देश-दुनिया की नजरें चंद्रयान-3 को लेकर आ रही सूचनाओं पर टिकी हैं। इसलिए नहीं कि इसका संबंध भारत के राष्ट्रीय गौरव और भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान की एक असाधारण उपलब्धि से जुड़ा है। इसलिए कि मानवजाति के लिए यह काफी महत्वपूर्ण क्षण है। चंद्रयान-3 को चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्ध में 70 डिग्री अक्षांश रेखा के पास उतारने का लक्ष्य लिया गया है। भौगोलिक दृष्टि से पृथ्वी पर अंटार्कटिका महाद्वीप के समतुल्य इस इलाके में अपना यान उतारने का प्रयास भारत के अलावा अभी तक केवल रूस ने किया है, और उसका यान लूना-25 अभी तीन दिन पहले 19 अगस्त को ‘थ्रस्टर कमांड’ फेल हो जाने के चलते उतराई वाली कक्षा में पहुंचने के क्रम में ही नष्ट हो गया।
निस्संदेह, यह बहुत कठिन काम है। तकनीकी रूप से फिलहाल संसार के कठिनतम कामों में से एक। चंद्रयान-3 अभी उस मुकाम को पार कर चुका है, जहां पहुंचने की प्रक्रिया में लूना-25 दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। कक्षाएं बदलने का काम उसके साथ बखूबी हो पा रहा है। लेकिन अभी वह चंद्र सतह से न्यूनतम 25 किलोमीटर और अधिकतम 134 किलोमीटर दूरी वाली कक्षा में है, जो 30 किलोमीटर गुणे 100 किलोमीटर वाली उसकी निर्धारित उतराई कक्षा से सिर्फ एक कदम दूर कही जाएगी।
असल चीज है बदलने वाली कक्षाओं का स्थायी बने रहना। रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉस्मॉस से उसी में चूक हो गई। यान की कक्षा अस्थिर हो गई, जो बहुत बड़ी चूक कही जाएगी। उसके अध्यक्ष यूरी बोरिसोव का बयान गौरतलब है कि ‘1976 तक इस काम में जो महारत हमें हासिल थी, उसे हम गंवा बैठे हैं।’
ध्यान रहे, चंद्रमा पर मानवरहित यान उतारने के मामले में रूसी एक समय बेजोड़ हुआ करते थे। अमेरिका से भी एक कदम आगे। अमेरिकियों ने वहां सीधे अपने बूट रख दिए इसलिए हर तरफ उनकी जय-जयकार होने लगी, लेकिन सोवियत संघ ने बिना किसी पायलट के 1966 से 1976 के बीच अपने नौ यान चंद्रमा पर उतारे थे। एक सक्षम वैज्ञानिक ढांचा खड़ा करने में बड़ी मेहनत लगती है, लेकिन नष्ट तो वह अपने आप हो जाता है। इसके लिए किसी को कुछ भी करने की जरूरत नहीं होती। सोवियत संघ के विघटन के बाद बने 15 देशों में एक रूस भूगोल, आर्थिक शक्ति और हथियारों में भले ही बाकी 14 पूर्व-सोवियत देशों से बड़ा हो लेकिन स्पेस साइंस जैसा क्षेत्र, जो सीधे पैसे कमाकर नहीं देता, उसकी वैज्ञानिक और तकनीकी कमजोरी का एहसास कराने के लिए काफी है।
बहरहाल, रूसी वैज्ञानिक ढांचे की सबसे अच्छी बात यह है कि उसके नेतृत्व ने एक दिन के अंदर ही मान लिया कि उसका यान नष्ट हो गया है और मिशन लूना-25 फेल हो गया है। हमारे यहां तो चंद्रयान-2 की विफलता के बाद लंबे समय तक कोई यह मानने को ही तैयार नहीं हुआ। पता नहीं किस समझ के तहत एक बयान ऐसा जारी हुआ, जो सब जगह छपा भी कि हमारा यान चंद्र-सतह पर सकुशल उतर गया है, लेकिन वहां वह थोड़ा तिरछा खड़ा है, लिहाजा ठीक से सिगनल नहीं भेज पा रहा। और तो और, यान के मलबे की शिनाख्त भी इसरो की ओर से नहीं की जा सकी। पहले ऐसा कोई विदेशी बयान आया, फिर एक शौकिया निजी अध्येता ने मलबा दिखने की पुष्टि की।
