Saturday, April 20, 2024

मोदी शासन के सर्वांगीण पतन और बर्बरता के 9 साल

जंतर-मंतर से अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता विनेश फोगाट ने ट्वीट किया है, “देश याद रखेगा कि जब देश की नई संसद का उद्घाटन हो रहा था, तब इंसाफ के लिए लड़ती बेटियों पर जुल्म ढाया जा रहा था।”

मोदी के 9 साल के शासन का असल सच यह है, “9 साल बेमिसाल” की तुकबंदी नहीं !

“यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश, 

यह जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश,

यह विस्तीर्ण श्मशान नहीं है मेरा देश,

यह रक्तरंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश,

मैं छीन लाऊंगा अपने देश को और सीने में छिपा लूंगा ! “

नवारुण भट्टाचार्य ने ये पंक्तियां 70 दशक के बंगाल के अर्ध-फासीवादी संत्रास के इंदिरा गांधी-सिद्धार्थ शंकर राय के दौर के लिए लिखी थीं, लेकिन पिछले 9 सालों के मोदी-शाह राज के लिए आज ये उससे अधिक सच हैं।

इसकी आखिरी लाइन में व्यक्त संकल्प आज हर देशभक्त भारतीय का संकल्प बनना चाहिए, जो अपने देशवासियों से, अपनी मिट्टी, अपनी सभ्यता-संस्कृति से प्यार करता है, लोकतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास करता है और उन्हें बचाना चाहता है।

“9 साल बेमिसाल” के जो बड़बोले आंकड़े आज पेश किए जा रहे हैं, कभी उन्हीं के बारे में जनकवि अदम गोंडवी ने कहा था, “तुम्हारे फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे है, ये दावा किताबी है।”

असलियत बयां करने वाले बेरोजगारी जैसे आंकड़ों से तो सरकार इतना डर गई कि उन्हें कई सालों से सार्वजनिक करना ही बंद कर चुकी है। जाति-जनगणना से भयभीत उसने census ही नहीं करवाया, जिसके बिना पूरा आर्थिक नियोजन ही दिशाहीन हो गया है। जनता के वास्तविक जीवन-स्थितियों से जुड़े crucial आंकड़ों के अभाव में सरकार एकांगी/आंशिक, अर्ध-सत्य,  concocted आंकड़ों के बल पर अपनी पीठ थपथपा रही है और जनता की आंख में धूल झोंकने में लगी है।

सच्चाई यह है कि विनाशकारी मोदी-राज के 9 साल बाद समाज में चौतरफा उदासी, हताशा और तनाव का माहौल है, आम लोगों की जिंदगी मुश्किलों से घिर गयी है। मोदी राज के विकास का सच सबसे बेहतर वह जनता ही बता सकती है जिसने उसकी तबाही को भोगा है। सरकार के acts of omission and commission का जैसा खामियाजा मोदी के राज में समाज को भुगतना पड़ा है, वह अगर उन्हीं से जुमला उधार लिया जाय, तो 70 साल में कभी नहीं हुआ था।

अकेले कोविड के दौरान दुनिया में सबसे अधिक मौतें (50 लाख के आसपास) हमारे देशवासियों की हुईं, उनमें से अनेक ऑक्सीजन की कमी में संवेदनहीन, नकारा सरकार की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के शिकार हुए।

बिना किसी तैयारी, योजना और पूर्व सूचना के अचानक जिस मूर्खतापूर्ण नाटकीयता के साथ लॉक डाउन लागू किया गया, उसने लाखों देशवासियों को अकथनीय यातना झेलने को मजबूर किया। सैकड़ों किमी दूर अपने गांवों को लौटने को मजबूर अनेक लोगों ने रास्ते में भूखे-प्यासे दम तोड़ दिया और रेल ट्रैक पर मारे गए। आने वाली पीढ़ियां याद करेंगी कि किस तरह एक शासक की सनक की कीमत करोड़ों देशवासियों ने अपनी जान देकर चुकाई।

