दिल्ली विधानसभा चुनाव के जो नतीजे आये हैं, उनसे साफ है कि विचारधारा विहीन AAP पार्टी के एक दौर का अंत हो गया है। C वोटर के सर्वे से स्पष्ट है कि यद्यपि महिलाओं में आप को व्यापक समर्थन मिला, लेकिन पुरुषों, सामान्य वर्ग के लोगों, कारोबारियों, नौकरीपेशा लोगों, छात्रों, बेरोजगारों युवाओं और बुजुर्गों में मिले भारी समर्थन ने अंततः भाजपा की जीत का रास्ता साफ कर दिया।
महिलाओं में जहां आप को 50.7% मत मिला और भाजपा को 34.3%, वहीं पुरुषों में 51.4% भाजपा को तो आप पार्टी को 34.4% वोट मिलता दिखाया गया है। सामान्य वर्ग में भाजपा को 59.3%तो आप को मात्र 29.3% मत मिलने की बात है।
कारोबारियों में जहां 51.9% ने भाजपा को वोट दिया, वहीं 35.4% ने आप को वोट दिया। नौकरीपेशा लोगों में 56% लोगों ने भाजपा को वोट दिया, वहीं मात्र 30% ने आप को वोट दिया सबसे बड़ी बात यह कि छात्रों युवाओं बेरोजगारों में जहां 45% ने भाजपा को वोट दिया, वहीं 41% ने आप को वोट दिया, इसी तरह बुजुर्गों में यह फासला और ज्यादा रहा।
61साल से ऊपर के 52% लोगों ने जहां भाजपा को वोट दिया, वहीं महज 35% ने आप को वोट दिया।18 से 25 वर्ष की आयु ग्रुप में कुल 46%ने भाजपा को और मात्र 22% ने आप को वोट दिया।
द हिंदू में प्रकाशित आंकड़े के अनुसार आपसे पूरी तरह संतुष्ट लोगों की संख्या 28% थी, जबकि पूरी तरह असंतुष्टों की संख्या 28% थी। जबकि भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से पूरी तरह संतुष्टों की संख्या 42% थी और पूरी तरह असंतुष्टों की संख्या 18% थी।
25% लोगों का मानना था कि आप पार्टी के राज में भ्रष्टाचार बढ़ा है, 21% लोग बदलाव चाहते थे, 10% ने बेरोजगारी की समस्या को गंभीर बताया। सामाजिक आर्थिक विभाजन भी बड़ा स्पष्ट था। जहां समाज के निचले तबकों के एक हिस्से का रुझान आप की ओर था, वहीं ऊपरी तबकों का रुझान भाजपा की ओर था। दलितों में जहां 67% वाल्मीकि समुदाय का रुझान आप की तरफ था, वहीं 59% जाटव मतदाता आप के साथ रहे।
मुसलमानों में भारी नाराजगी के बावजूद 65% मुसलमानों ने आप पार्टी को वोट दिया, वहीं 16% ने कांग्रेस को और 15% ने भाजपा को वोट दिया। सवर्णों का बहुसंख्यक तबका जहां भाजपा के साथ रहा, वहीं नीचे के आधे हिस्से की अच्छी तादाद आप पार्टी के साथ रही।
अब यह साफ हो गया है कि महज 2.06% वोट के अंतर से भाजपा आप पार्टी को शिकस्त देने और उससे 26 अधिक कुल 48 सीटें पाकर सरकार बनाने में सफल रही। कांग्रेस पार्टी वोट प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी के बावजूद कोई सीट जीतने में सफल नहीं हुई। बसपा का ढलान जारी है, उसे मात्र 0 .57% मत मिला जो AIMIM के 0.77% से भी कम रहा जो पहली बार दिल्ली में चुनाव मैदान में उतरी थी।
जाहिर है इस परिणाम के पीछे अनेक कारण हैं। एंटी इनकंबेंसी तो थी ही, सबसे बड़ी बात केजरीवाल ने अन्ना आंदोलन के समय जो उम्मीदें जगाई थीं, अंततः दस साल बीतते उनकी कलई खुल गई।
अन्ना आंदोलन के समय वायदा किया गया था कि देश में इंकलाब शुरू हो गया है, लेकिन अब यह साफ हो गया है कि उस आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी न सिर्फ अन्य पार्टियों की तरह ही यथास्थितिवादी है, बल्कि सेकुलरिज्म जैसे मूल्यों को लेकर वह प्रतिक्रियावादी भूमिका में खड़ी रही।
दिल्ली दंगों के समय उसकी भूमिका शर्मनाक रही। उसके नेता उत्पीड़ित मुसलमानों के पक्ष में खड़ा होना तो दूर उनकी चोट पर मरहम लगाने तक नहीं गए। यही हाल शाहीन बाग आंदोलन को लेकर रहा। वे अमित शाह से भी ज्यादा तत्परतापूर्वक उस आंदोलन को कुचलने के दावे करते रहे। तब्लीगी जमात के लोगों द्वारा कोरोना फैलाए जाने की अफवाह को लेकर भी वे भाजपा से प्रतिस्पर्धा में उतर पड़े।
