Thursday, March 28, 2024

अडानी समूह पर साल 2014 के बाद से हो रही अतिशय राजकृपा की जांच होनी चाहिए

2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार में आए तो सबसे पहला बिल, भूमि अधिग्रहण बिल लाया गया। विकास के नाम पर लाया गया बिल, पूरी तरह से पूंजीपतियों के हित में था। स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य आदि के नाम पर जैसे जटिल कर्मकांड से लोग ठगे जाते वैसे ही विकास के नाम पर चहेते पूंजीपतियों की संपत्ति वृद्धि का एक अघोषित और पोशीदा अभियान 2014 में सरकार बदलते शुरू हो गया था। हालांकि भूमि अधिग्रहण कानून पास नहीं हो पाया, पर सरकार के इरादों का संकेत, उस बिल ने दे दिया था।

उक्त बिल के बाद, दो साल पहले लाया गया तीन कृषि कानून भी, कृषि विकास के नाम पर लाए गए थे, पर किसानों के प्रबल विरोध के बाद उस कानून को जिसे तमाम संसदीय मर्यादाओं और परंपरा को ताक पर रख कर पास कराया गया था, सरकार को मजबूरी में रद्द करना पड़ा। चाहे 2014 का भूमि अधिग्रहण कानून हो अथवा 2021 के तीन किसान कानून, दोनों में सरकार की प्राथमिकता में पूंजीपति थे, न कि आम जनता।

यह एक दुर्भग्यपूर्ण स्थिति है कि काले धन, भ्रष्टाचार, पारदर्शिता, और छद्म विकास के गुजरात मॉडल के नाम पर आई सरकार ने, न तो काले धन को रोकने या विदेशों से वापस लाने, सिस्टम में भ्रष्टाचार को कम करने, पारदर्शिता को बनाए रखने,  जिसका वादा नरेंद्र मोदी 2014 के चुनाव के पहले अपनी हर मीटिंग में किया करते थे, उन मुद्दों पर कोई ठोस कार्यवाही करनी तो दूर की बात रही, इन बिंदुओं से संबंधित जो प्रचलित कानून थे, उन्हें भी भोथरा बनाया दिया गया।

साथ ही भ्रष्टाचार रोकने का एक आसान सा रास्ता यह निकाल लिया गया कि, भ्रष्टाचार के आरोपों की कोई जांच ही न की जाय। सीएजी संस्था की ऑडिट रिपोर्ट भी अब कम ही देखने को मिलती हैं। 

देश के सारे हवाई अड्डों को पीपीपी मॉडल के अंतर्गत निजी क्षेत्रों को सौंप दिए जाने की एक योजना सरकार द्वारा 2018 में लाई जाती है। इस योजना के क्रियान्वयन में देश के 6 हवाई अड्डों को निजी क्षेत्रों में सौंपने के लिए, 2019 में निविदा आमंत्रित की गई। अडानी समूह को यह हवाई अड्डे मिले, हालांकि अडानी समूह की बोली को लेकर, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग ने अपनी आपत्तियां भी जताई थी।

लेकिन अडानी समूह द्वारा सभी 6 हवाई अड्डों के लिए, बोली लगाने से पहले ही, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग की वे आपत्तियां खारिज कर दी गईं थीं। केवल दो साल से भी कम समय में अडानी समूह, हैंडल किए गए हवाई अड्डों की संख्या के मामले में, भारत का सबसे बड़ा निजी डेवलपर बन गया है; और यात्री यातायात के मामले में यह दूसरा सबसे बड़ा हवाई अड्डा नियंत्रक हो गया। विकास का यह अनोखा उदाहरण है। क्या बिना किसी उच्च राजनीतिक संपर्क की कृपा के, ऐसा चमत्कार संभव हो सकता था।

इंडियन एक्सप्रेस ने तब अडानी को हवाई अड्डा सौंपने के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट छापी थी। उक्त रिपोर्ट जो इंडियन एक्सप्रेस की वेबसाइट पर अब भी है में, अंकित है कि, “2019 में हवाई अड्डे की बोली प्रक्रिया के संबंध में वित्त मंत्रालय और नीति आयोग द्वारा उठाई गई आपत्तियों को अहमदाबाद स्थित अडानी समूह को छह प्रमुख हवाई अड्डों को क्लीन स्वीप करने की अनुमति देने के लिए खारिज कर दिया गया था।”