इस दौर में सबसे बड़ा जुल्म देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के ऊपर हुआ, जिनके लिए देश एक बड़े यातनागृह और कत्लगाह में तब्दील कर दिया गया, जहां कभी भी किसी सार्वजनिक स्थल पर या यहां तक कि अपने ही घर में गोमांस से लेकर लव जिहाद तक कोई भी बहाना बनाकर वे लिंच किये जा सकते हैं, बुलडोजर उनके घरों को रौंद सकता है या उनकी संसद/विधानसभा की सदस्यता खत्म की जा सकती है। 

वस्तुतः उनके लिए कानून अलग ढंग से लागू हो रहा है, वे व्यवहारतः दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिये गए हैं। जनसंहार की भविष्यवाणी करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत को उस खतरे के नजदीक बता रही हैं।

कठोर केंद्रीकृत ढांचे को थोपकर संघीय ढांचे की स्पिरिट को पूरी तरह अलविदा कह दिया गया है। दिल्ली की निर्वाचित सरकार से अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग का भी अधिकार छीन लेना और उसके लिए सुप्रीम कोर्ट तक के आदेश को अध्यादेश से पलट देना और कश्मीर की जनता की राय की बिना परवाह किये उसका राज्य का दर्जा छीन लेना इसके दो सबसे बड़े उदाहरण हैं।

अनायास नहीं है कि नीति आयोग की बैठक में 8 मुख्यमंत्री नहीं गए तो नए संसद भवन के उद्घाटन का 20 विपक्षी दल बहिष्कार कर रहे हैं।  उत्तर-पूर्व के लिए पूरी तरह unnatural, alien अपनी राजनीति थोपने की जिद में मोदी-शाह ने पूर्वोत्तर भारत को बड़े धार्मिक-एथनिक तनाव और दंगों में झोंक दिया है। हाल ही में मणिपुर में जहां इनकी डबल इंजन सरकार चल रही है, मंत्री को भीड़ ने घर के अंदर घेर लिया,सैन्य बलों ने किसी तरह समय पर पहुंच कर बचाया। वहां ethnic violence में अब तक 100 के ऊपर लोग मारे जा चुके हैं।

असहमत और विरोध में खड़े लोगों के लिए पूरा देश जेल बना दिया गया है। न सिर्फ नागरिक समाज की नामचीन हस्तियां बल्कि विपक्ष के ताकतवर नेता, जिनमें कभी उनके साथ रहे पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक तक शामिल हैं, सरकार के निशाने पर हैं। उनमें से कई पहले से सालों से जेल में हैं और बचे लोगों के ऊपर लगातार गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। 

लोकतन्त्र की सारी संवैधानिक संस्थाओं को जेबी बना लिया गया है और उन्हें नख-दंत विहीन कर दिया गया है। सरकार सर्वोच्च न्यायपालिका से खतरनाक टकराव के रास्ते पर है।

लोकतन्त्र के इस अपहरण और आजीविका पर हमले के खिलाफ देश की जनता अतुलनीय साहस के साथ लड़ रही है और भारी कीमत चुका कर भी कॉरपोरेट-फासीवादी राष्ट्र बनाने की मुहिम को कामयाब नहीं होने दे रही है।

मोदी सरकार के 9 साल तमाम मोर्चों पर, जनता के विभिन्न तबकों के वीरतापूर्ण संघर्षों और तानाशाही हुकूमत को पीछे धकेलकर दर्ज की गई जीत के भी साक्षी रहे हैं। इनमें से अनेक आज विश्व इतिहास में दर्ज हो चुके हैं।

नागरिकता कानून ( CAA ) और NRC को लेकर मूलतः मुस्लिम महिलाओं द्वारा स्वतः स्फूर्त ढंग से दिल्ली से शुरू शाहीन बाग आंदोलन जिस तरह देखते देखते जंगल की आग की तरह पूरे देश में फैल गए और तानाशाही के खिलाफ लोकतान्त्रिक जनमत के राष्ट्रीय प्रतिरोध के प्रतीक बनकर खड़े हो गए, उससे सत्ता-प्रतिष्ठान सकते में आ गया था। दिल्ली दंगों की आग में उसे झुलसाने की साजिश हुई। बहरहाल अंततः कोविड की विभीषिका ही उस पर रोक लगा सकी। NRC के अपने मंसूबे से सरकार को पीछे हटना पड़ा, “Great Divider मोदी-शाह” को अपने ड्रीम प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा।

