Saturday, April 20, 2024

जयंतीः सोवियत यूनियन की अहम हस्ती गफूरोफ भी थे जोय अंसारी के प्रशंसक

मुल्क में तरक्की पसंद तहरीक जब परवान चढ़ी, तो उससे कई तख्लीककार जुड़े और देखते-देखते एक कारवां बन गया, लेकिन इस तहरीक में उन तख्लीककारों और शायरों की ज्यादा अहमियत है, जो तहरीक की शुरुआत में जुड़े, उन्होंने मुल्क में साम्यवादी विचारधारा फैलाने और उससे लोगों को जोड़ने का अहमतरीन काम किया। ऐसा ही एक अजीमतरीन नाम जोय अंसारी का है। उस वक्त आलम यह था कि नई पीढ़ी उनकी तहरीरें और रूसी अदब के उर्दू तर्जुमे पढ़-पढ़कर कम्युनिज्म की तरफ मायल हुए।

बाकी नस्र लिखने में उनका कोई मुकाबला नहीं था। वे तर्जे तहरीर, तर्जे तकरीर और तर्जे तख्लीककार औरों से मुख्तलिफ थे। जोय अंसारी में एक साथ कई खासियतें थीं। वे न सिर्फ एक अदीब, आला तर्जुमा निगार थे, बल्कि एक बहुत अच्छे सहाफी भी थे। उन्होंने कई रिसालों और अखबारों को एक नया ढंग, नया तेवर दिया। उर्दू अदब में एक बेहतरीन तर्जुमा निगार के तौर पर उनकी हमेशा पहचान रहेगी। उन्हें कोई भुला नहीं पाएगा।

सूबा उत्तर प्रदेश के मेरठ में 6 फरवरी, 1925 को पैदा हुए जोय अंसारी का पूरा नाम जिल्ले हस्नैन नकवी था। उनके वालिदैन उन्हें मजहबी तालीम देकर, आलिम बनाना चाहते थे। जोय अंसारी की शुरुआती तालीम सहारनपुर और मेरठ में हुई। उर्दू, फारसी जुबान पर बचपन से ही उन्हें महारथ थी। 24 साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने अरबी जुबान पर भी दस्तरस हासिल कर ली, लेकिन परिवार वालों की चाहत और मर्जी के खिलाफ वे सहाफत के मैदान में आ गए।

‘अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन’ से शुरुआत से ही उनका वास्ता हो गया था। उन्होंने दिल्ली में छोटे-छोटे अखबारों में काम किया। आगे चलकर तरक्की पसंद तहरीक के बानी सज्जाद जहीर के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के अखबारों ‘नया जमाना’ और ‘कौमी जंग’ से जुड़ गए। वे इन अखबारों के एडिटिंग शोबे में थे। उस दौर के उर्दू के एक और मकबूल अखबार ‘इंकलाब’ के भी वे एडिटर रहे। मुंबई में ‘अंजुमन तरक्की पसंद मुसन्निफीन’ के होने वाले हफ्तावार इजलास में वे पाबंदी से शिरकत करते थे।

किताब ‘रौशनाई: तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में सज्जाद जहीर, जोय अंसारी के मुतआल्लिक लिखते हैं, ‘‘हमारे इन जलसों में जोय अंसारी आलोचना और नुक्ताचीनी के मैदान के सबसे बड़े शहसवार थे।’’ सज्जाद जहीर, उनकी शख्सियत के दीगर पहलुओं पर और रौशनी डालते हुए आगे लिखते हैं, ‘‘जोय अंसारी की खूबी यह थी कि वह अपने दुबले बदन, बातचीत के शालीन अंदाज और धीमी आवाज के कारण नैतिकता का साक्षात रूप मालूम होते थे।

वह हमारे गिने-चुने ‘मौलवी’ लोगों में से थे, जिन्होंने अरबी-फारसी की तालीम पुराने किस्म के मदरसों में हासिल करके, फिर अंग्रेजी पढ़ी थी और धीरे-धीरे तरक्कीपसंद नजरियों और आंदोलनों से प्रभावित होकर आधुनिक किस्म के लेखक और पत्रकार बने थे। उनकी आदतें कभी-कभी विरोद्धों का समूह मालूम होती थीं और उनके विचारों में (उस जमाने में) आधुनिक रुझानों का मेल ऐसा लगता था, जैसे लखनऊ की फूलदार छपी हुई ओढ़नी पर फ्रांसीसी साटन का पैबंद लगा दिया जाए। इन कारणों से उनकी जात और बात दोनों में एक अजूबापन, एक किस्म की दिलचस्पी होती थी।

