पिछले एक हफ्ते में सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष से जुड़े तीन व्यक्तियों के आए बयान भारतीय लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। इंडिया फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने न केवल मंत्री के तौर पर ली गयी अपनी शपथ की धज्जियां उड़ाईं बल्कि इस मौके पर उन्होंने संस्थाओं की लानत-मलानत का कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने राष्ट्र को सभी संस्थाओं से ऊपर बता कर सभी संस्थाओं को एक सिरे से खारिज कर दिया। इसके साथ ही कहा कि शक्ति केवल राजनीतिक संस्थाओं के पास होनी चाहिए क्योंकि वही जनता के प्रति जवाबदेह होती है।
बाकी संस्थाओं की कोई जवाबदेही नहीं होती है। दूसरे अर्थों में उन सभी संस्थाओं को उसका पिछलग्गू होना चाहिए या फिर उसके रहमोकरम पर जीना चाहिए। तकरीबन 1 घंटे के अपने भाषण में जेटली ने एक बार भी संविधान का नाम नहीं लिया। उन्होंने ये बताने की कोशिश नहीं की कि ‘सबसे बड़े राष्ट्र’ में संविधान की आखिर क्या भूमिका है। जिस संविधान के सहारे वो यहां तक पहुंचे हैं और जिसने उन्हें बोलने का अधिकार दिया है और जिसके चलते लोग भी उनकी कही सुनने के लिए मजबूर हैं। उस संविधान की क्या हैसियत है और वो उनके राष्ट्र में कहां पाया जाता है? क्या उसे बीजेपी अब एक कोने में देखना चाहती है या फिर वो रद्दी की टोकरी में फेंक देने लायक हो गया है? या फिर उसे दफ्न कर देने का वक्त आ गया है? इस बात को जेटली को स्पष्ट करना चाहिए था।
इसके माध्यम से वो जिस सुप्रीम कोर्ट पर निशाना साध रहे थे सच ये है कि उसे संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी मिली हुई है। और इस रूप में न केवल संविधान और संसद बल्कि देश की सभी संस्थाएं उस पर निर्भर हैं। ऐसे में अगर कहीं भी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होता है तो वहां हस्तक्षेप करना सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी बन जाती है। लेकिन इस दखल को सरकार अब बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। वो चाहती है कि संविधान को ताक पर रख कर उसे हर तरह के काले कारनामे करने की छूट मिले। जेटली वित्तमंत्री हैं और वित्तीय संस्थाओं को कम से कम सुचारू रूप से चलाने की गारंटी करना उनकी जिम्मेदारी थी। लेकिन उन्होंने पिछले चार सालों में उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। बैंकों की हालत किसी से छुपी नहीं है। वो अब दूसरों के रहमोकरम पर जिंदा हैं।
आरबीआई जैसी एक संस्था जिसकी पूरे देश में साख हुआ करती थी उसे सरकार ने घुटनों के बल ला दिया। और अब जब पानी सिर के ऊपर चढ़ने लगा तब उसके डिप्टी गवर्नर ने खुलकर सामने आने का फैसला किया और कहा है कि आरबीआई की स्वायत्तता छीनने का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ जाएगा। दरअसल जेटली जवाबदेही के अपने कुतर्क के बहाने तानाशाही का एक ऐसा साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं जिसमें संविधान, संसद और सुप्रीम कोर्ट समेत सभी संस्थाएं सरकार के सामने बौनी हो जाएं। लेकिन इन भस्मासुरों को नहीं पता कि ये कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं। जिन संस्थाओं के सहारे देश में लोकतंत्र चल रहा है और खुद उनकी सरकार वजूद में आयी है ये उसी की जड़ काटने में लग गए हैं।
दूसरा बयान देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का है। उन्होंने जो बयान दिया है वो किसी भी रूप में एनएसए के अधिकार क्षेत्र के दायरे में नहीं आता है। वो पूरी तरह से एक राजनीतिक बयान है। उन्होंने कहा कि देश को सही रास्ते पर ले जाने के लिए अगले 10 सालों तक के लिए एक स्थिर सरकार चाहिए। दरअसल उनका ये बयान मौजूदा सरकार के संकट को दर्शाता है। साथ ही ये भी दिखाता है कि उसके पास उसका अपना पक्ष रखने के लिए कोई और दूसरा नहीं है। और एक अदने से एनएसए को इस काम में लगाना पड़ रहा है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि विपक्ष द्वारा भी इसके खिलाफ उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई जिसकी उम्मीद थी।
आखिरी बयान सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का है। उन्होंने सीधे सर्वोच्च अदालत को ही चुप रहने के लिए कह दिया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तड़ीपार किए गए शाह ने उसे सलाह दी है। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जो लागू न हो सकें। ये बात उन्होंने सबरीमला के संदर्भ में कही है।देश में अब वो दिन आ गए हैं जब सुप्रीम कोर्ट को हत्या के एक आरोपी से कानून का पाठ पढ़ना होगा।
लेकिन अमित शाह ये नहीं जानते कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लागू करने की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। और जो सरकारें नहीं लागू कर पातीं उनका सत्ता में बने रहने का अधिकार खत्म हो जाता है। सबरीमला में फैसले को लागू करने में सहयोग के बजाय सत्तारूढ़ पार्टी और उसके पितृसंगठन द्वारा लोगों को भड़काए जाने की बात से पूरा देश परिचित है। और ऐसे में किसी सुप्रीम कोर्ट पर अंगुली उठाने की जगह अमित शाह को अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है। और उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि पुराना दौर होता तो अब तक एक बार फिर वो सलाखों के पीछे होते।
बहरहाल ये तीनों बयान सरकार के सामने आए संकट की तरफ इशारा कर रहे हैं। सरकार चौतरफा घिरती नजर आ रही है। जनता के बीच उसकी साख तो पहले से ही गायब हो चुकी थी अब संस्थाओं ने भी उसकी घेरेबंदी शुरू कर दी है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर सीबीआई और आरबीआई से लेकर संसद की स्टैंडिंग कमेटियों तक सरकार चौतरफा घिर गयी है।
ऐसे में कानूनी और संवैधानिक तरीके से निपटने की जगह उसे उन सभी को खारिज करने का ही एक मात्र रास्ता दिख रहा है। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इसको लेकर खुद सरकार के भीतर ही विभाजन है। मोदी का साथ देने वालों की संख्या अंगुलियों पर है। क्योंकि उसमें भी एक बड़ा हिस्सा उनके उत्पीड़न का शिकार रहा है। लिहाजा अब लगता है कि उसने बैठकर तमाशा देखने का फैसला कर लिया है। और इसमें अगर कुछ लोग उसके खिलाफ साजिश करते नजर आएं तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।
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