बिहार छात्र आंदोलन की आंच देश में फैली तो जदयू के साथ ही झुलस जाएगी बीजेपी की राजनीति  

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अभी तो बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा को लेकर आंदोलन पर उतरे छात्र बिहार सरकार को हिला रहे हैं और आयोग से लेकर नीतीश कुमार तक की सरकार मुश्किलों का सामना कर रहे हैं।

लेकिन जिस तरह से दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बीपीएससी आंदोलन को दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुद्दा भी बनाने की कोशिश की, उससे तो यही लगता है कि आने वाले समय में बिहार का यह छात्र आंदोलन कहीं बिहार की सीमा से निकलकर देश भर के छात्रों को अपने आगोश में न ले ले। और ऐसा हुआ तो मोदी सरकार का क्या होगा कौन जानता है? याद कीजिए 1974 के छात्र आंदोलन को।

गुजरात के छात्र हॉस्टल से शुरू हुआ आंदोलन बिहार जब पहुंचा तो आंदोलन काफी आक्रामक हो गया। छात्रों के उस आंदोलन ने फिर राजनीतिक रूप ले लिया। आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण ‘जेपी’ बने और फिर पटना के गांधी मैदान से जब जेपी ने इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ युवाओं और छात्रों का आह्वान किया तो पूरा देश उमड़ पड़ा।

आगे क्या कुछ हुआ, सबको पता है। केंद्र सरकार को इमरजेंसी लगानी पड़ी। लोकतंत्र का गला घोंटा गया और अंतिम परिणति के तौर पर 1977 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की हार हुई, कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी।   

याद रहे बिहार की यह आग अगर दिल्ली पहुंच गई तो मोदी सरकार की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने हैं और बड़ी बात तो यह है कि बड़ी संख्या में बिहार के छात्र और उनके परिजन दिल्ली में रहते हैं और अपनी तैयारी करते हैं।

यही वजह है कि केजरीवाल बिहार के छात्र आंदोलन की तपिश से दिल्ली और केंद्र सरकार को घेरने को तैयार हैं। बिहार का यह छात्र आंदोलन आगे किस रूप में सामने आता है इसे देखने की जरूरत है लेकिन इतना तो तय है कि बिहार की नीतीश और बीजेपी वाली सरकार छात्रों के निशाने पर तो आ ही गई है।

जिस तरह से जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर आंदोलन के जरिये आंदोलनरत छात्रों के बीच चर्चित हो रहे हैं उससे इस बात की भी आशंका बढ़ रही है कि प्रशांत किशोर भी इस आंदोलन के जरिये एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करने को आतुर हैं ताकि बिहार विधान सभा चुनाव में इसका लाभ लिया जा सके।

याद रहे बिहार का यह छात्र आंदोलन भी उसी ऐतिहासिक गांधी मैदान में चल रहा है जहां से जेपी ने छात्रों का नेतृत्व किया था और इंदिरा गांधी सरकार की जड़ों को हिला दिया था।      

वैसे भी बिहार आंदोलन की जमीन रहा है। इसी बिहार में सबसे ज्यादा आंदोलन हुए हैं। इसी बिहार में सबसे ज्यादा राजनीतिक खेल होते रहे हैं। इसी बिहार से देश को कई राजनीतिक सन्देश मिलते रहे हैं। इसी बिहार में सबसे ज्यादा राजनीति होती है और हर बिहारी राजनीति पर कुछ अलग राय रखता है।

ऐसी राय जो कहीं और देखी नहीं जाती। कह सकते हैं कि बिहार राजनीतिक रूप से काफी उर्वर भूमि है। दूसरी बात यह भी है कि इसी बिहार में सबसे ज्यादा गरीबी है, बेरोजगारी है और इसी बिहार से सबसे ज्यादा लोग पलायन के शिकार भी हैं।

