Thursday, April 25, 2024

उर्दू के क्लासिक अदब को जिंदा कर गए शम्सुर्रहमान फारूकी

यह सन् 1998 की बात है। तब मैं प्रकाशन विभाग से निकलने वाली उर्दू मैगजीन आज कल में सब एडिटर था और मेरे संपादक थे शम्सुर्रहमान फारूकी के भाई महबूब रहमान फारूकी साहब। तब शम्सुर्रहमान साहब का एक मजमून इसी मैगजीन में छपने के लिए आया था। संपादक जी ने वह मजमून मुझे पढ़ने के लिए दिया और कहा कि इसे पढ़कर इस पर अपनी राय दो। उस वक्त मैं शोध का छात्र था। मैंने वह मजमून पढ़ा तो बहुत अच्छा लगा। मगर कुछ चीजें उस वक्त समझ में नहीं आईं। महबूब साहब ने कहा कि जब उनसे मुलाकात हो तो उनसे पूछ लेना।

फिर जब उनसे मुलाकात हुई तो मैंने वह सारी बातें उनके सामने रखीं और फिर उन्होंने जिस तरह से मुझे समझाया, उससे मुझे लगा कि हमें सिर्फ सवाल नहीं पूछना चाहिए, बल्कि हमें और ज्यादा चीजों को पढ़ना चाहिए। पहली ही मुलाकात में जो उन्होंने पढ़ा था, और जो चीजें उन्होंने समझ रखी थीं, और पिछले साठ साल उन्होंने जो अदबी दुनिया को दिया, मुझे उसकी झलक मिल गई थी। उसके बाद मैंने उनको नए सिरे से आई समझ से नई तरह से पढ़ना शुरू किया, तब कहीं मुझे इसका अंदाजा हुआ कि वे किस तरह से नया सोचते थे, और नया करते थे।

डॉ. शम्सुर्रहमान फारूकी ने ढेरों किताबें लिखीं। कहानियों की बात करें तो उन्होंने अफसाने की हिमायत में और सवार और दूसरी कहानियों के नाम से संग्रह लिखे। कई चांद थे सरे आसमां नाम से उपन्यास लिखा। यह हर किसी को पढ़ने चाहिए। इसके अलावा मीर तकी मीर पर उन्होंने चार वॉल्यूम में शेर-ए- शोर-अंगेज लिखा, जो मीर की शायरी पर अब तक का सबसे बड़ा काम है। इसी पर इनको सरस्वती सम्मान भी मिला था। गालिब पर उन्हों बड़ा काम किया और तस्लीम-ए-गालिब लिखी।

मगर शम्सुर्रहमान साहब का जो सबसे बड़ा काम मुझे लगता है, वह यह कि उन्होंने दास्तान का रिवाइवल किया। दास्तान पर उनकी पांच वॉल्यूम में किताब है, जिसका नाम साहिरी, शायरी, साहब करानी और दास्तान ए अमीर हमजा है। इसमें से एक वॉल्यूम तो इसी साल आया है। इसके अलावा उर्दू में जो मॉडर्निज्म है, फारूकी साहब ने ही उसे आगे बढ़ाया है। उर्दू में मॉडर्निज्म का पूरा ट्रेंड उन्हीं के नाम से है। शबखूं के नाम से वे जो रिसाला निकालते थे, सन् 1960 से लेकर अभी तक साहित्य के जो बड़े लोग हैं, लगभग सभी उससे प्रभावित हुए।

शेरी मजमुआ के नाम से उनका एक कविता संग्रह भी छपा। उन्होंने उर्दू की डिक्शनरी पर बड़ा काम किया और लुगत-ए-रोजमर्रा के नाम से एक शब्दकोश भी बनाया। मुहावरों पर उनकी बड़ी अच्छी नजर थी। शायरी नापने के मीटर को अरबुज कहते हैं, उसमें तो इनको महारत हासिल थी। बल्कि कह सकते हैं कि वे भारतीय शायरी के सबसे बेहतरीन मीटर थे। उस पर उनकी उर्दू अहम के नाम से एक किताब भी है। साथ ही उर्दू के शुरुआती जमाने पर उन्होंने किताब लिखी। इसमें उर्दू का नाम उर्दू कैसे पड़ा, वह कैसे आगे बढ़ी, कहां-कहां पली बढ़ी, उस पर बहुत ही रिसर्च करके उन्होंने किताब लिखी थी।

दास्तान पर उन्होंने जो काम किया, वह और किसी ने नहीं किया। दास्तानों पर पहले भी काम हुए हैं, कलीमुद्दीन अहमद ने भी किया है, लेकिन शम्सुर्रहमान साहब ने दास्तान लिखी, फिर अपने भतीजे महमूद फारूकी को दास्तान सुनाने के लिए प्रेरित किया। महमूद और हिमांशु त्यागी तब दास्तानगोई किया करते थे। दास्तान कैसे लिखी जाती है, वे कौन से टूल्स होते हैं कि दास्तान फिर कहानी नहीं रहती, वह दास्तान हो जाती है। कैसे उसे सुनाया जाता है, उसके सुनने वाले कैसे होते हैं, इस पर उन्होंने 46 वॉल्यूम में जाने कहां से खोज-खोज कर दास्तान-ए-अमीर हमजा पढ़ी।

