नदी तट पर हरित पट्टी कहां और कैसा बने

केन्द्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से जुड़े भारतीय वानिकी शोध और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) ने हाल ही में देश की तेरह नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए विस्तृत कार्य योजना (डीपीआर) तैयार की है । कार्य योजना के अंतर्गत संबंधित नदियों के तटों पर हरियाली विकसित किया जाना है। हालांकि कार्य योजना का पूरा विवरण अभी उपलब्ध नहीं है। पर यह समझ लेने की जरूरत है कि नदी के प्रवाह में तटवर्ती पेड़-पौधों और हरियाली की क्या भूमिका होती है।

हरियाली विकसित करने या हरित पट्टी तैयार करने का मतलब ऐसी परिस्थिति तैयार करना हो सकता है जिसमें हरियाली (घास, झाडियां व छोटे-बड़े पेड़) पनप सके, जैसा प्राकृतिक रूप से पनपता रहा है। यह वृक्षारोपण से भिन्न है जिसमें पौधे रोपकर उन्हें विकसित किया जाता है। वह भी कालांतर में वन जैसा विकसित हो सकता है, नहीं भी हो सकता है। पर यह भी एक तथ्य है कि जब पेड़ या बांस जैसे मिट्टी को बांधने वाले पौधे लगाए जाते हैं तो मिट्टी की अनुकूल परिस्थिति, जलवायु और नुकसानों से सुरक्षित कहने की वजह से खास तरह के पौधे विकसित हो जाते हैं। उनमें विविधता नहीं आ पाती।

नदी जल-धारा होती है जो अपने जलग्रहण क्षेत्र में हुई वर्षा के जल की निकासी करती है। भारत जैसे देश में अधिक वर्षा होने का एक खास समय है जिसे मानसून या बरसात कहा जाता है । सालभर में होने वाली वर्षा का अधिकांश हिस्सा इन्हीं महीनों में होती है। यह दुनिया के अन्य देशों से भिन्न परिस्थिति है जहां कम या अधिक वर्षा का वितरण पूरे वर्ष भर में होता है। इसलिए भारत की नदियों में बरसात के उन महीनों (जून से अक्टूबर) में अधिक जल प्रवाहित होता है।  बाद में प्रवाह काफी कम हो जाता है जिसे निम्न प्रवाह का काल कहा जाता है। इस प्रकार नदियों पर निर्भर पौधों व मवेशियों को इस अचानक बदलाव के साथ सामंजस्य बिठाना होता है।

नदी कहने से जिस संरचना (जैसे-गंगा, यमुना, नर्मदा, महानदी या कावेरी आदि) का बोध होता है, वह वास्तव में हजारों-हजार छोटी-बड़ी व सूक्ष्म धाराओं की जटिल संरचना होती है, इनमें बड़ी धाराओं में मिलकर छोटी-छोटी धाराएं जिन्हें सहायक नदी कहते हैं मुख्य धारा को तैयार करती है। नदी कभी अलगाव में नहीं रहती, वह पूरी लंबाई में एक जैसी भी नहीं रहती। नदी मोटे तौर पर कई शाखाओं वाले पेड़ की तरह होती है जिसमें पहले स्तर की दो छोटी धाराएं मिलकर दूसरे स्तर की धारा बनाती है और इस तरह तीसरी, चौथी, पांचवी इत्यादि। समान स्तर को दो धाराएं मिलकर बड़े स्तर की धारा बनाती है, अन्यथा छोटी धारा, बड़ी धारा में समाहित हो जाती है। इस बात को नीचे की रेखाचित्र से समझा जा सकता है-

नदी की मुख्यधारा जिस पूरे इलाके में हुई वर्षा के जल की निकासी करती है, उस पूरे इलाके को जलग्रहण क्षेत्र या घाटी कहते हैं। अधिकांश बड़ी नदी या मुख्यधारा के तीन अलग-अलग भाग होते हैं।

आरंभिक हिस्सा पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्र में होता है। जलधारा के प्रवाह में घट-बढ़ होती रहती है और यह वर्षा, झरना, नाला और जल-प्रपातों पर निर्भर होती है। निम्न प्रवाह के दौरान घाटी के भूजल से सहायता मिलती है, ग्लेशियर क्षेत्र में बर्फ पिघलने से पानी आता है। किसी प्रमुख नदी की आरंभिक घाटी छोटी, पर महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। नदी घाटी के इस हिस्से में अनेक सूक्ष्म धाराएं होती हैं। वे सब नदी में जल-भरण करती हैं। इस क्षेत्र में धारा की ढाल अत्यधिक होती है और प्रवाह की गति तेज होती है। कटाव करने की नदी की क्षमता भी अधिक होती है। इस क्षेत्र में पहाडी की ढाल पर पेड़ों की बहुतायत होती है। हिमालय में उत्तरी तटों पर दक्षिण के मुकाबले अधिक सघन हरियाली होती है। जबकि पश्चिमी और पूर्वी घाटों में पश्चिमी तट पर अधिक सघनता होती है।