बिहार में भले ही कोई उद्योग धंधा नहीं है लेकिन बिहार के मजदूरों से देश के बाकी हिस्सों के उद्योग खूब फलते-फूलते रहे हैं। इसी बिहार में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है और इसी बिहार से सबसे ज्यादा छात्र प्रतियोगिता में सफल भी होते हैं। कह सकते हैं बिहार के कई रंग हैं।

कहने को नीतीश कुमार लम्बे समय से बिहार को हांक रहे हैं और बिहार की काया को बदलने की कोशिश भी कर रहे हैं, कुछ बड़े बदलाव हुए भी हैं लेकिन बड़ा सच तो यही है कि जितना राजनीतिक जागरण बिहार में हुआ है अगर उतना ही आर्थिक जागरण यहां हो जाता तो बिहार गरीब राज्य की सूची से बाहर निकल जाता।

लेकिन ऐसा अभी तक संभव नहीं हो सका। क्यों नहीं हुआ इसका जवाब कौन देगा? नीतीश कुमार यही कहकर निकल जाते हैं कि लालू के राज में सड़कें नहीं थीं। रात में कोई घर से बाहर नहीं निकलता था और आज यह सब संभव है। लेकिन नीतीश कुमार और बीजेपी वालों की यह चाल भर है। सच यही है कि रेवड़ी कल्चर ने बिहार को आगे बढ़ने से रोक दिया है।

पांच किलो अनाज ने लोगों को आगे बढ़ने से रोक दिया है और बाढ़-सुखाड़ के नाम पर मिलने वाली नकदी से बिहारी समाज लगभग पंगु हो गया है। भले ही बिहार के स्कूलों, कॉलेजों में शिक्षा का स्तर ढहता गया हो लेकिन बिहार के लोगों के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है।

बिहार के छात्रों के जरिये दूसरे राज्यों के कोचिंग संस्थान खूब फल-फूल रहे हैं लेकिन बिहार में यही संस्थान नहीं चलते। अगर सरकार कोचिंग संस्थानों और आईटी सेक्टर में ही बिहार को अगुआ बना देती तो आज बिहार की तस्वीर कुछ और ही होती, लेकिन नीतीश कुमार आज तक इसके बारे में कोई बड़ा काम नहीं किए। 

यही वह कारक हो सकते हैं जिससे बिहार के युवा और छात्र बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव कर सकते हैं। ऐसे में जिस तरह से गांधी मैदान में छात्रों का हुजूम बढ़ता जा रहा है और उसे कोई बड़ा नेता मिल गया तो खेल कुछ और भी हो सकता है और खेल का दायरा बढ़कर जेपी आंदोलन की याद को ताजा कर सकता है। 

बिहार के पहले छात्र यूनियन ‘बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन’ की स्थापना साल 1906 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में हुई थी। इसका विस्तार बनारस से कोलकाता तक था। उस समय देश गुलाम था। यही वजह है कि इस छात्र यूनियन ने जमीन की लड़ाई में बड़ी भूमिका निभाई थी।

जानकार बताते हैं कि 11 अगस्त 1947 को विधानसभा सचिवालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश में इस यूनियन के सात छात्रों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। 

इसके बाद साल 1955 में बिहार में हुए छात्र आंदोलन को आजाद भारत का पहला छात्र आंदोलन माना जाता है। इसकी शुरुआत बेहद ही मामूली वजह से हुई थी। दरअसल, 1955 में बिहार के परिवहन विभाग ने किराए में बढ़ोत्तरी कर दी थी, जिसके बाद छात्रों ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया।

इस प्रदर्शन में एक आदमी की मौत हो गई। फिर क्या था। इसके बाद आंदोलन उग्र हो गया। हालात यह हो गए कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को पटना आकर दखलंदाजी करनी पड़ी। लेकिन आंदोलनकारी नहीं माने। परिणामस्वरूप ट्रांसपोर्ट मंत्री महेश सिंह को इस्तीफा देना पड़ा।  