इसी दौर में भारत ही नहीं, सम्भवतः विश्व इतिहास के सबसे लंबे समय तक चले अनोखे किसान आंदोलन के रोमांचकारी दृश्य दुनिया ने देखे।

दरअसल, किसानों की आय दोगुनी करने का मोदी का वायदा तो हवा-हवाई और धोखा साबित हुआ ही, सरकार काले कृषि कानूनों के माध्यम से फसल-खरीद की मंडी व्यवस्था को ही खत्म करने और कृषि को साम्राज्यवादी हितों और कॉरपोरेट मुनाफे की जरूरतों के अनुरूप ढालने में लग गयी। किसानों ने अपने कृषि और जमीन पर नियंत्रण कायम करने की इस खतरनाक साजिश की सटीक शिनाख्त की और वे जीवन-मरण संग्राम में उतर पड़े। साढ़े सात सौ से ऊपर किसानों की शहादत हुई। मोदी सरकार के बर्बरतम दमन और साजिशों का अकल्पनीय धैर्य, साहस और सूझबूझ से मुकाबला करते हुए अंततः किसानों ने तानाशाह हुकूमत को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। कृषि के कॉरपोरेटीकरण की सरकार की साजिश नाकाम हो गयी। 

बहरहाल MSP की कानूनी गारंटी, किसानों की पूर्ण कर्ज-मुक्ति, किसान-पेंशन जैसे मूलभूत मुद्दों पर ” खेती बचाओ, देश बचाओ, लोकतन्त्र बचाओ” नारे के साथ सरकार की वायदाखिलाफी के विरुद्ध किसानों की लड़ाई जारी है। 

ये 9 साल बेरोजगार युवाओं की बर्बादी और उनके बड़े-बड़े संघर्षों के भी साक्षी रहे। प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोजगार सृजन का वायदा कर युवाओं का एकमुश्त वोट और उन्मादी समर्थन हासिल कर सत्ता में पहुंचे मोदी शासन के 9 साल बाद देश में बेरोजगारी रेकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। रोजगार सृजन के स्थान पर विनाशकारी अर्थनीति और नोटबन्दी, दोषपूर्ण GST जैसे कदमों के चलते बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर खत्म हुए। यहां तक कि केंद्र की नौकरियों के 10 लाख के आसपास पद, स्वयं सरकार की स्वीकारोक्ति के अनुसार वर्षों से खाली रखे गए थे, जिनमें से थोड़े बहुत पदों के नियुक्ति पत्र अब चुनाव वर्ष में रोजगार मेले जैसा तमाशा बनाकर इवेंट-प्रेमी मोदी जी की तरफ से वितरित किये जा रहे हैं।

इसके खिलाफ छात्र-युवा पिछले कई वर्षों से मोदी के जन्मदिन 27 सितंबर को #unemployment day ट्विटर स्टॉर्म कर रहे हैं। रेलवे भर्ती में विलंब और अनियमितताओं को लेकर प्रतियोगी छात्रों ने पिछले दिनों पटना से प्रयाग तक रेलवे tracks पर कब्जा कर लिया, जिन्हें भारी बल प्रयोग और दमन के बाद ही पुलिस खाली करवा सकी। 

पूरे देश में रोजगार के सवाल पर चल रहे तमाम आंदोलनों को राष्ट्रीय स्तर पर एकीकृत संगठित स्वर देने के लिए पिछले दिनों 100 से ऊपर छात्र-युवा संगठनों ने संयुक्त युवा मोर्चा का गठन किया। इस पहल को नागरिक समाज की तमाम प्रमुख लोकतान्त्रिक हस्तियों और अर्थशास्त्रियों का समर्थन और संरक्षण हासिल है। रोजगार के अधिकार की कानूनी गारंटी को मंच ने अपना केंद्रीय नारा बनाया है। 

