान अकेले मुंबई में 2050 तक 162 अरब डालर सालाना हो सकती है।
इस रिपोर्ट के लेखकों में शामिल अंजाल प्रकाश कहते हैं कि वैश्विक तापमान में पूर्व-औद्योगिक स्थिति की तुलना में अभी ही 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोत्तरी हो गई है। इस बढ़ोत्तरी के प्रभाव विभिन्न इलाके में दिखने लगे हैं। भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील तकरीबन सभी प्रकार के इलाके हैं। यहां लंबा समुद्र-तट (7500 किलोमीटर), हिमालयी चोटियां, बाढ़ग्रस्त व सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं। सूखाग्रस्त क्षेत्र में वैश्विक तापमान बढ़ने का सबसे खराब असर होगा, जबकि भारत का करीब आधी भूमि सूखा या अर्द्धसूखा ग्रस्त है। लंबे समुद्र-तट से 150 किलोमीटर के दायरे में 33 करोड़ लोग निवास करते हैं। इस इलाके में मुंबई, कोलकाता व चेन्नई जैसे अनेक महानगर भी हैं। हिमालयी क्षेत्र के 13 राज्य हैं जिसमें करीब पांच करोड़ लोग रहते हैं।
रिपोर्ट ने कहा है कि भारतीय लोग जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक जोखिमग्रस्त हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से विभिन्न बीमारियों का फैलाव तेजी से होगा, असामयिक मृत्यु की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी। आईपीसीसी रिपोर्ट में कहा गया है कि मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में भी प्रसार होगा। इसका हिमालय क्षेत्र, पूर्वी व दक्षिणी क्षेत्रों में फैलाव संभव है। तापमान बढ़ने से मलेरिया फैलने के महीनों में बढ़ोत्तरी होगी।
वर्षापात का ढर्रा बदलने से वेक्टर-जनित रोगों की प्रकृति भी बदल रही है और इसके टिके रहने की मियाद बढ़ सकती है। तापमान बढ़ने से बीमारियों का उत्तर की ओर ऊंचे इलाकों में बढ़ने की संभावना बनती है। तापमान के बहुत बढ़ने पर मलेरिया व जीका जैसी बीमारियां उन इलाकों में भी फैल सकती हैं जिनमें पहले इनका नाम भी नहीं सूना गया है। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव संभावित है। इसमें बेचैनी व तनाव जनित रोग अधिक होंगे। इनका प्रभाव बच्चों और बुजुर्गों पर अधिक देखा जाएगा।
भारत में शहरी इलाकों की आबादी तेजी से बढ़ने से अधिक लोग इन समस्याओं के शिकार होंगे। भारत की शहरी आबादी 2020 में 48 करोड़ मानी जाती है जिसके 2050 तक 87 करोड़ 70 लाख हो जाने का अनुमान है। देश में शहरीकरण की रफ्तार अभी करीब 35 प्रतिशत है जिसके अगले 15 वर्षों में 40 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। बड़े महानगर अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। इन इलाकों में आबादी का घनत्व अधिक होने से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी अधिक होगा। पहले से गरम इन महानगरों में गर्मी व उमस बढ़ेगी और ऐसी स्थिति लगातार बनी रहेगी। शहरी इलाके में जलनिकासी व्यवस्था की कमियों व जलविज्ञानी कारणों से बाढ़ की घटनाएं बढ़ेगीं व अधिक विनाशकारी होगीं। समुद्र-तल के बढ़ने के तूफान आने की घटनाएं बढ़ेगी ही, वर्षापात के ढर्रे में भी परिवर्तन होगा। इससे महानगरों के लंबे समय तक बाढ़ में डूबे रहने की घटनाएं हो सकती हैं। मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, विशाखापत्तनम, गोवा, अंडमान-निकोबार व दूसरे छोटे छोटे द्वीप समूहों में इसका प्रकोप अधिक होगा। इस बाढ़ का मुकाबला करने के लिए बाढ़ के पानी की निकासी व्यवस्था, हरित संरचनाओं में बढ़ोत्तरी, टिकाऊ जलनिकासी व्यवस्था करने की जरूरत है।
हिमालय क्षेत्र में शहरीकरण की वजह से एक अन्य चुनौती सामने आई है, इस क्षेत्र में अनियोजित ढंग से एक लाख से कम आबादी वाले छोटे-छोटे शहर-कस्बे विकसित हो गए हैं। शहरीकरण के उच्च विकास दर की वजह से इन शहरों के अगले दस-पंद्रह वर्षों में बड़े शहरी क्षेत्र में बदल जाने की संभावना है। इनकी वजह से हिमालयी क्षेत्र में भूमि उपयोग के तौर-तरीके में बड़ा बदलाव आया है। इससे भूजल के पुनर्भरण के लिए खाली इलाके में जबरदस्त कमी हो गई है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में वर्षापात के ढर्रे में बदलाव आया है। भारी वर्षा की घटनाएं बढ़ गई हैं जिससे भूस्खलन की घटनाएं अधिक हो रही है। जलवायु परिवर्तन व जंगलों की कटाई की वजह से हिमालय का तापमान बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने की दर बढ़ी है और पूरे क्षेत्र की जलवायु में बदलाव आया है।
ग्लेशियर पिघलने के एक कारण उनके ऊपर कार्बन की परत बिछ जाना भी है जो जंगलों में आग लगने, ईंट भट्ठे व प्रदूषणकारी उद्योगों से आता है।
हिमालय क्षेत्र के अधिकतर शहरों और गांवों में पानी जरूरत झरनों, तालाबों व झीलों से पूरी होती है जो आपस में जुड़े हैं और छोटे छोटे जलस्रोतों से जलग्रहण करती रही हैं। इनमें पानी छोटे-छोटे जलस्रोतों से आता है जिन्हें नौले-धौले कहा जाता है। पर यह पूरी प्रणाली विभिन्न विकास योजनाओं, शहरी विकास व भूमि-स्खलन की वजह से टूट गई है। अब पहाड़ के शहरों व गावों को जलसंकट झेलना पड़ रहा है। हिमालय क्षेत्र की स्थिति को देखते हुए यह कहने में कई हर्ज नहीं कि भारत को परंपरागत प्रणालियों को फिर से अपनाने की जरूरत है।
(अमरनाथ वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ पर्यावरण मामलों के जानकार भी हैं। आप आजकल पटना में रहते हैं।)
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