Friday, March 29, 2024

संघर्ष का टेम्पलेट जो किसान आंदोलन ने दिया है

संयुक्त किसान मोर्चा ने 378 दिन के बाद अपने आंदोलन को स्थगित करते हुए कहा कि ‘लड़ाई जीत ली गई है, लेकिन किसानों के हक-खास कर एमएसपी को किसानों के कानूनी अधिकार के रूप में हासिल करने का युद्ध जारी रहेगा।’ अब रद्द हो चुके तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए इस आंदोलन ने इस वाक्य में अपनी सफलता और बाकी रह गए अपने लक्ष्य- दोनों को सटीक ढंग से व्यक्त किया है। चूंकि आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण मकसद बाकी रह गया है, इसीलिए संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन को वापस लेने या खत्म करने के बजाय इसे ‘स्थगित’ करने की घोषणा की है। बहरहाल, जितना कुछ इस आंदोलन ने हासिल किया, जिस तरह इसे चलाया गया, और जैसी परिपक्व राजनीतिक समझ इसके नेतृत्व ने दिखलाई है, उसके आधार पर यह संभव है कि इस आंदोलन के ऐतिहासिक और व्यापक महत्त्व को अब रेखांकित किया जाए। दरअसल, ऐसा करने का यह माकूल समय है।

बात की शुरुआत में उचित यह होगा कि पहले यह देखा जाए कि आंदोलन की कामयाबियां क्या रहीं और किन बिंदुओं पर यह अपनी मांग मनवाने में सफल नहीं हो सका।

●         आंदोलन का मौजूदा दौर तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुआ था। इस आंदोलन ने केंद्र की मौजूदा भारतीय जनता पार्टी सरकार को इन कानूनों को रद्द लेने पर मजबूर कर दिया। इसमें आंदोलन पूरी तरह सफल रहा।

●         आंदोलन के दौरान किसानों पर अलग-अलग राज्यों में हजारों मुकदमे दर्ज किए गए थे। आंदोलन की मांग थी कि सरकारें उन्हें वापस लें। यह मांग मनवाने में आंदोलन सफल रहा। (लिखित रूप से यह मांग मानने के बाद अगर सरकारें या कोई राज्य सरकार बाद में मुकर जाए, तो वो दीगर बात होगी।)

●         कृषि पैदावार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी करने के लिए कानून बने, यह मांग तीन विवादित कृषि कानूनों को बनाए जाने से पहले से थी। उसके लिए 2017 से आंदोलन चल रहा था। संयुक्त किसान मोर्चा ने उसे अपनी एक प्रमुख मांग के रूप में अपना लिया था। ये मांग मौजूदा आंदोलन अब तक नहीं मनवा पाया है। सरकार ने एमएसपी के बारे में एक समिति बनाने का वादा किया है। लेकिन उसने जो पत्र संयुक्त किसान मोर्चा को दिया, उसमें कहा गया है कि वो कमेटी इस पर विचार करेगी कि ‘किसानों को एमएसपी मिलना किस तरह सुनिश्चित किया जाए।’ यानी साफ तौर पर कानून बनाने का वादा सरकार ने नहीं किया है। उसने मोर्चा की ये मांग भी नहीं मानी है कि प्रस्तावित समिति में किसानों के प्रतिनिधि के रूप में सिर्फ संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े नेता शामिल किए जाएं।

●         सरकार ने प्रस्तावित बिजली बिल को वापस लेने की मोर्चा की मांग नहीं मानी है। उसने सिर्फ इतना आश्वासन दिया है कि इस बारे में मोर्चा से ‘चर्चा के बाद’ ही विधेयक को संसद में पेश किया जाएगा।

●         आंदोलन के दौरान शहीद हुए 700 से अधिक किसानों को मुआवजे की मांग पर भी सरकार ने अस्पष्ट आश्वासन दिया है। पंजाब की कांग्रेस सरकार ने मृत किसानों के परिवार को पांच लाख रुपए की सहायता और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का आदेश जारी कर दिया है। मोर्चा ने बाकी राज्यों में भी इसी मॉडल पर अमल की मांग की थी। लेकिन केंद्र ने जो पत्र भेजा, उसमें कहा गया है कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा ने इस बारे में सैद्धांतिक सहमति दे दी है। जबकि मुआवजा देने की जिम्मेदारी केंद्र को स्वीकार करनी चाहिए थी। वैसे भी सैद्धांतिक सहमति एक अस्पष्ट शब्द है।