मैदानी इलाके में नदी का धाराएं कई हिस्सों में बंटती-मिलती रहती है, इधर-उधर चक्कर लगाती हैं, धारा चौड़ाई में पसर जाती है और बाढ़ क्षेत्र का निर्माण करती हैं। जलधारा का प्रवाह मुख्य तौर पर बरसात और सूखे के समय भूजल के उलटे प्रवाह पर निर्भर करता है। यह किसी भी भारतीय नदी का मुख्य चरित्र है। नदी की मुख्य धारा में प्रवाह मार्ग में अनेक सहायक धाराएं समाहित हो सकती हैं, पर सूक्ष्म धाराएं कम होगी। इस क्षेत्र का निर्माण गाद के जमाव से होता है और  जलकूंडियों की मौजूदगी रहती है। नदी की चौड़ाई बढ़ती है तो प्रवाह की गति कम होती है। पूरी घाटी में नदी की मार्फोलाजी एक समान नहीं ही, एक तट ऊंचा होता है तो दूसरा तट कम ऊंचा रहता है। प्राकृतिक हरियाली में अक्सर घास, पेड़-पौधों के मुकाबले कहीं अधिक उपजती है। हालांकि ऊंचे तट पर अधिक पेड़ रहते हैं। अधिकांश तटवर्ती हरियाली बाढ़ आधारित होती है और हरियाली में बड़े पैमाने पर परिवर्तन और धारा की मार्फोलॉजी में बाढ़ के बाद बदलाव आता है। बाढ़ के दौरान तटों पर कटाव होना और गाद का जमा होना प्राकृतिक प्रकिया है।

नदी की धारा समुद्र में समाहित होने के क्रम में जहां कई धाराओं में बंटती है, उस जगह को डेल्टा या मुहाना कहा जाता है। यह नदी का सबसे गतिशील हिस्सा होता है और यहां समुद्र के ज्वार-भाटा की वजह से बदलाव होते रहते हैं। इस क्षेत्र को नदी का मुख भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में भी प्राकृतिक, कृषिगत व रिहाइशी इलाके होते हैं जिनमें अक्सर एक-दूसरे में सम्मिलन भी होता रहता है। इस क्षेत्र में नदी की ढाल फैली होती है और प्रवाह मंद हो जाता है। प्राकृतिक हरियाली समुद्री जल के प्रभाव में होती है और सुंदरी नस्ल (मैंग्रोव) के पौधों के वन विकसित होते हैं। सुंदरी वनों की मुख्य भूमिका भूजल का पुनर्भरण नहीं होता, बल्कि नदी के मुहाने को मोर्फोलॉजिकल स्थिरता प्रदान करना होता है, कुछ अन्य पारिस्थितिकी-जन्य भूमिकाएं भी होती हैं। गाद का जमा होना इस क्षेत्र में धाराओं का मुख्य लक्षण होता है।

यह सर्वविदित है कि भारत की नदियां खराब हालत में हैं। कारण कई हैं। जल-प्रवाह का कम होना उसका मुख्य लक्षण है क्योंकि जल-प्रवाह नदी प्रणाली का मुख्य चरित्र है। नदियों का प्रवाह बांध और बराजों के जरिए उसे बांधने या मोड़ने और पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्र में हरियाली का कम होने की वजह से घटी है। पहाड़ी क्षेत्र में छोटी-छोटी जलधाराएं बहुतायत में होती हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि बांध और बराजों की उम्र पूरी हो गई है क्योंकि हर मानव-निर्मित संरचना की एक उम्र होती है। अब इन्हें हटाने के बारे में सोचने की जरूरत है ताकि तटवर्ती क्षेत्रों की हरियाली को फिरसे बहाल किया जा सके। जिसे धारा के प्रवाह को बढ़ाने के लिए गंभीरता से अपनाने की जरूरत है।