बीती आधी सदी से अंतरिक्ष विज्ञान में भारत का मजबूत दखल रहा है। हमारे इसरो की ख्याति पूरी दुनिया में कमखर्ची की श्रेष्ठतम विशेषज्ञता वाले एक धुर-प्रोफेशनल तकनीकी संगठन की है। ऐसे में एक समाज के तौर पर भी इतनी प्रौढ़ता हमें दिखानी चाहिए कि चंद्रमा की खोजबीन जैसे सीमावर्ती वैज्ञानिक क्षेत्र में अपनी सफलता पर हम गरिमा के साथ खुशी जताएं और विफलता को उसके समूचे ब्यौरों के साथ अंगीकार करते हुए, उससे सीखते हुए वहां से आगे बढ़ने का प्रयास करें। इसमें कोई शक नहीं कि इसरो ने चंद्रयान-2 की नाकामी से काफी कुछ सीखा है और चंद्रयान-3 के मिशन को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन जैसा ऊपर कहा जा चुका है, यह बीड़ा किसी ने दुनिया में पहली बार ही उठाया है, लिहाजा इसे एक वैज्ञानिक प्रयोग की तरह ही देखना चाहिए।
काम के ब्यौरे में जाएं तो उतराई से ठीक पहले चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर लगभग 6 हजार किलोमीटर प्रति घंटे (1.86 किलोमीटर प्रति सेकंड) की रफ्तार से आड़ी हालत में उड़ रहा होगा, जबकि चंद्रमा की सतह पर उतरने से पहले हर हाल में इसे खड़ी हालत में होना चाहिए और मशीनों की सुरक्षा की दृष्टि से सतह छूते वक्त ऊपर से नीचे की तरफ इसकी रफ्तार लगभग शून्य होनी चाहिए। इस काम को चार चरणों में संपन्न किया जाना है।
सतह छूने के समय को जीरो टाइम मान लें तो उतराई की शुरुआत सतह से 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर ठीक 14 मिनट 35 सेकंड पहले होनी है। लैंडर में कुल 12 रॉकेट उलटी दिशा में लगे हैं। यानी उनका काम लैंडर की रफ्तार बढ़ाने का नहीं, उसे धीमा करने या उसकी दिशा बदलने का है। एक चलन इन्हें ‘रिवर्स रॉकेट’ कहने का भी रहा है। इनमें 740 न्यूटन का अधिकतम बल लगा सकने वाले चार रॉकेट पूरी तरह ब्रेक लगाने के लिए हैं जबकि आठ रॉकेट दिशा बदलने के लिए हैं। न्यूटन बल की माप है। 1 किलोग्राम वजन को 1 सेकंड में एक मीटर प्रति सेकंड की गति दे सकने वाला बल। यहां मामला गति देने का नहीं, घटाने का है, लेकिन यह बल की दिशा से जुड़ी बात है।
पहले चरण को ‘रफ ब्रेकिंग’ का नाम दिया गया है और इसके तहत साढ़े ग्यारह मिनट में लैंडर की रफ्तार छह हजार किलोमीटर प्रति घंटे से घटाकर 1290 किलोमीटर प्रति घंटे कर दी जानी है। यह काम उतराई वाली जगह से 745.5 किलोमीटर पहले शुरू होगा और उतराई से 32 किलोमीटर पहले रफ ब्रेकिंग का यह चरण पूरा हो जाएगा। लैंडर इस समय सतह से 7.42 किलोमीटर की ऊंचाई पर होगा।
अगले तीन मिनट महीन कामों के लिए समर्पित होंगे। याद रखने की बात है कि चंद्रयान-2 में गड़बड़ी इन्हीं तीन मिनटों की शुरुआत में, ‘अटीट्यूड होल्ड’ वाले दूसरे चरण में आई थी, जो मात्र 10 सेकंड का होना है। दरअसल यह तीसरे चरण ‘फाइन ब्रेकिंग फेज’ के लिए तैयारी का है, जिसमें यान को आड़ी से खड़ी हालत में लाने के लिए 55 डिग्री घुमाना होता है। चंद्रयान-2 के साथ ‘अटीट्यूड होल्ड’ वाले चरण में ही कुछ ऐसा हुआ कि वह 55 डिग्री के बजाय 410 डिग्री घूम गया। यहां 410 डिग्री घूमने का मायने समझना होगा।