●         पराली जलाने के मामले में मोर्चा की मांग सरकार ने पहले ही स्वीकार कर ली थी। मांग यह थी कि पराली जलाने को आपराधिक गतिविधि मानने का प्रावधान रद्द किया जाए।

●         संयुक्त किसान मोर्चा की एक प्रमुख मांग थी कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय टेनी को उनके पद से हटाया जाए, जिनके बेटे पर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में अपनी जीप से किसानों को कुचल देने का आरोप है। सरकार ने यह मांग नहीं मानी है। ऐसा लगता है कि मोर्चा ने भी इस मांग पर जोर नहीं दिया।

इस पूरी तस्वीर पर नजर रखते हुए यही कहा जा सकता है कि विवादित कृषि कानूनों के रद्द होने के बाद बाकी मांगों पर केंद्र सरकार और मोर्चा ने बीच के बिंदु की तलाश की। दोनों पक्षों ने रियायत दी। इसी नजरिए से वे सहमति के एक बिंदु पर पहुंचे। क्या सभी मांगें मनवाए बिना आंदोलन स्थगित करने को किसान आंदोलन का झुकना कहा जाएगा? सरसरी तौर पर ऐसा महसूस हो सकता है। लेकिन राजनीतिक आंदोलनों के क्रम में- खास कर प्रतिरोध अगर एक लोकतांत्रिक दायरे में चल रहा हो, तो यह संभव नहीं होता कि सौ फीसदी कामयाबी के बाद ही किसी आंदोलन को (स्थगित या) वापस लिया जाए। असल प्रश्न यह होता है कि आंदोलन ने प्रभाव क्या छोड़ा? उसके ठहरने के बाद धारणा क्या बनी? कुल मिलाकर धारणा उसकी सफलता की बनी या विफलता की? इस बिंदु पर बेशक यह कहा जा सकता है कि कामयाबी के एक खास मुकाम पर पहुंचने के बाद संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने आंदोलन को फिलहाल विराम दिया है। इसके साथ ही आगे उसने संघर्ष के विकल्प खुले रखे हैं।

यह कामयाबी क्या है, इसे समझने के लिए जरूरी है कि इस पर गौर किया जाए कि रद्द हुए तीन कृषि कानूनों (और बिजली विधेयक) के पीछे आखिर सरकार का इरादा क्या था? उसने किस नीतिगत दायरे में ये पहल की? इन कानूनों से असल फायदा किसको होता? इस बिंदु पर कुल मिला कर समझने की बात वह राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) है, जो देश में 1991 में अपनाई गई आर्थिक नीतियों के बाद देश में मजबूत हुई है, और भारतीय जनता पार्टी जिसकी सबसे मजबूत प्रतिनिधि के रूप में उभर कर सामने आई है। तो आइए देखें कि अगर कृषि कानून लागू हो जाते, तो उससे क्या होताः

●         कृषि में सरकार (यानी सार्वजनिक क्षेत्र) की भूमिका पूरी तरह खत्म हो जाती। देर-सबेर मंडी सिस्टम खत्म हो जाता, जिससे एमएसपी पर किसानों की पैदावार खरीदने का मौजूदा चलन समाप्त हो जाता। उसके बाद किसान पूरी तरह प्राइवेट सेक्टर (यानी पूंजीपतियों) पर आश्रित हो जाते, जो फसलों की कीमत को अपने अधिकतम मुनाफे के लिहाज से घटाते या बढ़ाते।

(इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि क्षेत्र से भी अपने हाथ खींचने की शुरुआत सरकार ने 1991 के बाद ही कर दी थी। तब से आज तक कई प्रकार की कृषि सब्सिडी घटते हुए शून्य हो चुकी है।)

●         सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) समाप्त हो जाता।

(ध्यान में रखने की बात है कि 1991 के बाद ही इसके यूनिवर्सल स्वरूप को खत्म कर इसे लक्ष्य केंद्रित (टारगेटेड) कर दिया गया था। यह एक तरह से इसे समेटने की ही शुरुआत थी)

