Saturday, April 20, 2024

उत्तराखंड के 25 हजार ‘गुरिल्ला’ सरकार की उपेक्षा से बगावती मूड में

“गुरिल्ला रूठेगा, देश टूटेगा” “सन 1962 को याद करो.. याद करो..“ इन नारों के साथ सैंकड़ों की संख्या में शुक्रवार को गढ़वाल मंडल के 5 जिलों के गुरिल्लाओं ने पौड़ी गढ़वाल जिले में श्रीनगर शहर धरना प्रदर्शन किया। इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्रह्मानन्द डालाकोटी के नेतृत्त्व में ये आंदोलनकारी 3 सूत्रीय मांग पर अड़े हैं। इनका यह आंदोलन पिछले 15-16 वर्षों से चल रहा है। उत्तराखंड में ही बड़ी संख्या में लोग इन गुरिल्लाओं के विषय में अनजान हैं।

कौन हैं ये गुरिल्ला?

डालाकोटी के अनुसार, सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) की स्थापना 1963 में भारत-चीन युद्ध में मिली पराजय के बाद की गई थी। चीन से लगी देश की सीमा पर स्थित स्थानीय निवासियों को चीन से मुकाबला करने के लिए उन्हें आवश्यक अस्त्र-शस्त्र की ट्रेनिंग, फ़ौज पहुंचने से पहले चीन की सेना को रोकने और भारत की सेना के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए इसकी स्थापना की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने 62 की पराजय के कटु अनुभवों से सीख लेकर इसकी स्थापना की योजना बनाई थी। इसके लिए दुनियाभर में मौजूद सुरक्षा व्यवस्था का अध्ययन कराया गया और इसके बाद चीन के बॉर्डर से लगे 18 वर्ष से ऊपर के प्रत्येक व्यक्ति को अस्त्र-शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग दी गई। हाफलोंग में दो प्रशिक्षण केंद्र बने।

डालाकोटी, 1962 में भारत पराजय की एक मुख्य वजह सीमांत क्षेत्र की जनता के तब तक भारत सरकार के साथ ठीक तरह से न जुड़े होने को बताते हैं। उनके अनुसार, उस दौर में पूर्वोत्तर भारत के लोगों को यह भी नहीं पता था कि हमारी सेना कौन सी है और कौन दुश्मन की सेना है। उन लोगों के नैन-नक्श चीनी सेना से कहीं अधिक मेल खाते थे, इसलिए उन्होंने उनका स्वागत किया जबकि भारतीय सेना में पगड़ी पहने सरदार या दक्षिण भारतीय उन्हें ज्यादा अपरिचित लगे। इसके चलते भारतीय सेना का मार्ग अवरुद्ध किया गया, उन पर तीर-कमान चलाए गये। नतीजतन भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा और भारत की 45,000 वर्ग किमी की भूमि चीन के कब्जे में चली गई थी।

विशेष सुरक्षा बल के नाम से स्थापित इस सैन्य-बल को आज के दिन सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के नाम से जाना जाता है। 2002 की वाजपेई सरकार के द्वारा इसे बंद कर, प्रशिक्षित गुरिल्लाओं का समायोजन अन्य प्रांतीय बलों में करने की बात कही गई। इसमें भारत तिब्बत सीमा सुरक्षा बल सहित अन्य बल शामिल हैं। कुल 2 लाख के करीब इन गुरिल्लाओं की संख्या थी, जिसमें करीब एक लाख को समायोजित किया गया। बाकी के एक लाख गुरिल्लाओं का समायोजन नहीं किया गया। इन्हें भी समायोजित किये जाने की मांग को लेकर 2006 से डालाकोटी इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने देश में दूर-दराज के इलाकों को संगठित किया। वर्तमान में वे 17 राज्यों का नेतृत्व संभाल रहे हैं, जिसमें करीब 1.5 लाख गुरिल्ला बल के लोग आज भी अपनी न्यायोचित मांग की लड़ाई लड़ रहे हैं।