अपने को भाजपा से भी ज्यादा हिंदुत्वमय साबित करने के लिए सरकार लोगों को राम मंदिर की मुफ्त यात्रा करवाने लगी। अपने को सबसे बड़ा हनुमान भक्त साबित करने में तो केजरीवाल लगे ही थे, उन्होंने 22 जनवरी को पूरे दिल्ली में सुंदर कांड के पाठ करवाए। अंत आते-आते उन्होंने पुजारियों और ग्रंथियों को सरकारी खजाने से तनख्वाह का भी ऐलान कर दिया।
सबसे बड़ी बात यह कि जिस भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर केजरीवाल मसीहाई छवि के साथ सत्ता में आए थे, उस पर भी वे खरे नहीं उतर सके। गलत या सही शराब घोटाले में जो आरोप उनके ऊपर तथा उनके मंत्रियों पर लगे, उन्होंने भी उनकी छवि को क्षति पहुंचाई। लोगों में यह संदेश गया कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है।
आप पार्टी के पूर्व नेता पत्रकार आशुतोष ने एक्स पर लिखा- आम आदमी पार्टी तो उसी दिन ख़त्म हो गई थी जिस दिन इस पार्टी के लोग चार्टर्ड फ़्लाइट से चलने लगे, प्रेसिडेंशियल सूट में रहने लगे, अपने लिये शीश महल बनाने लगे, जेड प्लस सुरक्षा लेने लगे। चुनाव में कहने लगे कि हरियाणा ने दिल्ली में नरसंहार के लिए पानी में ज़हर मिला दिया। पत्रकारों को धमकाने लगे और मोदी की नक़ल पर पहले से प्रायोजित इंटरव्यू करने लगे। 8 तारीख को तो बस नतीजा निकला है।
ठीक इसी तरह अंबेडकर की फोटो लगाने के बावजूद जिस तरह उनकी प्रतिज्ञा पढ़ने मात्र पर मंत्री गौतम को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया, उसके साथ ही केजरीवाल का जो आरक्षण विरोधी अतीत था, यूथ फॉर इक्वलिटी के दिनों का उसे भी विरोधियों ने जनमानस में जगाया। कुल नेट परिणाम यह हुआ कि मुफ्त पानी बिजली और महिलाओं को बढ़ाकर 2100 ₹ मासिक देने के बावजूद गरीबों दलितों के वोट में भी घुसपैठ करने में भाजपा सफल रही।
भाजपा के पक्ष में सबसे बड़ा consolidation मध्य वर्ग में लगता है। चुनाव के ठीक पहले जिस तरह आठवें वेतन आयोग की घोषणा हुई और आयकर में छूट दी गई उसने निश्चित रूप से मध्य वर्ग को भाजपा के पक्ष में मोड़ने में भूमिका निभाई।
रही सही कसर इंडिया गठबंधन के बिखराव ने पूरी कर दी। बताया जा रहा है कि 13 ऐसी सीटें हैं जहां कांग्रेस और आप का वोट जोड़कर भाजपा से अधिक हो जाता है। इसका मतलब यह है कि अगर पर्याप्त समय पहले आप और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की अच्छी केमिस्ट्री बनी होती तो वे भाजपा के हाथ में दिल्ली जाने से बचा सकते थे।
लेकिन वह तो नहीं ही हुआ, उल्टे वे एक दूसरे पर बड़े से बड़े आरोप लगाते रहे जैसे एक दूसरे को ही वे अपना मुख्य दुश्मन मान रहे हों। आप ने भ्रष्ट नेताओं में गांधी परिवार की भी फोटो छाप दी, कांग्रेस ने इसी तरह उसका जवाब दिया। हरियाणा में कांग्रेस के छत्रपों ने आप से समझौता नहीं होने दिया तो दिल्ली में आप ने कांग्रेस से समझौता करने से इनकार कर दिया।
महाराष्ट्र पैटर्न पर भारी संख्या में जिस तरह नए मतदाता बनाए गए और पुराने मतदाताओं के नाम काट दिए गए उसने भी चुनाव में बड़ी भूमिका निभाई, जाहिर है चुनाव आयोग ने विपक्ष की शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
कुल मिलाकर विचारधाराविहीन pragmatic NGO राजनीति की दिल्ली में पराजय हुई है। इंडिया गठबंधन के सामने इस चुनाव ने बिल्कुल साफ कर दिया है कि एकजुट होकर स्पष्ट वैकल्पिक नीतियों के साथ जनता के मूलभूत सवालों पर व्यापक आंदोलन के बिना संघ भाजपा से, मोदी सरकार की राज्य मशीनरी, चुनाव आयोग, मीडिया की सम्मिलित ताकत से लड़ पाना और उन्हें शिकस्त दे पाना असंभव है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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