हिन्दूराष्ट्र, जिसके core में ब्राह्मणवादी मूल्य हैं, के प्रोजेक्ट की सबसे बदतरीन मार सदियों से उत्पीड़न के शिकार वंचित और हाशिये के तबकों पर पड़ी है। सरकारी नौकरियों के खात्मे, आरक्षण पर डाकाज़नी, शिक्षा-स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण आदि के माध्यम से सामाजिक न्याय को अलविदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इसके ख़िलाफ़ मोदी सरकार को दलित नौजवानों के राष्ट्रव्यापी आक्रोश का सामना करना पड़ा था, जो SC-ST एक्ट को dilute किये जाने के सवाल पर फूट पड़ा था। इसमें कई युवा मारे गए थे और अनेक आज भी जेल में हैं, लेकिन अंततः सरकार को पीछे हटना पड़ा था।

एक ओर आदिवासी राष्ट्रपति की प्रतीकात्मकता है, दूसरी ओर आदिवासी इलाके कॉरपोरेट लूट और बर्बर सरकारी हिंसा के आखेट स्थल बने हुए हैं। Forest Rights Act का खुला उल्लंघन करते हुए उनके जल-जंगल-जमीन पर कब्जा हो रहा है। आज नए संसद भवन के उद्घाटन के स्वाभाविक अधिकार से वंचित करके उस राष्ट्रपति का भी अपमान किया जा रहा है। 

दो-दो बार प्रचंड बहुमत की सरकार के बावजूद महिला आरक्षण बिल पास करवाने में मोदी सरकार ने कोई रुचि नहीं ली। मोदी के “बेटी बचाओ” नारे के खोखलेपन और उसके अंदर छिपे खतरनाक पुरुष-सत्तावादी हिंसा का इससे बड़ा सुबूत क्या हो सकता है कि ओलंपिक पदक विजेता बेटियां नए संसद के उद्घाटन के दिन आज वहां अपनी अस्मत-मर्यादा की रक्षा के लिए प्रदर्शन-आंदोलन को मजबूर हैं और उनके समर्थन में उतरे लोग गिरफ्तार किए जा रहे हैं।

मोदी राज के 9 सालों में देश की सारी सम्पदा वैश्विक पूंजी और कॉरपोरेट धनकुबेरों के सामने नीलामी के लिए खोल दी गयी और चहेते घरानों के हवाले कर दी गयी। अडानी प्रकरण की जांच से भागकर सरकार ने खुद ही अपनी संलिप्तता पर मुहर लगा दी है।

इस अंधाधुंध लूट के फलस्वरुप भारत आज दुनियां की सर्वाधिक गैर-बराबरी वाला देश बन गया है। बेरोकटोक निजीकरण द्वारा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं को गरीबों की पहुंच के बाहर कर दिया गया है। मीडिया तो पहले ही सरकारी भोंपू बन गया था, अब शिक्षा व्यवस्था को भी NEP के माध्यम से हिंदुत्व के प्रोपेगंडा में तब्दील किया जा रहा है।

मोदी-शाह के 9 साल की “उपलब्धियों” पर mandate न  “9 साल बेमिसाल” की फर्जी जुमलेबाजी दे सकती, न  मनमानी  “मन की बात” ! उसका फैसला तो देश की सवा सौ करोड़ भुक्तभोगी जनता करेगी।

कभी धूमिल ने कहा था,

“लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, 

उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।”

और वह जनता पिछले 9 साल से अपने-अपने अनगिनत आंदोलनों की भाषा में मोदी-राज के सच का बयान कर रही है। आशा की जानी चाहिए, पिछले 9 साल में भारतीय समाज के जिन तमाम तबकों/वर्गों/अस्मिताओं को रौंदा गया, जिन अनगिनत आकांक्षाओं को कुचला गया, उन सबकी संचित आह और आक्रोश का विराट rainbow coalition आने वाले दिनों में इस बर्बर तानाशाह गिरोह को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखायेगा। कर्नाटक ने इसकी झलक दिखा दी है।

(लाल बहादुर सिंह,पूर्व अध्यक्ष, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छत्रसंघ।)

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