410 डिग्री, यानी 360 डिग्री और 50 डिग्री। इसमें 360 डिग्री का मतलब है एक पूरी कलाबाजी खा जाना, फिर 50 डिग्री और। एक तेज रफ्तार मानवरहित यान के कलाबाजी खाने का सीधा अर्थ है उसका अनियंत्रित हो जाना। ऐसा इस बार न हो, यह सुनिश्चित करने का काम कंप्यूटर का ही रहने वाला है, क्योंकि पृथ्वी से चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्थ में 70 डिग्री अक्षांश रेखा पर फुलप्रूफ कमांड दे पाना ऑर्बिटर की मध्यस्थता में भी संभव नहीं है।
आखिरी चरण ‘टर्मिनल डिसेंट’ का होना है, जब लैंडर अपनी उतरने की जगह से ठीक ऊपर होगा और उसकी ऊंचाई 800 से 1300 मीटर होगी। यहां से नीचे आते वक्त 150 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचकर लैंडर के पास एक मौका रहेगा कि वह अपनी उतराई की जगह की पड़ताल और बेहतर तरीके से कर ले। लैंडर के पांव एडजस्टेबल हैं, पर उसकी बनावट अधिकतम 12 डिग्री तक का तिरछापन बर्दाश्त करने लायक ही है। उतराई की जगह अगर बहुत ज्यादा ऊबड़-खाबड़ हुई तो उतराई की निर्धारित जगह से अधिकतम 150 मीटर की परिधि में ही कोई ज्यादा बेहतर जगह तलाश लेने का मौका उसके पास होगा।
जमीन से 10 मीटर ऊपर और 9 सेकंड पहले रिवर्स रॉकेट बंद हो जाएंगे। हालांकि उनके लगाए हुए थ्रस्ट का इतना असर तब भी रहेगा कि लैंडर पत्थर की तरह नीचे नहीं आएगा। सतह छूते वक्त अधिकतम 3 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार लैंडर की मशीनरी झेल सकती है, लेकिन इसरो की योजना इसको मात्र 1 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से लैंड कराने की है। कुछ साल पहले यूरोपियन स्पेस एजेंसी का एक यान नौ महीने मंगल की यात्रा करने के बाद सिर्फ दस मीटर की ऊंचाई से गिरकर नष्ट हो गया था, लिहाजा आखिरी सेकंड तक यान को काबू में रखना जरूरी है।
चंद्रयान-2 की नाकामी के अध्ययन से चंद्रयान-3 की बनावट में बहुत सारे सुधार किए गए हैं। खास तौर पर इसका गाइडेंस सिस्टम पहले से बहुत बेहतर बताया जा रहा है। फिर भी दोहराना जरूरी है कि यह बहुत कठिन काम है और कुछ अज्ञात, अप्रत्याशित पहलू भी इससे जुड़े हुए हैं। उतराई का काम काफी कुछ बारह रॉकेटों के सटीक नियंत्रण पर निर्भर करता है। इसके लिए चुनी हुई जगह का खाका पहले की तुलना में बहुत स्पष्ट है, क्योंकि चंद्रयान-2 के ऑर्बिटर ने बहुत ब्यौरे के साथ इसकी नक्शानवीसी कर रखी है। फिर भी चार लाख किलोमीटर दूर से की गई इस नक्शानवीसी की सीमा यह है कि पांच-सात फीट तक की ऊंचाई या गहराई इसकी पकड़ में नहीं आती।
इसरो की तरफ से कहा गया है कि 23 अगस्त को उतराई शुरू करने या न करने का फैसला वे दो घंटे पहले करेंगे। कोई समस्या दिखने पर कुछ दिन के लिए इसे टाला जा सकता है, हालांकि कुल चौदह दिन के एक चंद्र-दिन में तब लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान के पास प्रयोगों के लिए समय कम रह जाएगा। कुल मिलाकर हम एक महान वैज्ञानिक प्रयोग के साक्षी बनने जा रहे हैं। बेहतर होगा कि प्राचीन जातीय महानता और राष्ट्रीय गौरव का पट्टा थोड़ी देर के लिए निकाल कर एक तरफ रख दें और जितना भी हो सके, इस प्रयोग के ब्यौरों में जाएं, इस क्षण को जीएं।
(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।)
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