●         किसान अपनी मर्जी या अपने उपभोग के लिए खेती करने के बजाय कॉरपोरेट सेक्टर की प्राथमिकताओं के मुताबिक फसल उगाने को मजबूर हो जाते। यह उपनिवेशवाद के दौर की वापसी जैसा होता, जब अंग्रेज अलग-अलग क्षेत्रों के किसानों को नील, चाय, या अफीम जैसी फसलों की खेती करने के लिए मजबूर करते थे। जिस देश में 80 फीसदी से ज्यादा किसान ढाई एकड़ से कम जमीन के मालिक हों, वहां कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का यह रूप लेना लगभग तय ही था।

●         अनाज का पूरा बाजार कॉरपोरेट सेक्टर के उस हिस्से के हाथ में चला जाता, जो जमाखोरी करते हुए अनाज के मूल्य को अपने ढंग से तय (manipulate) करता।

अगर कुल मिला कर अर्थशास्त्र की भाषा में कहें, तो किसान अपनी जमीन, अपने निवेश और अपनी मेहनत से जो मूल्य (value) पैदा करते हैं, उसके अधिकतम हिस्से की कॉरपोरेट सेक्टर (बल्कि कॉरपोरेट मोनोपॉली) के हाथ में ट्रांसफर की प्रक्रिया बेहद तेज हो जाती। मार्क्सवादी शब्दावली में कहें, तो यह आधुनिक दौर के primitive accumulation की एक स्पष्ट मिसाल होती।

दरअसल, इस तरह का मूल्य ट्रांसफर (primitive accumulation) 1991 में अपनाई गई ऩव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में पहले से ही हो रहा है। ये समस्या सिर्फ कृषि क्षेत्र की नहीं है। बल्कि उद्योग, सेवा, व्यापार, आदि क्षेत्रों में भी इसकी मिसालें साफ देखी जा सकती हैं। ये प्रक्रिया क्रमिक रूप से तेज हुई है। रद्द हुए कृषि कानून या बिजली बिल इसी प्रक्रिया का अगला मुकाम रहे हैं। यह एक वैश्विक प्रक्रिया है। इसकी गति सिर्फ तब धीमी हुई थी (या एक हद तक ठहरी थी) जब सरकारों (पब्लिक सेक्टर) ने अर्थव्यवस्था में अपना दखल बढ़ाया था। तब पब्लिक सेक्टर में पूंजी और धन का जो निर्माण हुआ, वह एक काउंटर बैलेंस था। पब्लिक सेक्टर को खत्म करने की मुहिम के साथ मोनोपॉली कैपिटल (इजारेदार पूंजी) का उभरना और मूल्य उत्पन्न करने के बाकी तमाम स्रोतों पर उसका कब्जा जमाने की कोशिश करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है।

भारत में इस प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए इजारेदार पूंजी ने सांप्रदायिकता की आड़ ली है। इसीलिए उसने उस पार्टी को अपनी ढाल बनाया है, जो सांप्रदायिक विद्वेष का माहौल बना कर अर्थव्यवस्था के असली चरित्र पर परदा डाले रखने में सबसे ज्यादा सक्षम है।

मौजूदा दौर का किसान आंदोलन 2017 में तेजी से उभरा। उस समय उसकी दो मांगें थीः स्वामीनाथन फॉर्मूले के मुताबिक एमएसपी की गारंटी करना, और संपूर्ण कर्ज माफी। ये मांगें पूरी नहीं हुईं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि 2019 के आम चुनाव में किसान जानबूझ कर देश में बनाए गए उग्र राष्ट्रवादी माहौल और सांप्रदायिक नफरत का शिकार हो गए। तब उन्होंने अपनी फसलों की वाजिब कीमत ना मिलने और अपनी बढ़ती बदहाली के मूलभूत कारण को समझने में विफल रहे। ये नाकामी उन्हें बहुत महंगी पड़ी। सांप्रदायिक भावावेश पैदा करने की अपनी महारत और सालाना छह हजार रुपए की ‘खैरात’ देकर किसानों को खुश करने की सफलता से बीजेपी सरकार का आत्म-विश्वास इस हद तक बढ़ा कि उसने अपने नए कार्यकाल में कृषि कानून बनाए और बिजली बिल प्रस्तावित किया।

