चुनाव आते ही राममंदिर मुद्दा फिर गर्माने लगा है। बीजेपी से लेकर संत समाज के लोग तक इस पर सक्रिय हो गए हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इसके प्रति कौन कितना ईमानदार है। जिस विश्व हिंदू परिषद के पंप से संघ-बीजेपी मंदिर के गुब्बारे में हवा भरते हैं क्या वो इस बात की शपथ दे सकता है कि राम मंदिर मिल जाने के बाद ज्ञानवापी और मथुरा को वो नहीं उठाएगा? या सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले मुद्दों को छोड़ देगा? ऐसा कत्तई नहीं होने वाला है।
इस तरह से कोई भोला आदमी ही सोच सकता है। इस पर बाद में आते हैं। पहले इस पर बात करते हैं कि आखिर मंदिर मुद्दे की जरूरत क्यों पड़ी। पिछले चार सालों तक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन कुंभकर्णी नींद में रहे। अब जब चुनाव नजदीक आ गया तो उन्हें मंदिर की याद आयी। दरअसल पिछले साढ़े चार सालों के कार्यकाल में गिनाने के लिए बीजेपी के पास एक भी ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसे लेकर वो चुनावों में जा सके। बड़े-बड़े आसमानी वादे औंधे मुंह गिर गए हैं। अब बीजेपी के पास जनता को बताने और दिखाने के लिए जब कुछ नहीं है तब उसे मंदिर की याद आयी है।
इस मामले में बीजेपी अगर सच में दो फीसदी भी ईमानदार होती तो इस दिशा में वो प्रयास कर रही होती दिखती। मंदिर एक ऐसा मुद्दा है जिसको हल करने के लिए कई तरीके से प्रयास हो सकते थे। उसमें सरकार से लेकर समाज और कोर्ट से लेकर संत तक सबकी भूमिका है। कोर्ट के अलावा किसी दूसरे स्तर पर कोई प्रयास हुआ? इसका उत्तर न है। कहा जाता है कि चार महीने वाली चंद्रशेखर की सरकार मंदिर मुद्दे के समाधान के करीब पहुंच गयी थी। लेकिन यहां चार साल से ऊपर हो गए लेकिन मुद्दे को हल करने की बात तो दूर मोदी सरकार उस तरफ निगाह तक नहीं डाली।ये है बीजेपी की असलियत।
जिस मुद्दे को उसने अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है उसकी प्राथमिकता सूची में उसका स्थान सबसे आखिरी है। सचाई ये है कि जिस कोर्ट को वीएचपी और संघ के लोग गालियां दे रहे हैं उसी ने इस पर कुछ किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट से एक फैसला आया। ये बात अलग है कि उस पर दोनों पक्षों की अपने-अपने तरीके से असहमति थी। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में आने पर उसने उसकी सुनवाई के आधार को साफ कर दिया।
कम से कम कोर्ट को लेकर किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए। शिकायत की बात आएगी तो पहले नंबर पर सरकार होगी। लेकिन इस मामले में अगर संत समाज ऐसा करता हुआ नहीं दिख रहा है तो फिर राजनीति के लिए पैदा हुए संघ से क्या आशा की जानी चाहिए।
एक बात बिल्कुल साफ तरीके से लोगों को समझ लेनी चाहिए कि संस्थाओं की अपनी अलग-अलग भूमिका होती है।किसी मामले में समाज और सरकार की भूमिका कारगर होती है तो कहीं कोर्ट फिट बैठता है। क्योंकि दोनों के काम और भूमिकाएं बिल्कुल अलग हैं। समाज में समझौता तो हो सकता है लेकिन कोर्ट में सिर्फ न्याय होगा। इसलिए कोर्ट को किसी भी रूप में पंचायती अखाड़े के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
समझौते की कोशिशें तो सरकार के स्तर पर हो सकती थीं या फिर संत समाज पहल कर उसे अंजाम दे सकता था।लेकिन दोनों ही अपने कर्तव्यों को निभाने में नाकाम रहे। तब मामला अगर कोर्ट के सामने गया है तो उससे सिर्फ न्याय की ही उम्मीद की जानी चाहिए। लिहाजा वो फैसला खिलाफ हो या कि पक्ष में सबको मान्य होना चाहिए।