1966 में भी बिहार में छात्र आंदोलन हुए थे। मुजफ्फरपुर के आरडीएस कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर से पुलिस ने बदसलूकी की थी और छात्र उग्र हो गए। छात्रों का यह आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। फिर 1967 में जब चुनाव हुए तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और महामाया प्रसाद बिहार के नए सीएम बने। 

18 मार्च, 1974 को पटना में छात्रों और युवाओं द्वारा राज्य सरकार में कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया गया। उस दिन विधानमंडल के सत्र की शुरुआत होने जा रही थी। राज्यपाल दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करने वाले थे।

रणनीति यह बनी थी कि छात्र आंदोलनकारी राज्यपाल को विधानमंडल भवन में जाने से रोकेंगे और उनका घेराव करेंगे। योजना के अनुसार जब छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया तो पुलिस प्रशासन ने छात्रों को रोकने की कोशिश की और पुलिस को लाठियां चलानी पड़ीं।

छात्रों पर लाठीचार्ज के बाद आंदोलन और उग्र हो गया और आंसू गैस के गोले भी छोड़े गए। देखते ही देखते अनियंत्रित भीड़ और अराजक तत्व भी आंदोलन में घुस गए। हर तरफ लूट और आगजनी की घटना होने लगी। घटना में कई छात्रों की मौत भी हो गई। 

जय प्रकाश नारायण से आंदोलन की कमान संभालने की मांग जोर-शोर से उठने लगी। जयप्रकाश नारायण ने पहली शर्त यह रखी थी कि इस आंदोलन में कोई भी व्यक्ति किसी भी पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए। छात्रों ने जेपी की बात मान ली और राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हुए तमाम छात्रों ने इस्तीफा दे दिया और जेपी के साथ हो लिए।

इसका असर यह हुआ कि इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को आपातकाल लागू कर दिया और जब 1977 में देश में लोकतंत्र बहाल हुआ तो इंदिरा गांधी को रायबरेली से राजनारायण ने चुनाव हरा दिया। 

बिहार में हुआ 74 का आंदोलन आज भी सबको याद है और इतिहास में दर्ज भी है। बाद के सालों में 1990 में बिहार एक बार फिर से जलने लगा था। छात्रों का यह आंदोलन मंडल आयोग के खिलाफ था। जैसे ही केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने सात अगस्त 1990 को यह घोषणा की कि उनकी सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है ,बिहार जलने लगा।

इस रिपोर्ट में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की बात कही गई थी। सवर्ण छात्रों का यह विरोध देश के दूसरे राज्यों तक भी पहुंचा था लेकिन बिहार में सबसे ज्यादा इसका असर हुआ। कई छात्रों ने अपनी जान तक दे दी थी। 

बिहार एक बार फिर से आंदोलन के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है। दरअसल, बीपीएससी अभ्यर्थी राजधानी पटना में लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। अभ्यर्थी 13 दिसंबर को बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में धांधली का आरोप लगा, परीक्षा को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं।

वहीं, आयोग ने किसी भी तरीके के पेपर लीक होने की आशंका से इंकार किया है। अब देखने की बात यह है कि सर्दी के इस मौसम में अगर यह आंदोलन और आगे बढ़ा तो नीतीश सरकार के साथ ही बीजेपी की भी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। हो सकता है कि बीजेपी भी कोई खेल करती नजर आ रही हो।

बीजेपी चाहती है कि छात्रों के आंदोलन का विपरीत असर नीतीश कुमार की पार्टी जदयू पर पड़े और जदयू की हार भी हो जाये। लेकिन क्या नीतीश कुमार बीजेपी की इस चाल को नहीं समझ रहे हैं?

और सबसे बड़ी बात तो यह है कि अगर इस आंदोलन की अगुवाई राजनीतिक दलों के हाथ में चली गई तो केंद्र सरकार के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है और इसका खामियाजा केंद्र से लेकर बिहार और दिल्ली में बीजेपी और जदयू को चुकाना पड़ सकता है। कांग्रेस के लोग भी बिहार की इस तपिश को भांप रहे हैं और हथौड़े की चोट का इन्तजार कर रहे हैं।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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