सशस्त्र सीमा बल एकेडमी

डालाकोटी के अनुसार “सीमा सुरक्षा बल का काम काफी व्यापक था। कुल 13 कार्य थे, जिसमें स्थानीय जनता को जागरूक करने, दूर-दराज के लोगों को भारतीय सरकार के बारे में जागरूक करने, राष्ट्र की चेतना को जागृत करने, भारतीय नागरिकता के प्रति उनमें जागरूकता पैदा करना, हिन्दी भाषा का प्रचार करना और केंद्र सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को गांवों में लागू कराना शामिल था। उस जमाने में सरकार की ओर से इतनी अधिक योजनायें नहीं होती थीं। हमारे जिम्मे गांव के नौले, धारे की साफ-सफाई इत्यादि भी शामिल थी। आधा पैसा एसएसबी के माध्यम से दिया जाता था और कई कार्यों को अंजाम दिया जाता था”।

डालाकोटी के अनुसार “यह संगठन सीधे पीएम और रॉ के अधीन होते थे। हमें 42 दिन की एक ट्रेनिंग फिर जंगल ट्रेनिंग दी जाती थी, जिसमें किस प्रकार से दुश्मन सेना की टुकड़ी पर अम्बुश लगाना है, बेस कैंप को हिट करना है, इसके साथ-साथ हम सेना को किस तरह से उस इलाके में रास्ते दिखायें, मदद करें, उन्हें हथियार पहुंचाने में मदद पहुंचाएं या अगर सेना आगे फंस गई है, चीन की टुकड़ी बीच में है तो घास काटने वालों या ग्वालों की मदद से उनके माध्यम से सेना को रसद और सूचना पहुंचाई जाए जैसे कार्य में प्रशिक्षित थे। इस प्रकार हम विभिन्न तरीकों से सेना से सम्बद्ध थे। हमें घर पर ही बने रहने के निर्देश थे। हमारा लक्ष्य था किसी भी सूरत में लाल टोपी, लाल झंडे वालों का मुकाबला करना है”।

डालाकोटी बताते हैं कि “हमारे लोगों ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया। सिक्किम को भारत का पूर्ण राज्य बनाने में एसएसबी का बहुत बड़ा रोल है। जब एसएसबी गुरिल्लाओं को भेजा गया, तो उन्होंने एक एक चोग्याल समर्थकों की सूचना भारत सरकार को भेजी, जिसके चलते ही रातों-रात उनके हथियार रखवा लिए गए और सिक्किम को भारत का अंग बनाया जा सका। इसी प्रकार बांग्लादेश की मुक्ति सेना में भी एसएसबी का इस्तेमाल किया गया। अरुणाचल प्रदेश जहां पर लोग उस समय बिल्कुल हिंदी नहीं जानते थे, वहां पर एसएसबी स्वयंसेवकों ने घर-घर हिंदी को पहुंचाने का काम किया। लोगों के अंदर भारतीयता की भावना और संविधान के प्रति आदर और सम्मान जगाया।

मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन करती महिलाएं

विशेष सुरक्षा बल में भर्ती हमारे बीच में से होती थी। 2002 में जब भारत सरकार ने इस विशेष सेवा बल के स्थान पर एसएसबी का गठन किया, तबसे हमारी भर्ती बंद हो गई। तभी से हम सरकार से मांग कर रहे हैं कि जिन्हें आपने छोड़ दिया है, आप उन्हें भी समायोजित करें। बुढ़ापे में जीवनयापन का सहारा दें। हमारी मांग सिर्फ नौकरी, पेंशन ही नहीं बल्कि सीमा की सुरक्षा से भी जुड़ी है। आज भी इसकी उतनी ही जरूरत बनी हुई है। इन्हें क्षेत्रीय स्तर पर अन्य कार्यों में लगाकर ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने और सुरक्षा के कार्य लिए जा सकते हैं। यह सस्ती, सरल और मानव जनित सुरक्षा व्यवस्था मशीनी सुरक्षा की तुलना में बहुत बेहतर और किफायती साबित हो सकती है”।

2006 से इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे डालाकोटी ने दिल्ली से लेकर सीमान्त प्रान्तों और संसद की चौखट तक का दरवाजा खटखटाकर देख लिया है। 2009 से अल्मोड़ा जनपद में निरंतर धरना चला। गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाक़ात और लिखित आवेदनों का दौर भी गुजरा। उनका कहना है कि यह सरकार खुद को राष्ट्रभक्त कहती है, तो फिर हमारी उपेक्षा क्यों कर रही है?