वित्त मंत्रालय और नीति आयोग दोनों ही सरकार के अंग हैं और उनकी आपत्तियां एक झटके में ही खारिज कर देना और कुछ संकेत दे या न दे, पर यह साबित करता है कि अडानी समूह की पकड़ सरकार में शीर्ष तक बहुत गहरी है।

देश के कुल छः हवाई अड्डों, अहमदाबाद, लखनऊ, मैंगलोर, जयपुर, गुवाहाटी और तिरुवनंतपुरम में हवाई अड्डों के निजीकरण के लिए बोलियां आमंत्रित करने से पहले, सरकार द्वारा आयोजित, विभागीय और विशेषज्ञ चर्चाओं के दौरान, वित्त मंत्रालय ने, अपने एक अध्ययन टिप्पणी में कहा था कि “एक ही समूह को, दो से अधिक हवाई अड्डों को आवंटित नहीं किया जाना चाहिए।”

इसका उद्देश्य किसी भी प्रकार के एकाधिकार पर नियंत्रण रखना था। सारे हवाई अड्डे, किसी एक व्यक्ति की कंपनी को नहीं सौंपे जाने चाहिए।

साथ ही, नीति आयोग ने, इस बिंदु पर एक अलग प्रकार की चिंता जताई थी कि “पर्याप्त तकनीकी क्षमता की कमी वाले बोलीदाता परियोजना को अपनी अनुभवहीनता के कारण खतरे में डाल सकते हैं और वे लाभ के लालच में हवाई अड्डों पर उपलब्ध कराई जाने वाली यात्री व अन्य सेवाओं की गुणवत्ता से समझौता भी कर सकते हैं।”

नीति आयोग की आपत्ति भी उचित थी कि उक्त समूह को हवाई अड्डा परिचालन का कोई अनुभव नहीं था और एक साथ ही सभी हवाई अड्डों को उक्त समूह को सौंप देना, प्रशासनिक और आर्थिक रणनीतिक दृष्टिकोण से उचित भी नहीं था। पर सरकार द्वारा गठित की गई सचिवों की समिति की राय के आधार पर, सरकार ने वित्त मंत्रालय और नीति आयोग, दोनो की इन महत्वपूर्ण आपत्तियों को दरकिनार करते हुए सारे हवाई अड्डे अडानी समूह को सौंप दिए।

इस प्रकार गौतम अडानी के इन्फ्रा समूह अडानी एंटरप्राइजेज ने फरवरी 2019 में भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) द्वारा, सभी छह हवाई अड्डों को संचालित करने के लिए खोली गई वित्तीय निविदाओं को जीत लिया था, जिसे सरकार अगले साल के लिए दिल्ली और मुंबई में मेगा हब की तरह सार्वजनिक-निजी तरीके (पीपीपी मॉडल) से चलाने की योजना बना रही थी।

हवाई अड्डे के संचालन का यह दायित्व अडानी समूह को 50 साल के लिए सौंपा गया है। अडानी समूह द्वारा छह बोलियों में से प्रत्येक में अपने प्रतिद्वंद्वियों, जीएमआर ग्रुप, ज्यूरिख एयरपोर्ट और कोचीन इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड जैसे अनुभवी कम्पनियों को किनारे कर के यह निविदा प्राप्त की गई।

अडानी समूह ने साल 2018 के अगस्त में मुंबई में स्थित देश के दूसरे सबसे बड़े हवाई अड्डे को नियंत्रण में लेने के लिए एक और सौदे पर हस्ताक्षर किया था, जिसे भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (एएआई) ने 12 जनवरी 2019 को अधिग्रहण की मंजूरी दे दी। इस समय अडानी समूह द्वारा संयुक्त रूप से कुल सात हवाई अड्डे संचालित किए जा रहे हैं।

हवाई अड्डों की संख्या के मामले में यह समूह भारत का सबसे बड़ा निजी हवाई अड्डा संचालक बन गया है और यात्री यातायात के मामले में अडानी समूह देश का दूसरा सबसे बड़ा संचालक है। हवाई अड्डों के निजी एकाधिकारवादी नियंत्रण का यह प्रभुत्व दो साल से भी कम समय में अडानी समूह ने स्थापित कर लिया।

एएआई द्वारा 2019 में छह हवाई अड्डों के पीपीपी मॉडल के अनुसार निजी क्षेत्र द्वारा संचालित करने हेतु बोलियों को आमंत्रित करने से पहले, वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा 10 दिसंबर 2018 को भेजे गए एक नोट में कहा गया था कि, “छह हवाई अड्डा परियोजनाएं अत्यधिक पूंजी- गहन परियोजनाएं हैं, और इसलिए इस बिंदु को शामिल करने का सुझाव दिया जाता है कि “उच्च वित्तीय जोखिम और प्रदर्शन के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए एक ही बोली दाता को दो से अधिक हवाई अड्डे नहीं दिए जाने चाहिए।”