जुबान में किसी किस्म की खामी या झोल और अर्थ में अस्पष्टता या जरूरत से ज्यादा बारीकी उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त थीं। उनकी मौलवियाना शिक्षा-दीक्षा ने एक हद तक खुश्क किस्म की बेलोच सोच से उनके मस्तिक को बोझल कर दिया था। बहस और संवाद की शुरुआत करने के लिए वह मौजूं मालूम होते थे। चुनांचे वह जोश मलीहाबादी हों या कृश्न चंदर, सरदार जाफरी या कैफी आजमी, मजाज या मजरूह या कोई और, जोय अंसारी कोई न कोई एतराज उन पर आहिस्ता से कर देते थे।’’

अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो शख्स जोश, जाफरी, कैफी जैसे आला शायरों के कलाम में भी कोई न कोई नुक्स या कमी निकाल ले, उसका अदब और जबानों का किस कदर मुताला होगा।

कम्युनिस्ट सहाफी मुहम्मद असदुल्लाह जो जोय अंसारी के गहरे दोस्त और राजदां थे, उन्होंने जोय अंसारी पर एक बहुत अच्छा यादनामा ‘यादें-यार मेहरबान-जोय अंसारी’ लिखा है। इस यादनामे में मुहम्मद असदुल्लाह ने भी जोय अंसारी की शख्सियत की इन्हीं खूबियों को याद करते हुए लिखा है, ‘‘जोय अंसारी गुफ्तगू ही के गाजी नहीं थे, जुअर्तमंदी की भी मिसाल थे। मैंने हजारहा शामें फैज के साथ मास्को, बर्लिन, बेरूत, लंदन, प्राग और वारसा में गुजारी हैं। हर जगह फैज शम्अ बन जाते थे और परवानों की कमी नहीं रहती थी।

हां, जोय की शख्सियत मुख्तलिफ थी। वो फैज के कद्रदान थे, लेकिन ऐसे कद्रदान जो फैज के मुंह पर उनकी गलतियों की निशानदेही भी करते थे। अदब के साथ भी और कभी-कभी शोखी के साथ भी।’’ जोए अंसारी जहीनतरीन इंसान थे। अपनी जिंदगानी में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे थे। गम और तकलीफें उठाईं थीं, जिससे वे अंदर से और भी ज्यादा मजबूत हो गए थे। सही को सही और गलत को गलत कहने का माद्दा उनमें औरों से कहीं ज्यादा था। उन्होंने हमेशा अपने जमीर की सुनी।

एक बार जो बात ठान लेते थे, तो फिर उसे पूरा कर के ही दम लेते थे। एक मर्तबा अली सरदार जाफरी ने जोय अंसारी से कह दिया, ‘‘आप कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार में काम कर रहे हैं। अंग्रेजी जुबान इल्म का दरवाजा खोलती है और आप को अंग्रेजी की शुदबुद भी नहीं।’’ जोय अंसारी को ये बात ऐसी चुभी कि दो-तीन साल के छोटे से अरसे में उन्होंने अंग्रेजी जुबान पर ऐसी कमांड की कि न सिर्फ अंग्रेजी में जार्ज बर्नार्ड शा पर एक मुकम्मल किताब लिख डाली, बल्कि अंग्रेजी जुबान से उर्दू में कई किताबों के अनुवाद भी किए।

जोय अंसारी का एक लंबा अरसा मास्को में बीता। वे वहां अनुवादक की हैसियत से पहुंचे थे। कुछ अरसा ही गुजरा होगा कि उन्होंने अंग्रेजी की तरह रूसी जुबान पर भी काबू पा लिया। वह भी इस हद तक कि सीधे रूसी से उर्दू में तर्जुमा करने लगे। यही नहीं रूसी जुबान में उन्होंने डॉक्ट्रेट भी मुकम्मल कर ली। उर्दू-रूसी और रूसी-उर्दू डिक्शनरी तैयार करने का मुश्किल काम भी कर लिया। जुबानों को सीखने का उनमें गजब का जुनून था। जुबानों को वे सिर्फ सीखते ही नहीं थे, बल्कि उसकी रूह तक पहुंचते थे।

