Saturday, April 20, 2024

क्या राहत की सांस ले सकते हैं हम?

भारत 2070 तक शून्य-उत्सर्जन(नेट-जीरो) प्राप्त कर लेगा। ग्लासगो में विश्व जलवायु सम्मेलन की शुरुआत में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस संकल्प की घोषणा की। साथ ही 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म-ईंधन से ऊर्जा का उत्पादन, कुल ऊर्जा खपत का पचास प्रतिशत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने, अर्थव्यवस्था में कार्बन-सघनता (कार्बन इंटेंसिटी) 45 प्रतिशत कम करने और कार्बन उत्सर्जन में एक खरब टन की कटौती करने की घोषणा भी की।

आज जब दुनिया जलवायु संकट और पारिस्थितिकीय समस्याओं की वजह से ध्वस्त होने की स्थिति में है तब क्या इस खबर से हम राहत की सांस ले सकते हैं? क्या सचमुच ऐसा है? या कुछ देर ठहर कर सोचने की जरूरत है। इन घोषणाओं का बारीकी से विश्लेषण करने पर अलग तस्वीर नजर आती है। भारत की स्थिति का विश्लेषण करते हुए प्रसिध्द पर्यावरणविद आशीष कोठारी ने इनकी तकनीकी सक्षमता व सामाजिक-आर्थिक वहनशीलता पर गंभीर सवाल उठाए हैं। कोठारी कल्पवृक्ष संस्था से जुड़े हैं।

पहला सवाल यही है कि गैर-जीवाश्म ईंधनों से बिजली बनाने या अक्षय ऊर्जा उत्पादन में टिकाऊपन कितना है? इनमें परमाणु बिजली और बड़ी पनबिजली परियोजनाओं से बनी बिजली शामिल होगी। दोनों की पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत बहुत बड़ी होती है। जिसमें वनों की कटाई, आबादी का विस्थापन,जलवायु को बदलने वाले उत्सर्जन और परमाणु ऊर्जा के मामले में हानिकारक विकिरण जुड़ा होता है। सौर्य और पवन ऊर्जा के मामले में भी भारत में विशाल ऊर्जा पार्क बनाए जा रहे हैं। इसमें बहुत सारी जमीन लगाई जा रही है।

भारत सरकार की नवीन व अक्षय ऊर्जा मंत्रालय ने ऐसे पार्कों के लिए सात राज्यों में 10 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन का अधिग्रहण करने के लिए चिन्हित किया है। इन परियोजनाओं का गंभीर पारिस्थितिकीय और सामाजिक प्रभाव होने वाले हैं, परन्तु इनका पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) भी नहीं होने जा रहे, उससे इन्हें मुक्त रखा गया है क्योंकि मान लिया गया है कि अक्षय ऊर्जा स्वच्छ ऊर्जा है। कच्छ में नाजुक पारिस्थितिकी वाले इलाके में लगभग 60 हजार हेक्टेयर घास के मैदान और रेगिस्तानी क्षेत्र को मेगा एनर्जी पार्क के लिए आवंटित किया गया है। रिलायंस कारपोरेशन ने 100 गीगावाट सौर्य ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए गुजरात के जामनगर के निकट पांच हजार एकड़ के परिसर में काम शुरु कर दिया है जहां इसकी रिफायनरी ने पहले ही पारिस्थितिकीय क्षति कर रहा है। हालांकि विकेन्द्रित ढंग से अक्षय ऊर्जा उत्पादन को सरकारी सहायता और प्राथमिकता मिले तो वे भारत की ऊर्जा जरूरतों को काफी हद तक पूरा कर सकते हैं। पर उन्हें प्राथमिकता नहीं दी जा रही है।

हालांकि देश की ऊर्जा जरूरतों का आकलन करने में भी झोल है। बिजली की अधिक खपत वाली उत्पादन पध्दति और जीवन-पध्दति को चलाने में जितनी बिजली लगती है, उसे पूरा करने की चिंता करने के बजाए इसका आकलन किया जाना चाहिए कि जीवन के कुशल-क्षेम के लिए कितनी बिजली की जरूरत है। अभी विकास के नाम पर बिजली पीने वाली जीवन-पध्दति और उत्पादन पध्दति को बढ़ावा दिया जा रहा है। वर्तमान में इन गैर-जरूरी खपत के लिए भी बिजली उपलब्ध करने की कोशिश होती है। इस तरह बिजली की जितनी आवश्यकता बताई जाती है, उसमें अनावश्यक का हिस्सा अधिक होता है। इसकी आपूर्ति करने में कोई स्रोत सक्षम नहीं हो सकता।