इस किताब के सारे वॉल्यूम तो अब कहीं एक जगह मिलते ही नहीं हैं। फिर उस पर उन्होंने पांच वॉल्यूम में साहिरी, शायरी, साहब करानी और दास्तान-ए-अमीर हमजा लिखी। आज हर कोई दास्तानगोई कर रहा है, लेकिन दास्तानगोई असल में होती क्या है, यह उन्होंने ही बताया। इसकी पहली दास्तानगोई हुई थी, उस वक्त से मैं उनके साथ रहा। बल्कि हम बिना किसी शक के यह कह सकते हैं कि दास्तानों का ट्रेंड फारूकी साहब ने ही सेट किया।

जितना उन्होंने लिखा है, उससे सौ गुना ज्यादा पढ़ा है और सोचा है। उन्होंने ऐसे नहीं लिखा कि कुछ भी लिख दें, जैसा कि बहुत लोग करते हैं। वे जो कुछ भी लिखते थे या कहते थे, उसके पीछे पूरी दलील हुआ करती थी। कुछ लोग अपने आपको बड़ा फिलॉस्फर दिखाने के लिए ठहर-ठहर कर बोलते हैं, लेकिन अंदर कुछ होता नहीं है। फारूकी साहब बहुत जल्दी-जल्दी और बड़ी रवानी से बोलते थे। बेबाकी से बोलते थे। उनका हर वाक्य बहुत सोचा-समझा होता था।

क्लासिकल लिट्रेचर पर उनकी जितनी नजर थी, उतनी ही मॉडर्न लिट्रेचर पर भी थी। उन्होंने पूरी क्लासिकल दास्तान पढ़ी, शायरी की पूरी रवायत पढ़ी। साथ ही आज के अफसानानिगारों पर उनकी अच्छी नजर थी और उस पर भी उन्होंने लिखा है। जो जिस लायक होता था, वे उसको उसका स्पेस देते थे। स्टूडेंट्स जब उन्हें अपनी रचना भेजते तो उन्हें जवाब में पोस्टकार्ड जरूर भेजते। 2001 में जब मेरी पहली किताब आई तो मैंने उन्हें पेश की। उन्होंने उसे पढ़ा और उसमें कई मशविरे भी दिए। वे लेखकों को उनकी खराब और अच्छी बातें बता कर तरीके से तरबियत करते थे।

फारूकी साहब ने उर्दू लिट्रेचर में कई नस्लें तैयार कीं। बल्कि कह सकते हैं कि उर्दू लिट्रेचर में मॉडर्निज्म फारूकी साहब का ही स्कूल है। वैसे लिट्रेचर में हर दौर में ट्रेंडस होते हैं। पहले प्रोग्रेसिव मूवमेंट चला, जो कुछ मार्क्सिज्म पर था और कुछ आजादी के आंदोलन से प्रभावित था। उसके बाद के वक्त में जो साहित्य दिखता है, उसमें कुछ लोग नारेबाजी वाला साहित्य रचने लगे तो कुछ ने कहा कि वे नारे नहीं लगाएंगे। इसके बाद फारूकी साहब का जो मॉर्डनिज्म आया, उसमें वे कहते थे कि साहित्य को विशुद्ध साहित्य होना चाहिए, वह नारेबाजी नहीं होनी चाहिए। ये और बात है कि वेस्ट में यह मॉर्डनिज्म पहले आ गया था, लेकिन अपने यहां इसे फारूकी साहब लेकर आए। उनके मॉर्डनिज्म का मतलब था कि साहित्य नारा लगाने के लिए नहीं होना चाहिए।

साहित्य को साहित्य की तरह लिखना चाहिए, उसमें बेहतरीन भाषा होनी चाहिए, सोच और समझ होनी चाहिए। ठीक है कि उसमें कुछ डायरेक्ट चीजें आ जाएं, लेकिन कोशिश करनी चहिए कि उसमें चीजें ढंकी छुपी हों, बिंबों में बात करती हों। उनका मानना था कि आप अगर सीधे और सपाट कहते हैं तो एक ही आदमी उससे बंध सकता है, मगर जब आप एब्स्ट्रैक्ट में कहते हैं तो बहुत से लोग उससे बंध जाते हैं। उन्होंने एब्स्ट्रैक्ट का जो ट्रेंड सेट किया, उस ट्रेंड को फॉलो बहुत सारे लोगों ने किया, जैसे कि लखनऊ में नैय्यर मसूद हैं, फिक्शन राइटर सलामु बिन रज्जाक, हुसैनुल हक और सिद्दीक आलम आदि हैं।

फारूकी साहब अपने साथ पूरा एक जमाना समेट कर ले गए हैं। जब वे जवान थे, उस जमाने से उनके अंदर जो फिक्र आनी शुरू हुई, और अब भी हम उनकी जो किताबें देखते हैं तो यह तस्वीर तो दिखती ही है कि उनका छोड़ा हुआ काम आगे बढ़ाया जा सकता है, लेकिन अभी कोई नजर नहीं आ रहा कि जो उनका गैप दूर कर सके, जो मल्टी डायमेंशनल हो। जो आलोचक भी हो, कहानीकार भी हो, इतिहासकार भी हो, शायर भी हो और शब्दों का इतना बड़ा संग्रहणकर्ता हो। वे अपनी तरह की पूरी एन्साइक्लोपीडिया थे।

  •  डॉ. मोहम्मद काजिम

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में पढ़ाते हैं।)

(राहुल पांडेय से बातचीत पर आधारित)

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