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, “केंद्र की पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अप्रेजल कमेटी (पीपीपीएसी) को भेजे गए नोट में कहा गया है, “अलग-अलग कंपनियों को यह संचालन सौंपने से प्रतियोगिता का वातावरण भी बनेगा और इससे संचलन प्रबंधन और गुणवत्ता भी सुधरेगी।”

इंडियन एक्सप्रेस अखबार पूरी प्रक्रिया पर अपनी रपट में लिखता है कि “प्रक्रिया पर चर्चा के लिए 11 दिसंबर 2018 को पीपीएसी द्वारा आयोजित एक बैठक में डीईए द्वारा इस चेतावनी भरी राय को उठाया गया था। डीईए ने दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों का उदाहरण भी दिया था कि “मूल रूप से एकमात्र योग्य बोलीदाता होने के बावजूद दोनों हवाई अड्डों का संचालन जीएमआर को नहीं दिया गया था।”

ज्ञातव्य है कि जीएमआर ग्रुप के पास हवाई अड्डों के संचालन का अनुभव था, पर उसे भी, उस ग्रुप की निविदा उपयुक्त पाए जाने के बाद भी, दिल्ली और मुंबई के हवाई अड्डे, सिर्फ एकाधिकार और गुणवत्ता के कारण नहीं सौंपे गए।

जब अडानी समूह को हवाई अड्डों का संचालन दायित्व देने की प्रक्रिया चल रही थी, तब नीति आयोग ने भी उसी दिन भेजे गए एक नोट में हवाई अड्डे की बोली को लेकर अलग से चिंता जताई थी। सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग के मेमो में कहा गया है, कि “पर्याप्त तकनीकी क्षमता के अभाव वाले बोलीदाता, अपनी अनुभवहीनता के कारण परियोजना को खतरे में डाल सकते हैं और सरकार द्वारा प्रदान की जा रही सेवाओं की गुणवत्ता से समझौता कर सकते हैं।”

लेकिन पीपीएसी ने इस आपत्ति को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “सचिवों के अधिकार प्राप्त समूह ने पहले ही तय कर लिया था कि “पूर्व हवाई अड्डे के संचालन अनुभव के बिंदु को, न तो बोली लगाने के लिए एक शर्त बनाया जा सकता है, न ही बोली के बाद इसकी आवश्यकता ही है।”

यह एक अजीब निर्णय था, सचिवों के अधिकार प्राप्त समूह का, कि, अनुभव को कोई शर्त ही निविदा में न रखी जाय। यदि अनुभव को निविदा की शर्तो में शामिल किया गया होता तो अडानी समूह के लिए धड़ाधड़ छह हवाई अड्डों का संचालन लेना संभव नहीं था, क्योंकि उनके पास हवाई अड्डा परिचालन का कोई अनुभव ही नहीं था।

वे एक सामान्य हवाई अड्डा लेकर, अनुभव जुटाकर अपनी संचालन क्षमता का प्रदर्शन कर सकते थे, पर इतनी उदार राजकृपा का ग्रह योग भविष्य में रहे या न रहे। फिलहाल तो जो रहमत बरस रही है, उसके लाभ से वंचित रहने का जोखिम क्यों उठाया जाए।

एक व्यापारी की मानसिकता के अनुसार अडानी का यह सोचना स्वाभाविक था, पर एक सरकार का इस तरह से एक ग्रुप को सभी हवाई अड्डों को सौंप देने की नीयत से, नीति में अडानीनुसार संशोधन करना, जानबूझकर किया गया पक्षपात था, जो अडानी और सत्ता शीर्ष के बीच की दुरभिसंधि को साबित करता है।

आखिर इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए, अनुभव के बिंदु को, शर्तो में क्यों नहीं शामिल किया गया, जबकि हर निविदा में अनुभव, एक सामान्य और अनिवार्य शर्त होती है। सचिव मंडली का यह निर्णय खुद का था या, उनका यह निर्णय किसी दबाव का परिणाम था? अगर यह निर्णय सचिव मंडली का खुद का था तो, अनुभव रहित निविदा से क्या उद्देश्य प्राप्त हो सकता था। यह सब सामान्य प्रश्न हैं जो इस हवाई अड्डा डील पर अनेक सवाल खड़े करते हैं।