वैसे पचास प्रतिशत गैर-जीवाश्म-ईंधन से बनाने की बात में यह छिपा हुआ है कि आधी बिजली जीवाश्म-ईंधन अर्थात कोयला आदि से आएगी। इसका मतलब हुआ कि सरकार कोयला खनन आदि को जारी रखेगी और जीवाश्म-ईंधन के उपयोग को घटाने का कोई प्रयास नहीं करेगी। अगर इसकी रफ्तार जारी रही तो भारत में जीवाश्म-ईंधनों की खपत एक समय अमेरीका और चीन से अधिक हो जाएगी। अभी ही कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत केवल अमेरीका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। इसका यह मतलब भी होता है कि देश के बहुमूल्य वनों का विनाश जारी रहेगा और समुदायों का विस्थापन चलता रहेगा।

असल में नेट-जीरो लक्ष्य कुल मिलाकर कार्बन उत्सर्जन को ढंकने का उपाय है। इसका पूरा मतलब ठीक से समझने की जरूरत है। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन किसी जगह हो तो उतनी मात्रा में ग्रीनहाऊस गैसों को किसी अन्य स्थान पर वायुमंडल से निकाल दिया जाए। यह निकालना कई तरह से हो सकता है-पेड़ों द्वारा अवशोषित होकर या समुद्र द्वारा अवशोषित होकर या फिर किसी कृत्रिम तरीके से। एक तो इन कृत्रिम तरीकों की विश्वसनीयता अभी संदिग्ध है, दूसरे जहां उत्सर्जन होता है वहां ग्रीनहाऊस गैसों के अलावा दूसरे तरह के प्रदूषणकारी पदार्थ भी निकलते हैं।

चाहे बिजलीघर हो, वाहनों का उत्सर्जन हो या कारखानों से होने वाला उत्सर्जन-उसमें केवल ग्रीनहाऊस गैसें नहीं होतीं, कई दूसरे प्रदूषण भी होते हैं जिनका मानव जीवन और जैव-विविधता पर क्षतिकारक प्रभाव होता है। किसी अन्य जगह पर कार्बन का अवशोषण कर लेने से वह सब दूर नहीं हो सकता है। कार्बन अवशोषण के लिए वनीकरण पर जोर दिया जाता है, इसके लिए एकबार फिर लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। वनीकरण के नाम पर जमीन कोरपोरेट जगत को सौंप दिए जाने का खतरा अलग से हैं। भारत में तो कोयला खनन के लिए वनों की कटाई होती है और फिर क्षतिपूरक वनीकरण के नाम पर जमीन खनन कंपनी को सौंप दी जाती है। विस्थापित लोग दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। ग्लासगो में प्रधानमंत्री की घोषणा का यह संकेत निकाला जा सकता है कि यह प्रक्रिया अभी तेज होने वाली है।

यह सही है कि भारत समेत अन्य विकासशील देशों के तर्क में दम है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए ऐतिहासिक रूप से जिम्मेवार देशों को उत्सर्जन से निपटने की रणनीतियों में भी जिम्मेवार होना चाहिए। इसमें ग्रीन टेक्नोलॉजी के लिए उन देशों के वित्त उपलब्ध कराना भी शामिल है जो स्वयं इसमें सक्षम नहीं है। इसके लिए विकसित देशों को प्रति वर्ष एक खरब डालर जलवायु बजट में देने की बात थी। इसे 2020 से शुरु हो जाना था। कोरोना के कारण देर हुई और इसे तीन वर्ष पीछे खिसका दिया गया है। अब भारत कुछ अन्य देशों ने इस रकम को बढ़ाकर एक सौ अरब (एक ट्रिलियन) डालर करने की मांग उठाई है। यह जायज मांग है, पर अगर विकसित देशों ने इसे शुरू नहीं किया तो इस बहाने अपने यहां अपने बल पर हो सकने वाले कामों को टाला भी जा सकता है।

असल परिवर्तन केवल तभी हो सकता है जब जीवन पध्दति और अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन की जाए। परंपरागत ढंग से विध्वंसात्मक विकास, विकास की विशाल परियोजनाओं के बजाए सबों की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने वाले ढंग को अपनाया जाए। कोठारी बताते हैं कि समुदाय आधारित विकास के हजारों उदाहरण हैं, जिसमें विकेंद्रित बिजली उत्पादन शामिल है जिसमें बड़ी पूंजी या साजो-समान की जरूरत नहीं होती। भारत अगर सचमुच आत्मनिर्भरता के लिए गंभीर है तो उसे वर्तमान पूंजीवादी व सरकार निर्भर अर्थव्यवस्था की जगह विकेन्द्रित व्यवस्था अपना चाहिए जिसमें प्रकृति और जल-जमीन-जंगल की सुरक्षा की चिंता शामिल हो। अपने विलक्षण परंपरागत ज्ञान और कौशल के साथ आधुनिक तकनीकों का समावेश करके छोटे और मध्यम आकार के उत्पादन-केन्द्र विकसित किए जा सकते हैं। क्या प्रधानमंत्री मोदी के पंचामृत में इसके लिए गुंजाइश है?

(अमरनाथ जलवायु और पर्यावरण से जुड़े मामलों के जानकार हैं।)

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