पुश्किन, चेखोब, तुर्गनेव, दोस्तोवस्की, मायकोवस्की, मार्क्स, एंगल्स और लेनिन आदि नामवर तख्लीककार, दानिश्वरों और रूसी अदब की ढेर सारी किताबों के तर्जुमें जोय अंसारी ने किए हैं। इन किताबों को पढ़ने से मालूम चलता है कि जैसे यह किताबें उर्दू में ही लिखी गई हों। रवां-दवां, बामुहावरा और सब से अव्वलतरीन बात यह है कि तजुर्में ऐन टेक्सट के मुताबिक जान पड़ते हैं। बाबाजान गफूरोफ जो सोवियत यूनियन की काबिले एहतिराम हस्ती थे, वे भी जोय अंसारी की काबिलियत के बड़े मद्दाह थे।

रूसी अदब का उर्दू में तर्जुमे के अलावा जोए असांरी ने गालिब, अमीर खुसरो और दूसरे अदबी, समाजी, सियासी मसलों और अदबी शख्सियतों पर भी शानदार मजामीन, खाके, निबंध और शोध-पत्र लिखे हैं। खास तौर पर उन्होंने अमीर खुसरो पर बेहतरीन काम किया है। ‘खुसरो का जेहनी सफर’ और ‘लाइफ, टाइम्स ओर वर्क्स ऑफ अमीर खुसरो देहलवी’ अमीर खुसरो पर उनकी किताबें हैं।

यह दोनों किताबें खुसरो पर जैसे इनसाइक्लोपीडिया की तरह हैं। ‘वरक-वरक’, ‘अबुल कलाम आजाद का जेहनी सफर’, ‘चीन की बेहतरीन कहानियां’, ‘चेखव’, ‘कम्युनिस्ट और मजहब’, ‘गालिब शनासी’, ‘इकबाल की तलाश’, ‘किताब शनासी’, ‘पुश्किन’, ‘लेनिन घर वालों की नजर में’ और ‘जुबान-ओ-बयान’ जोय अंसारी की दीगर अहम किताबें हैं।

जोए अंसारी की तहरीर के अलावा तकरीर का भी कोई जवाब नहीं था। जिस किस्म का मजमा होता, उसी के मुताबिक तकरीर करते। वे अपनी तहरीर और तकरीर दोनों में तर्जे अदा के कायल थे। मुजतबा हुसैन ने जोय अंसारी पर लिखे अपने एक मजमून में उनकी शख्सियत के तआल्लुक से लिखा है, ‘‘जोय अंसारी को किसी रहबर की जरूरत ही नहीं है, वो खुद राही भी थे और अपने खुद के रहबर भी।’’

जोय अंसारी का जिस तरह का मिजाज और उसूल थे, उस लिहाज से जब सोवियत यूनियन में सत्ता की गड़बड़ियां पेश आईं, तो वे उसकी सख्त आलोचना करने से बाज नहीं आए। उनकी आलोचनाएं भी इंतिहाई सख्त हुआ करती थीं। सोवियत संघ ने जब अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजीं, तो उन्होंने उसके खिलाफ मजामीन लिखे। अपने आखिरी वक्त में वे कम्युनिज्म से इतने मायूस हो गए कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि वो अपनी तहरीरों को डिस्ऑन करते हैं।

महज इस एक वजह से जोय अंसारी की अहमियत कम नहीं हो जाती। मार्क्सी फलसफे की तमाम किताबों और रूसी अदब की बेहतरीन किताबों का जिस तरह से उन्होंने आला मेयार तर्जुमा किया है, सिर्फ इस एक बिना पर जोय अंसारी हमेशा याद किए जाएंगे। वे बड़ी सलाहियतों के मालिक थे। अदब के अच्छे पारखी और दिल-दादा थे। अगर उन्हें और लंबी उम्र मिलती, तो वे अदब की और भी ज्यादा खिदमत करते। कैंसर जैसे नामुराद मर्ज के चपेटे में आकर 21 फरवरी, 1990 को जोय अंसारी ने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया।

(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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