ये बात कहना कि समाज की भावना और उसकी राय को देखकर फैसला करना चाहिए कोर्ट के पूरे अस्तित्व और उसकी पवित्रता को ही नष्ट करने जैसा है। क्योंकि न्याय न्याय होता है। वो अगर एक व्यक्ति के पक्ष में है और पूरा समाज उसके विरोध में खड़ा है तो उसे उस व्यक्ति के साथ खड़ा होना होगा। इसलिए सबरीमला की तरह संघ-बीजेपी को उल्टे फैसले के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
ऐसा नहीं हो सकता है कि पक्ष में फैसला आए तो न्याय करार दे दिया जाए और विरोध में आए तो आस्था पर चोट बता कर खारिज कर दिया जाए। इसके समेत दूसरे मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के साथ संघ और बीजेपी का रुख एक दूसरी ही बात की तरफ इशारा कर रहा है जिसे लोगों को समझना होगा। लेकिन इसको आगे बढ़ाने से पहले उस पर बात जो मैंने ऊपर कही थी। दरअसल संघ-बीजेपी के लिए राम मंदिर कोई लक्ष्य नहीं है और न ही उनकी भूख यहीं तक सीमित रहेगी। मंदिर उनके लिए आंदोलन को आगे बढ़ाने और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में महज एक हथियार भर है।
किसी मंदिर और उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के मुकाबले मुसलमानों को उनका स्थान बताना ज्यादा जरूरी है। इस देश और समाज में उनका दर्जा दोयम है। ये बताने के लिए राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मामले में दोनों महज प्रतीक हैं। जब वीएचपी ये कहती है कि आस-पास की बात तो दूर 50 किमी दूर भी बाबरी मस्जिद बनाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। तब इसके जरिये दरअसल वो समाज में मुसलमानों की स्थिति बता रही होती है। जिसे वो अपने कथित ‘हिंदू राष्ट्र’ में देखना चाहती है। उसकी निगाह में उनका स्थान भारत के चार वर्णों से भी नीचे है। और ये उनको उसी पायदान पर भेज देना चाहते हैं।
संघ की ताकत बढ़ने के साथ ही उसकी हवस का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि हिंदू राष्ट्र सिर्फ किसी मस्जिद या मुसलमान को ही प्रभावित करेगा। उससे पहले वो इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसकी संस्थाओं को चोट पहुंचाएगा। एक नंगा सच यही है जिसे हर किसी को जानना चाहिए कि बगैर लोकतंत्र को खत्म किए इस देश में हिंदू राष्ट्र स्थापित नहीं किया जा सकता है। संघ और बीजेपी इस दिशा में बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। पिछले चार सालों में सारी संस्थाओं को कमजोर करने की जो साजिशें हुई हैं वो उसी कोशिश का हिस्सा हैं।
परंपरागत वर्ण व्यवस्था के तहत समाज के संचालन की गारंटी इन संस्थाओं को छिन्न-भिन्न करने के जरिये ही की जा सकती है। और अब उसने आखिरी संस्था कोर्ट को अपने घेरे में लेने की कोशिश शुरू कर दी है। इस कड़ी में उसके फैसलों पर अंगुली उठाने से लेकर उसे खारिज करने तक की कोशिश की जा रही है।और ये सिलसिला संसद में शंकराचार्य का प्रवचन आयोजित कराने तक जाएगा। हरियाणा और एमपी की विधानसभाओं में संतों के प्रवचन के जरिये इसकी शुरुआत हो ही गयी है। और फिर आखिर में इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे पवित्र पुस्तक संविधान की बारी आएगी। जिसमें परिवर्तन कर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की औपचारिकता पूरी की जाएगी।
इसलिए किसी को ये भ्रम नहीं होना चाहिए कि इनकी क्षुधा किसी एक राम मंदिर से पूरी होने वाली है। ये मंदिर नहीं, तो गाय लाएंगे। गाय नहीं, तो दंगा करेंगे। दंगा नहीं, तो तीन तलाक का मुद्दा उठाएंगे। तीन तलाक नहीं, तो कश्मीर का राग अलापेंगे। यानी हर तरीके से येन-केन-प्रकारेण इन्हें हिंदू-मुस्लिम के इर्द-गिर्द चीजों को बनाये रखना है। जब तक कि देश को हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं करवा लिया जाता और मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक नहीं बना दिया जाता और अंत में देश से लोकतंत्र का खात्मा नहीं हो जाता।