डालाकोटी कहते हैं कि “2015 में सरकार ने हमारी गिनती भी करा ली है कि अब कितने गुरिल्ला बचे हुए हैं। लगभग 1,60,000 लोग वेरीफाई कराने पहुंचे, जिसमें सरकार ने 59,000 को किया भी। 2014 में केंद्रीय मंत्री सुशील कुमार शिंदे की अध्यक्षता में एक बड़ी बैठक हुई थी, और तय हुआ था कि एसएसबी के वालंटियर को राज्यों में रोजगार देंगे। जो लोग योग्य उम्र की सीमा को पार कर गये हैं, उनके लिए एकमुश्त सहायता अथवा मानदेय पेंशन के लिए कैबिनेट में प्रस्ताव लायेंगे। लेकिन सरकार चली गई और मोदी सरकार आ गई। 5 साल में राजनाथ सिंह से 3-4 बार बात हुई। हर बार कहा जाता है कि विचार कर रहे हैं और अंत में होम गार्ड के रूप में उपयोग करने की चिट्ठी प्राप्त हुई। यह हमारे किसी काम का नही है। हमारा संपूर्ण समायोजन किया जाये।

राजनाथ सिंह से मिलने के बाद आंदोलनकारी

आंदोलनकारियों की तीन सूत्रीय मांगे हैं:

  • 45 साल तक की उम्र के गुरिल्लाओं को नौकरी
  • इससे अधिक उम्र के लोगों के लिए एकमुश्त धनराशि
  • यथोचित सम्मानजनक पेंशन

आन्दोलनकारियों का कहना है कि “2005 से हमारा आंदोलन चल रहा है। कांग्रेस ने भी हमें अनसुना किया। भाजपा भी हमें सिर्फ झांसा दे रही है। मणिपुर में उन्हें उनका हिस्सा दिया गया, लेकिन हमें सिर्फ बेवकूफ बनाया गया है”। संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्रह्मानन्द डालाकोटी के अनुसार “मणिपुर के पैटर्न पर हमें भी नौकरी दी जाए। 2011 में इस संबन्ध में एक सिफारिश की गई थी। एसएसबी की इस सिफारिश पर सरकार कार्रवाई करे। राज्य सरकार के द्वारा भी कई शासनादेश पारित किये गये और इस पर राज्यपाल की स्वीकृति भी हासिल है। होमगार्ड, कृषि सहायक इत्यादि में समायोजित करने के लिए शासनादेश पारित किये गये, लेकिन इन किसी पर कोई कार्यवाई नहीं की गई है”।

उनका कहना है कि “उनके ऊपर गुरिल्लाओं का गहरा दबाव है कि हम चारधाम यात्रा के मार्ग को अवरुद्ध करें। सरकार यदि फिर भी हमारी बात नहीं सुनती है, तो चुनाव बहिष्कार सहित वर्तमान सरकार के विरोध में उतरेंगे।

उत्तराखंड में 19,800 लोग हमारे यहां पंजीकृत हैं, जबकि कुल संख्या 25,000 के करीब है। पूरे देश में यह संख्या 1.5 लाख है, जबकि 80 हजार लोगों को सरकार द्वारा वेरीफाई किया गया है। हम पिछले 18 साल से लड़ रहे हैं”।

अपनी मांगों को लेकर जुलूस निकालते आंदोलनकारी

मौजूदा समय में गुरिल्ला बेहद आक्रोशित हैं। टिहरी गढ़वाल ईकाई के जिलाध्यक्ष गैरोला ने चेताते हुए कहा कि “यदि सरकार का रवैया नहीं बदला तो हम चारधाम यात्रा को अवरुद्ध करेंगे। यहां तक कि 2024 में हम जगह-जगह 20 हजार गुरिल्ला भाजपा को कभी वोट न देने की अपील करेंगे”।

देखना है कि एक ऐसे दौर में जब केंद्र और राज्य सरकारें मौजूदा युवाओं तक के लिए नौकरी का कोई बंदोबस्त करने के बजाय उन्हें आत्मनिर्भर बनने की नसीहत देती है, तो ऐसे में इतने वर्षों से उपेक्षित पड़े इन गुरिल्लाओं के गुस्से और बगावती तेवरों से खुद को बचाने के लिए क्या कदम उठाती है?

(रविंद्र पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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