इस प्रकार, पहाड़ी क्षेत्र में वन के हिस्से के रूप में मौजूद विकसित पेड़, पौधे जहां बहुत उपयोगी हो सकते हैं, मैदानी क्षेत्रों में नहीं। मुहाना क्षेत्र की स्थिति एकदम भिन्न होती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि वृक्ष पानी सोखते भी बहुत हैं। वे भूगर्भ से पानी खींचते है ताकि अपनी जैविक जरूरतों को पूरा कर सकें। यही पेड़ वन के हिस्से के रूप में पहाड़ी ढलान पर बरसात के पानी के प्रवाह की गति को कम करते हैं, उसके कुछ हिस्से को भूगर्भ में डालते हैं और मिट्टी के क्षरण को रोकते हैं। इसके परिणामस्वरूप झरना, जलप्रपात और घाटी में नीचे की ओर जल प्रवाह होता है। मैदानी इलाके में यह मिट्टी की परत को तेजी से सूखा सकते है और भूजल भंडार को सोख सकते हैं जो मानसून के बाद धारा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं। इसलिए मैदानी इलाके में नदी तट पर घास व झाडियां तो उपयोगी हो सकती हैं, बड़े पेड़ नहीं।

पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्र को फिर से हरा-भरा करना बेहद जरूरी है, खासकर पहाड़ी ढलान के क्षेत्र में। उनसे छोटी-बड़ी जलधाराएं पैदा होती हैं,जो आपस में मिलती है और आखिर में बड़ी जलधारा में पानी भरती हैं। मैदानी क्षेत्र में मौजूद बहुमूल्य जलकूंडियों को सूखने से बचाना अधिक जरूरी होता है, इसलिए उनपर बड़े पेड़ लगाने से बचना चाहिए। मुहाना क्षेत्र में अगर जमीन उपलब्ध हो तो सुंदरी वन लगाना उपयोगी हो सकता है।

नदी पुनर्जीवन रातोंरात होने वाला प्रोजेक्ट-आधारित कार्य नहीं है, इसे सरकारी कार्यक्रम की तरह नहीं चलाया जा सकता। किसी नदी को टिकाऊ तरीके से पुनर्जीवित करने का मतलब उसकी छोटी-छोटी सहायक धाराओं-सूक्ष्म धाराओं की पुनर्बहाली है। वे सभी मिलकर बड़ी धाराओं में जलभरण करती हैं जिससे वह पुनर्जीवित और शक्तिशाली बन पाती हैं। इसलिए हरित पट्टी बनाने में हमारा जोर पहले पहाड़ी जलग्रहण क्षेत्र में पहले, दूसरे और तीसरे स्तर की सहायक धाराओं पर होना चाहिए। मैदानी इलाके में भी इधर उधर खड़ी पहाड़ियों में हरित पट्टी बनाने का काम होना चाहिए।

मुख्य धारा में प्रदूषण दूर करने, बाढ़-क्षेत्र से सुरक्षा और बांध व बराजों को हटाने के उपाए करना चाहिए। जहां बांध व बराज तत्काल हटाना संभव नहीं हो, वहां भी धारा में पर्याप्त प्रवाह को सुनिश्चित करना चाहिए। इन्हें नदी पुनर्जीवन कार्य योजना में अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहिए। पहाड़ी इलाके में प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक धाराओं के प्रवाह को बढ़ाने की रणनीति को पूरे देश में अपनाया जाना चाहिए। हरियाली पैदा करने की कोशिशों को किसी सरकारी विभाग के कार्य के रूप में नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों, ग्रामसभा स्तर पर समुदायों के माध्यम से किया जाना चाहिए। उपयुक्त कार्य पद्धति और स्थानीय स्तर की संस्थाओं की भागीदारी को खोजा जाना चाहिए। कोई स्टार्ट-अप इसे उद्यम के रूप में अपना सकता है। मनरेगा, ग्रीन इंडिया मिशन और सीएएमपीए इत्यादि के कोष से इस कार्य को आरंभ किया जा सकता है। स्थानीय वन विभाग सहायक की भूमिका निभा सकता है, पर योजना बनाने और कार्यान्वयन के सभी कार्य स्थानीय ग्राम सभा के माध्यम से किया जाना चाहिए। बाद में नदी घाटी के स्तर पर राज्यवार मिशन आरंभ की जा सकती है ताकि विभिन्न जगहों पर हुए कार्यों में समन्वय बिठाया जा सके और इन्हें कामयाबी प्रदान की जा सके। इस तरह का प्रयास प्राकृतिक भले नहीं हो, पर लंबे समय के लिए रोजगार पैदा कर सकता है।

आईसीएफआरई द्वारा तैयार कार्य योजना में उपयुक्त संशोधन करके मुख्यधारा से ध्यान हटाकर उसकी छोटी सहायक धाराओं और उनके जलग्रहण क्षेत्र पर केन्द्रित करना चाहिए। कार्य योजना को हर हाल में सार्वजनिक होना चाहिए और समीक्षा व संशोधन के लिए तैयार होना चाहिए। 

(यमुना जीओ अभियान के संयोजक व पूर्व वनपाल मनोज मिश्र के लेख की सहायता से)

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ पर्यावरण मामलों के जानकार भी हैं। आप आजकल पटना में रहते हैं।)


अमरनाथ झा
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