पुण्यतिथिः नामवर सिंह को बाबा नागार्जुन मानते थे चलता-फिरता विद्यापीठ

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हिंदी साहित्य के आकाश में नामवर सिंह उन नक्षत्रों में से एक हैं, जो अपनी चमक हमेशा बिखेरते रहेंगे। उनकी चमक कभी खत्म नहीं होगी। नामवर की विद्वता का कोई सानी नहीं था। साहित्य, संस्कृति, राजनीति और समाज कोई सा भी विषय हो, वे धारा प्रवाह बोलते थे। उनको सुनने वाले श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे। हिंदी साहित्य में उनका स्टार जैसा मर्तबा था। कुछ लोग जो जिंदगी भर नामवर सिंह के विचारों से असहमत रहे और उनकी आलोचना करते रहे, वे भी आज किसी न किसी बहाने उन्हें याद करते हैं।

आलोचना, आरोप और विरोध की, तो उन्होंने जीवन भर परवाह नहीं की। श्रीनारायण पांडेय को लिखे एक पत्र में नामवर सिंह ने लिखा था, ‘‘आरोप करने वालों को करने दें, क्योंकि जिनके पास करने को कुछ नहीं होता, वही दूसरों पर आरोप करता है। अपनी ओर से आप अधिक से अधिक वही कर सकते हैं कि आरोपों को ओढ़ें नहीं। आरोप ओढ़ने की चीज नहीं, बिछाने की चीज है- वह चादर नहीं, दरी है। ठाठ से उस पर बैठिए और अचल रहिए।’’

28 जुलाई, 1926 को चंदौली जिले के एक गांव जीयनपुर में जन्मे नामवर सिंह हिंदी साहित्य में अकेले ऐसे साहित्यकार थे, जिनके जीते जी साल 2001 में सरकारी स्तर पर देश के पंद्रह अलग-अलग स्थानों दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, भोपाल, लखनऊ, बनारस आदि में उन पर एकाग्र कार्यक्रम ‘नामवर निमित्त’ आयोजित हुए, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भागीदारी की।

नामवर सिंह तकरीबन छह दशक तक हिंदी साहित्य में आलोचना के पर्याय रहे। डॉ. रामविलास शर्मा के बाद हिंदी में वे प्रगतिशील आलोचना के आधार स्तंभ थे। इस मुकाम पर नामवर सिंह ऐसे ही नहीं पहुंच गए थे, बल्कि इसके लिए उन्होंने बड़े जतन किए थे। आलोचना विधा को अच्छी तरह से साधने के लिए उन्होंने खूब अध्ययन, मनन किया। देशी विद्वानों के साथ-साथ विदेशी विचारकों को जमकर पढ़ा।

खास तौर से वे मार्क्सवादी आलोचना से बेहद प्रभावित थे। एक इंटरव्यू में खुद उन्होंने यह बात स्वीकारी थी, ‘‘यदि हिंदी में रामचंद शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा की आलोचना मेरे लिए एक परंपरा की अहमियत रखती है, तो दूसरी परंपरा पश्चिम की, लगभग एक सदी में विकसित होने वाली मार्क्सवादी आलोचना है, जो मेरा अमूल्य रिक्थ है। इसमें मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन के अलावा सबसे उल्लेखनीय नाम ग्राम्शी, लूकाच, वाल्टर बेंजामिन के हैं।’’

आज मार्क्सवादी आलोचना पर खूब बात होती है। हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी आलोचना को स्थापित करने का श्रेय यदि किसी अकेले को जाता है, तो वे नामवर सिंह हैं। साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ के नामवर सिंह पर केंद्रित अंक में प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी ने नामवर सिंह की अहमियत को बयां करते हुए अपने एक लेख ‘दुश्मन के बिना’ में लिखा था, ‘‘मार्क्सवाद कोई रामनामी दुपट्टा नहीं है, जिसे ओढ़ लिया, या ऐसे कोई सूत्र नहीं है, जिन्हें कंठस्थ कर लिया तो मार्क्सवादी आलोचक बन गए। मार्क्सवाद एक दृष्टि है, जिसका प्रयास जीवन के यथार्थ को एकांगिता में न देखकर समग्रता में, व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का है, जो व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ होती है।

इस मार्ग पर बहुत लोग नहीं चले हैं, और जो चले हैं उनका रास्ता भी हमेशा आसान नहीं रहा। इस रास्ते पर चलते हुए, तथाकथित विसंगतियों और भटकावों का महत्व नहीं है। महत्व उस सतत प्रयास का है जो पूर्वाग्रहों और संस्कारों से मुक्त, साहित्य में लक्षित होने वाले अपने काल के यथार्थ को समझने और परखने में लगा है और अकेले ही सही, नामवर जी इस रास्ते पर खूब चले हैं और चलते जा रहे हैं।’’ (वसुधा-54, अप्रेल-जून 2002)