अगर यह फॉर्मूला एक बार फिर सफल हो जाता, तो इजारेदार पूंजी के हक में मूल्य ट्रांसफर (primitive accumulation) की गति तीव्र करने की जिस राह पर बीजेपी सरकार चल रही है, उसमें कोई ब्रेक नहीं लगता। नोटबंदी, जीएसटी, कॉरपोरेट टैक्स में एक लाख 45 हजार करोड़ रुपये की छूट, पेट्रोल-डीजल की अनियंत्रित कीमत, सार्वजनिक कंपनियों की बिक्री, स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी जरूरी सेवाओं का उत्तरोत्तर निजीकरण आदि सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं। ये गौरतलब है कि जो जन समूह इस प्रक्रिया से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं, उनमें से किसी ने दृढ़ संकल्प के साथ और संगठित रूप से इसका विरोध नहीं किया है।

अगर पूरी दुनिया पर ध्यान दें, तो ये परिघटना लगभग हर उस जगह दिखेगी, जहां नव-उदारवादी नीतियों को पूरी तरह से अपना लिया गया। आज दुनिया में ऐसे गिने-चुने देश ही हैं, जहां ये नीतियां बेरोक-टोक नहीं चल रही हैं। इन नीतियों का ही परिणाम गैर-बराबरी और गरीबी में हुई वो बढ़ोतरी है, जिसका विस्तृत ब्योरा हाल में जारी हुई वर्ल्ड इनइक्वेलिटी रिपोर्ट (विश्व विषमता रिपोर्ट) से सामने आया है। हकीकत यह है कि इन नीतियों ने दुनिया की विद्रूपता बढ़ा दी है, इसके बावजूद इसके विरोध की कोई प्रभावी सूरत अब तक कहीं नहीं उभर सकी है।

कई देशों में वहां की जनता ने इन नीतियों पर लगाम लगाने की कोशिश में चुनावों के जरिए उन पार्टियों को सत्ता सौंपी, जो खुद को वामपंथी बताती हैं। लेकिन कई लैटिन अमेरिकी देशों में सत्ता में आने के बाद जब इन पार्टियों ने नीतिगत बदलाव की पहल की, तो वहां के शासक तबकों, उनसे नियंत्रित मीडिया, और वैश्विक पूंजी ने उनका काम करना मुश्किल कर दिया। ये सब मिल कर ज्यादातर मौकों पर उन सरकारों को पंगु बनाने या उन्हें सत्ता से हटा देने में सफल रहे। वेनेजुएला और बोलिविया जैसे कुछ गिने-चुने देश ही इसका अपवाद हैं।

उधर पश्चिमी देशों में अनुभव यह रहा है कि खुद को वामपंथी कहने वाली पार्टियां अपनी वास्तविक सोच में इन नीतियों से पूरा इत्तेफाक रखती हैं। वे उसी पूंजी से नियंत्रित और संचालित होती हैं, जिनसे दक्षिणपंथी पार्टियां होती हैं। इसलिए इन देशों में वामपंथ और दक्षिणपंथ की परिभाषा ही बदल दी गई है। वहां इन शब्दों को सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के क्रम में समझा जाने लगा है। मसलन, नस्लभेद, स्त्री अधिकार, समलैंगिकों के अधिकार, शरणार्थियों के प्रति नीति, जलवायु परिवर्तन के प्रति समझ- आदि उन दोनों की पहचान तय करने में निर्णायक पहलू हो गए हैं। आर्थिक या वर्गीय समझ इस बहस से गायब हो गई है।

और ऐसा अनायास नहीं हुआ है। बल्कि नव-उदारवाद का प्रसार ही अस्मिता की राजनीति (identity politics) को प्रोत्साहित करते हुए हुआ। इसका दूसरा वाहन उपभोक्तावाद रहा है, जिसके जरिए लोगों की सामूहिक सोच को खंडित कर व्यक्तिवादी (atomised) भावनाओं की जड़ें गहरी की जा सकी हैं। अब अगर हम अपना ध्यान फिर से भारत पर केंद्रित करें, तो क्या यह सच नहीं है कि 1990 के दशक में नव-उदारवाद, identity politics, और atomised thinking साथ-साथ समाज और राजनीति में हावी हुए? अमेरिका में बिना आर्थिक सवालों को चर्चा में लाए ब्लैक समुदाय को प्रतिनिधित्व देने की नीतियों को वहां के सोशलिस्ट विचारकों ने neo-liberal management of race contradictions कहा है। क्या भारत में identity  से जुड़े विभिन्न प्रकार के अंतर्विरोधों के ऐसे neo-liberal management की मिसालें ढूंढनी मुश्किल हैं?