राजकृपा का यह अंत नहीं है। यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाय तो साल दर साल ऐसी उदार राजकृपा अडानी समूह पर होती रही है और आज भी वह कम नहीं हुई है बल्कि अब तो वह और निर्लज्ज तरीके से हो रही है। सरकार ने अब तक 7 एयरपोर्ट तो, अडानी समूह को सौंप दिए हैं, पर अभी सरकार के इस मॉडल के अनुसार, लगभग 12/13 एयरपोर्ट और निजी क्षेत्र को सौंपे जाने हैं। यह नीलामी अगले 6 माह में होनी है। लेकिन इस समय अडानी समूह पर संकट के जो बादल छाए हैं, उन्हें देखते हुए इन हवाई अड्डों की नीलामी स्थगित कर के आगे बढ़ा दी जा सकती है।

इस संबंध में एक वीडियो चर्चा में शामिल एक विशेषज्ञ ने सूत्रों के हवाले से यह बताया कि सरकार इन हवाई अड्डों को भी, अडानी समूह को ही सौंपना चाहती है, पर अडानी घोटाले पर चल रहे कोहराम के कारण, सरकार, फिलहाल अडानी के पक्ष में खड़े नहीं दिखना चाहती है। अडानी समूह के बांड और शेयरों पर भी, अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियों द्वारा विपरीत आकलन के कारण, अर्थसंकट आया है और सरकार इस अर्थसंकट के दूर होने की प्रतीक्षा भी कर सकती है।

अडानी को अब भी एसबीआई सहित सरकारी बैंकों का समर्थन है। अखबारों के अनुसार एसबीआई और कुछ अन्य बैंकों द्वारा कुल स्वीकृत ऋण 9 बिलियन डॉलर (₹75 हजार करोड़) का है। इसमें से, 7.5% की राशि दी जा चुकी है, पर अभी भी अडानी समूह को 1.5% राशि दी जा सकती है। अडानी को अब भी सरकार का पूरा सहयोग और राजकृपा है, पर हिंडनबर्ग खुलासे के कारण आए संकट और देश में हो रहे विरोध के चलते, फिलहाल सरकार शेष एयरपोर्ट की नीलामी की योजना को टाल सकती है।

आम तौर पर जनता में यह धारणा है कि सरकार के नजदीक जो दो पूंजीपति घराने हैं, एक मुकेश अंबानी का रिलायंस, दूसरा गौतम अडानी का अडानी समूह। लेकिन वर्तमान सरकार के समय, गौतम अडानी की प्रधानमंत्री से अतिशय निकटता के लिए जाना जाता है। क्या यह महज संयोग है कि,

० प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर जाते हैं और अडानी समूह को वहां कोयला खनन का ठेका मिलता और साथ ही एसबीआई से भारी कर्ज भी।

० “भारत के पीएम की सिफारिश पर, अडानी को श्रीलंका में पॉवर प्लांट का काम मिला है,” यह बयान श्रीलंका की संसद के रिकॉर्ड में है।

० पीएम बांग्लादेश जाते हैं, अडानी को गोड्डा बिजली ठेका मिलता है। यह अलग बात है कि अब बांग्लादेश इस समझौते पर अपनी आपत्ति जता रहा है।

क्या यह महज संयोग है कि पीएम नरेंद्र मोदी के अधिकांश दौरे में अडानी साथ रहते हैं और उन्हें कुछ कुछ व्यापारिक लाभ मय आसान कर्ज के मिलता रहता है।

क्या नरेंद्र मोदी और अडानी के संबंधों की जांच नहीं होनी चाहिए ?

मुद्दा, अडानी के स्टॉक घपले तो हैं ही, साथ ही उनपर 2014 से हो रही राजकृपा भी है। कैसे 2014 के बाद, अडानी का उदय तेजी से हुआ और जब 80 करोड़ लोग 5kg राशन पर आ गए तो, अडानी नंबर 2 पर पहुंच गए। पर करदाताओं में वो पहले 10 में भी नहीं हैं। इस अतिशय राजकृपा की जांच क्या नहीं होनी चाहिए?

‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ जैसे मनमोहक सुभाषित गढ़ने वाले पीएम के शासनकाल में,

० न तो पनामा पेपर्स की जांच हुई

० न राफेल में अनिल अंबानी के आमद की,

० और अब वे हिंडनबर्ग खुलासे की जांच कराने को तैयार नहीं है।

कम से कम पीएम संसद में यही बता दें कि, जांच क्यों नहीं की जानी चाहिए।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस हैं)

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