नामवर सिंह ने अपनी जिंदगी में विपुल साहित्य रचा। हिंदी साहित्य में नित्य नए प्रतिमान स्थापित किए। ‘नई कहानी’ आंदोलन को आगे बढ़ाने का भी उन्हें ही श्रेय जाता है। ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘छायावाद’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी: नई कहानी’, ‘वाद-विवाद-संवाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां’, ‘बकलम खुद’, ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। ‘कहानी: नई कहानी’ किताब में जहां नामवर सिंह ने नई कहानी से संबंधित सैद्धांतिक सवालों की पड़ताल की है, तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ किताब में वे नई कविता के काव्य सिद्धांतों का व्यापक विश्लेषण करते हैं।

कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में एक नई आधार भूमि तैयार करने में उनका बड़ा योगदान है। नामवर सिंह की शुरुआती रचनाएं एक आवेग में लिखी गई हैं। बकौल नामवर, ‘‘छायावाद, पुस्तक मैंने कुल दस दिन में लिखी। ‘कविता के नए प्रतिमान’ इक्कीस दिन में लिखी गई किताब है। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ दस दिन में लिखी हुई किताब है।’’

इस बात से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक समय लिखने का उनमें किस तरह का जबर्दस्त माद्दा था। यह बात अलग है कि अध्यापकीय एवं प्रगतिशील लेखक संघ की सांगठनिक जिम्मेदारियों और दीगर साहित्यिक, सांस्कृतिक मसरूफियतों के चलते वे आगे ज्यादा नहीं लिख सके। वरना उनकी और भी कई किताबें होतीं।

अपनी जिंदगी के आखिरी दो-तीन दशकों में हालांकि नामवर सिंह ने कुछ नया नहीं लिखा था, लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में वे जहां जाते और वक्तव्य देते थे, वे वक्तव्य भी लिपिबद्ध हो गए। बीते कुछ सालों में उनकी जो नई किताबें आईं, वे इन्हीं वक्तव्यों का संकलन है। कहा जा सकता है कि देश की वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाने में भी उनका बड़ा योगदान है। एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद इस बात को स्वीकारा था, ”व्याख्यान के सिलसिले में वे इस पूरे महादेश को तीन बार नाप चुके हैं।”

अपने आखिरी समय में नामवर सिंह का मन लिखने से ज्यादा भाषण में रमता था। वाचिक परंपरा की अहमियत बतलाते हुए उन्होंने खुद एक जगह कहा था, ‘‘जिस समाज में साक्षरता पचास फीसदी से कम हो, वहां वाचिक परंपरा के द्वारा ही महत्वपूर्ण काम किया जा सकता है। मेरी आलोचना को, मेरे बोले हुए को, मौखिक आलोचना को आप लोक साहित्य मान लीजिए।’’

साहित्य में नामवर सिंह की दीर्घ साधना के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिले, जिसमें ‘कविता के नए प्रतिमान’ किताब के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी शामिल है। सच बात तो यह है कि उनका कद कई पुरस्कारों और सम्मानों से बड़ा था। वे जिसे छू देते, वह कुंदन बन जाता था।

नामवर सिंह, ताउम्र धर्म निरपेक्षता के पक्षधर रहे। उन्होंने अनेक मर्तबा हिंदी में सांप्रदायिकता विरोधी साहित्यिक मोर्चे की अगुआई की। वे हिंदी के तो विद्वान थे ही, उर्दू, अंग्रेजी एवं संस्कृत भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। कोई भी व्याख्यान देने से पहले वे गंभीर एकेडमिक तैयारी करते थे। इसके लिए छोटे-छोटे नोट्स बनाते और जब मंच पर व्याख्यान देने के लिए खड़े होते, तो पूरे सभागार में एक समां सा बंध जाता। लोग डूबकर उन्हें सुनते। नामवर सिंह ने लेखन, अध्यापन, व्याख्यान के अलावा ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

साल 1959 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश के चंदौली से लोकसभा चुनाव लड़ा। लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे। नामवर सिंह की प्रतिभा का उनके समकालीन भी लोहा मानते थे। बाबा नागार्जुन ने उन्हें चलता-फिरता विद्यापीठ बतलाया था, तो विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें अज्ञेय के बाद हिंदी का सबसे बड़ा ‘स्टेट्समैन’ मानते थे। एक नामवर और अनेक विश्लेषण। हर एक के अपने नामवर!

19 फरवरी, 2019 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी आखिरी विदाई ली। वे आखिरी दम तक हिंदी साहित्य की सेवा करते रहे। उनके जाने से हिंदी आलोचना का जैसे एक युग खत्म हो गया। हिंदी साहित्य में नामवर सिंह जैसा कोई दूसरा साहित्यकार, शायद ही कभी हो। आखिर में, उर्दू के मशहूर शायर फिराक साहब से माफी मांगते हुए, उनका यह शे‘र नामवर सिंह के नाम,
आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ख्याल आयेगा कि तुम ने
‘नामवर’ को देखा है

(जाहिद खान लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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