मौजूदा किसान आंदोलन की अहमियत तय करते हुए हमें इस पूरे ऐतिहासिक, वैश्विक, और सामाजिक परिवेश को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। 2017 में शुरू हुआ किसान आंदोलन 2019 में आकर इस परिवेश से बनी खाई में गिर गया था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि इस बार वह दुनिया को नव उदारवादी नीतियों और उसके परिणामस्वरूप लगातार मजबूत होते गए इजारेदार पूंजीवाद (monopoly capitalism) से संघर्ष का एक टेम्पेलेट (नमूना) देने में सफल हुआ है।

आम जनता के स्तर पर पैदा होने वाले मूल्य के अधिक से अधिक हिस्से को इजारेदार पूंजीपतियों को ट्रांसफर करने की निर्बाध राह तैयार कर रही बीजेपी सरकार के आगे वह एक ऐसा ब्रेक लगाने में सफल रहा है, जिसका आरंभ में अनुमान लगाना मुश्किल था। इस रूप में उसने एक कारण दिया है, जिससे लोग अपने बदहाल होने की अवश्यंभाविता (fatalism) की मजबूत होती गई सोच पर पुनर्विचार कर सकें। गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में ऐसी सोच सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में काफी मजबूत हो चुकी है। इसी सोच के तहत कहा जाता है कि इन नीतियों का कोई विकल्प नहीं है (TINA- There is No Alternative).

इसीलिए भारत का वर्तमान किसान आंदोलन ऐतिहासिक महत्त्व का है। चूंकि इसका संदर्भ उन नीतियों से है, जो दुनिया भर में फैली हुई हैं, इसलिए इस आंदोलन (और उसकी सफलता) का महत्त्व विश्व-व्यापी भी है। इस आंदोलन का सबक है कि जिन नीतियों और कानूनों के पीछे बेहद मजबूत निहित स्वार्थों के हित हैं, उन्हें आसानी से परास्त नहीं किया जा सकता। लेकिन दृढ़ संकल्प और आर-पार की लड़ाई का इरादा हो, तो उन्हें परास्त करना असंभव नहीं है। किसान आंदोलन ने यह संदेश दिया है कि नव-उदारवाद दुनिया का अंतिम मुकाम नहीं है। दुनिया में एक फीसदी लोग अधिकांश संपत्ति के मालिक बने रहें और अपने ठीक नीचे के दस फीसदी लोगों की सहायता से सारी दुनिया को अपने मुनाफे में चलाते रहें, यह कोई तयशुदा बात नहीं है। इस पूरी परिघटना पर रोक लगाई जा सकती है। ऐसा कोई एक समूह भी कर सकता है, अगर वह अपने मूलभूत हितों की पहचान कर ले और उसमें वर्गीय चेतना पैदा हो जाए।

जाहिर है, अगर अलग-अलग समूह, जो अलग-अलग पेशों से जुड़े हुए हैं, लेकिन जो मौजूदा आर्थिक नीतियों की वजह से अपनी मेहनत की कीमत और अपने संसाधनों से वंचित होते जा रहे हैं, अगर वे अपने वर्गीय दोस्त और दुश्मन की पहचान कर लें, तो उनके साझा संघर्ष से इजारेदार पूंजी के बढ़ते वर्चस्व को न सिर्फ रोका जा सकता है, बल्कि ये ट्रेंड पलटा भी जा सकता है।

ये बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि किसान आंदोलन ने जाति, धर्म, और क्षेत्र के भेदों को भुलाते हुए ऐसी एकजुटता का परिचय दिया, जो भारत में अनूठा है। आंदोलन के नेतृत्व ने वर्तमान सरकार के वर्ग चरित्र की अनपेक्षित समझ दिखाई। उसने न्यायपालिका और कथित मेनस्ट्रीम मीडिया की सीमाओं की ठोस समझ विकसित की। उसने अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर केंद्रित रखा। इसीलिए वह एक लड़ाई (battle) को जीत सका है। वह उसका इसको लेकर आह्लादित ना होना, बल्कि यह स्वीकार करना कि अभी युद्ध (war) बाकी है, उसकी आज की वस्तुगत परिस्थितियों के प्रति ठोस अंतर्दृष्टि को जाहिर करता है।

अगर इस आंदोलन और इसके नेतृत्व की समझ से दूसरे उत्पीड़ित और लगातार वंचित हो रहे समूह सीख पाएं, तो बेशक भारत की तस्वीर बदलने की यहां से एक नई शुरुआत हो सकती है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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