नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय में भी कार्पोरेट्स के लिए अलग नियम है आम लोगों के लिए अलग। चाहे जितना महत्वपूर्ण मामला हो न्यायालय को सुनने की जल्दी नहीं होती, टालमटोल की नीति चलती है पर न्यायालय जो चाहता है उसकी सुनवाई बेरोकटोक होती है। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने आरोप लगाया है कि अडानी समूह की कंपनियों से जुड़े दो मामलों को उच्चतम न्यायालय ने गर्मी की छुट्टी के दौरान सूचीबद्ध किया था और उच्चतम न्यायालय की स्थापित प्रैक्टिस और प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए निपटाया था।
दुष्यंत दवे ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को 11 पन्नों का पत्र लिखकर दोनों मामलों को उठाया है। यह मुद्दा बहुत गंभीर है और विचलित करने वाला प्रश्न है कि क्या रजिस्ट्री ने मामलों को सूचीबद्ध करते समय मुख्य न्यायाधीश से सहमति मांगी थी। यदि नहीं, तो दवे ने पूछा है कि क्या अपने स्वयं के प्रैक्टिस और प्रक्रिया का उल्लंघन करके इस तरह की लिस्टिंग के लिए रजिस्ट्री पार्टी थी। दवे ने मुख्य न्यायाधीश से इस मुद्दे पर गौर करने और सुधारात्मक कदम उठाने का अनुरोध किया है।
दवे ने आरोप लगाया है कि इन दोनों निर्णयों से अडानी समूह को हजारों करोड़ में कुल लाभ होगा। उन्होंने कहा है कि इन दोनों अपीलों की सुनवाई उच्चतम न्यायालय के स्थापित प्रक्रिया का पूर्ण उल्लंघन करके किया गया।
पत्र में कहा गया है कि इन दोनों मामलों को सूचीबद्ध किया गया, बिना किसी औचित्य के सुनवाई की गयी और जल्दीबाजी में अनुचित तरीके से सुना गया। परिणामस्वरूप, सार्वजनिक हित और सार्वजनिक राजस्व पर गंभीर चोट लगाने के अलावा, इसने उच्चतम न्यायालय की छवि को भारी नुकसान पहुंचाया है। यह विचलित करने वाला तथ्य है कि भारत के उच्चतम न्यायालय ने गर्मियों की छुट्टी के दौरान एक बड़े कॉर्पोरेट घराने के नियमित मामले की इस तरह के एक अश्वारोही फैशन में सुनवाई की ।
पहला मामला पारसा केंटा कोलियरीज लिमिटेड बनाम राजस्थान राज्य विद्युत उत्पान निगम लिमिटेड (सिविल अपील 9023/2018) है। यह मामला एसएलपी (सी) 18586/2018 से उत्पन्न हुआ, जिसमें 24 अगस्त, 2018 को जस्टिस रोहिंटन नरीमन और इंदु मल्होत्रा की खंडपीठ द्वारा सुनवाई के लिए मंजूर किया गया था ।
उन्होंने पत्र की शुरुआत ही सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा की गयी ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस से की है। जिसमें उन्होंने कहा है कि उसका पूरा मुद्दा ही इसी बात पर केंद्रित था कि सुप्रीम कोर्ट का एडमिनिस्ट्रेशन कैसे चलेगा और उसमें चीफ जस्टिस और दूसरे जजों की क्या भूमिका होगी। गौरतलब है कि उस पत्र में जजों ने कहा था कि इस तरह के बहुत सारे उदाहरण हैं जिसमें राष्ट्र और संस्था पर बहुत दूर तक प्रभाव रखने वाले तमाम केसों को चीफ जस्टिस द्वारा कुछ निश्चित बेंचों को बगैर किसी तर्क के सौंपा गया है। किसी भी कीमत पर इस पर लगाम लगायी जानी चाहिए।
इसी का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट के प्रशासन में सुधार होने की बात तो दूर परिस्थितियां और बदतर हुई हैं। ऐसे केस जो राष्ट्र और संस्था के भविष्य पर बहुत दूर तक असर डालने वाले हैं या फिर जिनमें राजनीतिक हित शामिल हैं उन्हें व्यवस्थित तरीके से अपनी पसंद वाली बेंचों को आवंटित किया जा रहा है। अक्तूबर 2018 से ही किसी मामले में लगाम लगाने की बजाय किसी भी कीमत पर मामलों को पसंद वाली बेचों को सौंपा जा रहा है। यहां केसों की सूची देना जरूरी नहीं है। सिवाय यह बताने के कि ऐसे बहुत सारे मामले हैं।
लेकिन चीफ जस्टिस ने पूरी कानूनी बिरादरी को उस समय सकते में डाल दिया जब उन्होंने समर वैकेशन 2019 की बेंच को गठित करते समय खुद के साथ वरिष्ठ जजों में से एक जस्टिस अरुण मिश्रा को शामिल कर लिया। इसके पीछे जो भी तर्क रहा हो लेकिन इस दौरान सुने गए कुछ केसों का हतप्रभ करने वाला फैसला सामने आया।
इसी तरह के एक मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने सिविल अपील नंबर 9023 (परसा केंटा कोलियरीज लिमिटेड बनाम राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड) की 21 मई, 2019 को सुनवाई की।
पत्र में आगे लिखा गया है कि
1- इस मसले की समर वैकेशन बेंच ने सुनवाई की जबकि किसी रेगुलर बेंच द्वारा ऐसा करने का कोई आदेश नहीं था।
2- दूसरी बात यह थी कि इसमें किसी तरह की इमरजेंसी भी नहीं थी।
आपको बता दें कि परसा केंटा कोलियरीज लिमिटेड अडानी समूह का एक हिस्सा है।
यह अपील कोर्ट के सामने एसएलपी के जरिये 2018 में आयी थी जिसकी जस्टिस नरीमन और जस्टिस मल्होत्रा ने 24 अगस्त 2018 को सुनवाई की थी।
दवे के पत्र में लिखा गया है कि 8 अप्रैल 2019 को रजिस्ट्रार द्वारा ज्यूडिशियल 1 और ज्यूडिशियल 2 द्वारा एक नोटिस जारी की गयी जिसमें लिखा गया था कि ग्रीष्म कालीन अवकाश के दौरान इस मामले की नियमित सुनवाई की जाएगी जो भारत के चीफ जस्टिस द्वारा तय की गयी दिशा और नियमों के अनुरूप होगी। उसके बाद एडिशनल रजिस्ट्रार के 9 मई 2019 के एक सर्कुलर के जरिये ग्रीष्म कालीन अवकाश के दौरान जिन केसों की सुनवाई की जानी थी उनकी सूची जारी हुई।
आश्चर्यजनक रूप से यह सिविल अपील क्रम संख्या 441 यानी बिल्कुल आखिरी में शामिल की गयी। जिसके आगे मई 2019 में सुनवाई का अलग से रिमार्क लगा हुआ था। जो दूसरे मामलों से बिल्कुल अलग था। उनका कहना है कि अब यह साफ नहीं हो पा रहा है कि क्या यह “माननीय चीफ जस्टिस द्वारा तय किए दिशा निर्देशों और नियमों के अनुरूप” है। लेकिन इसमें एक बात बिल्कुल साफ है कि यह वह मामला नहीं था जिसको ग्रीष्म कालीन अवकाश की बेंच द्वारा सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था जैसा कि कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध माननीय कोर्ट के निर्देशों का रिकार्ड बताता है।
दवे ने बताया कि वास्तव में 14 मार्च 2019 को जारी एक आदेश में रजिस्ट्रार आरके गोयल ने बताया है कि मामला अभी सुनवाई के लिए तैयार नहीं है। और नियमों के मुताबिक माननीय कोर्ट के सामने पेश किया जाएगा। लिहाजा इसको सूचीबद्ध करने का आदेश किसने दिया और यह क्यों? यह बहुत गंभीर प्रश्न है। और यह कैसे 21 मई 2019 को 17 मई 2019 को जारी सूची में 120वें नंबर पर सूचीबद्ध हुआ यह एक और रहस्य है।
पत्र में दवे ने कहा है कि बगैर किसी उचित तर्क के बेंच ने मामले की 21 को सुनवाई किया और निम्नलिखित आदेश पारित कर दिया-
अपीलकर्ता की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ वकील श्री रंजीत कुमार के पक्ष को सुना। इसे कल बुधवार 22 मई, 2019 को आगे की बहस के लिए पेश किया जाए।
22 मई, 2019 को कोर्ट ने मामले की आगे सुनवाई की और निम्नलिखित आदेश जारी कर दिया-
अपीलकर्ता की तरफ से वरिष्ठ वकील रंजीत कुमार के पक्ष को सुना और दूसरे पक्ष से विद्वान सीलीसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए।
बहस पूरी हो गयी
फैसला सुरक्षित कर लिया गया।
दवे ने पत्र में लिखा है कि “मुझे बताया गया है कि मामले में पेश होने वाले दूसरे वकीलों को न तो सूचना दी गयी और न ही उसके लिए उनकी स्वीकृति ली गयी।”
क्या बेंच ने इस अर्जेंसी के कारणों के बारे में जांच की? ऐसा नहीं लगता है। क्या बेंच ने दूसरे पुराने और अर्जेंट मामलों को भी सुना? यह स्पष्ट नहीं है।
आखिर में 29 मई 2019 को आखिरी फैसला सुना दिया गया।
इसी तरह से दूसरे एक गुजरात के मामले में भी किया गया। जिसकी सुनवाई 2017 के बाद से नहीं हुई थी। और इस बीच, किसी भी बेंच के सामने उसे लिस्ट नहीं किया गया था। लेकिन अचानक इसे भी उसी ग्रीष्म कालीन बेंच के सामने पेश कर दिया गया। और उसने सुनवाई कर उस पर फैसला भी सुना दिया। यह मामला अडानी पावर लिमिटेड और गुजरात इलेक्ट्रीसिटी कमीशन एंड अदर्स के बीच था। इसमें दूसरी तरफ से वरिष्ठ वकील एमजी रामचंद्रन थे। इसके पहले 2017 में इस मामले की सुनवाई जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस सप्रे की बेंच ने की थी।
दवे का कहना है कि जल्द सुनवाई की अपील को बेंच को नहीं स्वीकार करना चाहिए था। क्योंकि यह 29 अप्रैल 2019 के सर्कुलर के तहत नहीं आता है।
दवे ने बताया कि वरिष्ठ वकील एमजी रामचंद्रन ने उनसे बताया था कि एडवोकेट आन रिकार्ड की तरफ से यह निवेदन किया गया था कि मामले को अवकाश के दौरान 23 मई 2019 को न सुना जाए। क्योंकि एओरआर उस समय मौजूद नहीं रहेंगे। यहां तक कि 24 मई को एओआर के दफ्तर से एक जूनियर एडवोकेट इसको फिर से बताने के लिए खड़ा हुआ। लेकिन बेंच ने उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। और उसने सीधे मामले की सुनवाई आगे बढ़ा दी।
दवे ने बताया कि इस फैसले से कारपोरेट क्लाइंट को होने वाला फायदा हजारों करोड़ रुपये का है।
लिहाजा दवे ने चीफ जस्टिस से मामले का फिर से संज्ञान लेने की अपील की है। साथ ही उनसे यह स्पष्ट करने को कहा है कि क्या केस को ग्रीष्मकालीन बेंच के सामने पेश करने के लिए उनकी अनुमति ली गयी थी।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)