हालांकि केंद्र सरकार की तरफ से अभी इस बात का कोई ऐलान नहीं है कि जनगणना कब से शुरू होगी और किस तरह से होगी। लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से जैसे ही देश के रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर मृत्युंजय कुमार का कार्यकाल बढ़ाया गया उसके बाद इस बात की चर्चा होने लगी है कि शायद अगले साल देश में जनगणना हो सकती है। पहले यह दस साल पर हुआ करती थी। पिछली बार यह जनगणना 2021 में ही हो जानी थी लेकिन कोविड के चलते यह संभव नहीं हो सका। हालांकि दुनिया के कई देशों में जनगणना के काम को नहीं रोका गया लेकिन भारत में यह अटक गया।
अब ऐसा माना जा रहा है कि जनगणना का काम अगले साल से शुरू हो सकता है और फिर इसके परिणाम 2026 में सामने आ सकते हैं। याद रहे देश की राजनीति के लिये 2026 का साल ऐसे भी काफी अहम है। 2026 में लोकसभा और विधान सभा की सीटों का परिसीमन होना है। इस परिसीमन के बाद जहां अगले लोकसभा चुनाव तक लोकसभा और विधान सभा की सीटों की संख्या का निर्धारण होना है वहीं इसी परिसीमन के बाद बढ़ी सीटों में महिला आरक्षण यानी लोकसभा और विधान सभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों की व्यवस्था भी की जानी है। पिछले साल देश में इस कानून की स्वीकृति भी मिल गई है। जाहिर है 2029 के चुनाव में बीजेपी महिला आरक्षण को लेकर बड़ा राजनीतिक दांव खेल सकती है।
अगर अगले साल जनगणना की शुरुआत होती है तो इस कवायद के बाद भविष्य का जनगणना चक्र पूरी तरह बदल जाएगा। यह चक्र 2025-2035, फिर 2035-2045 होगा और भविष्य में इसी तरह आगे जारी रहेगा। हालांकि, अभी तक इस बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया है कि सामान्य जनगणना के साथ-साथ जाति आधारित जनगणना भी की जाएगी या नहीं। यह भी याद रहे कि देश में 1951 से हर 10 साल में जनगणना की जाती रही है।
हालांकि जनगणना से जुड़ी ख़बरों के बीच कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कुछ सवाल उठाये हैं। उन्होंने एक्स पर लिखा है कि दो अहम मुद्दों पर अभी तक कोई साफ स्थिति नहीं है। उन्होंने पूछा है कि क्या जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा भी देश की अन्य जातियों की गणना की जाएगी, जो कि 1951 से लगातार की जाती रही है। उन्होंने कहा है कि देश के संविधान के मुताबिक देश में जाति जनगणना कराने की एकमात्र जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है।
जयराम रमेश ने यह भी पूछा है कि क्या इस जनगणना का इस्तेमाल लोकसभा में हर राज्य की ताकत निर्धारित करने के लिए किया जाएगा जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 82 में प्रावधान है। इस प्रावधान में कहा गया है कि वर्ष 2026 के बाद की गई पहली जनगणना और उसके परिणामों का प्रकाशन किसी भी ऐसे पुनर्गठन का आधार होगा। क्या यह उन राज्यों के लिए नुकसानदेह होगा जो परिवार नियोजन में अग्रणी रहे हैं?
जयराम रमेश के इन्हीं सवालों के साथ परिसीमन की कहानी भी सामने आने लगी है। परिसीमन के जरिये लोकसभा और विधानसभा की सीटों का निर्धारण आबादी के अनुसार किया जाना है और ऐसा हमारे देश में होता रहा है। इस परिसीमन में परिसीमन आयोग का निर्णय अंतिम होता है। आयोग के निर्णय को कोई चुनौती नहीं दे सकता। इस आयोग का गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। आयोग चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करता है और इस आयोग के सदस्य सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज होते हैं। हमारे देश में आजादी के बाद अभी तक चार परिसीमन आयोग बन चुके हैं।
यह आयोग 1952,1963,1973 और 2002 में बना था। 2001 की जनगणना के बाद परिसीमन हुआ मगर सीट नहीं बढ़ी। 1977 के बाद अभी तक लोकसभा की सीटें नहीं बढ़ी हैं। 2002 में ही यह कहा गया था कि 2026 में अगला परिसीमन कराया जायेगा और सदन में सीटों की संख्या पर निर्णय होगा।
अब जयराम रमेश ने जो सवाल उठाये हैं उस पर चर्चा की जरूरत है। रमेश ने पहला सवाल तो वही किया है कि जो इंडिया गठबंधन वाले देश में जातिगत जनगणना की मांग करते आ रहे हैं। और यह सब इसलिए कि देश में सभी जातियों की वास्तु स्थिति का पता चल जाये ताकि उनके विकास और कल्याण के लिए योजनाएं बनाई जा सकें। जातिगत जनगणना के दो फायदे विपक्षी पार्टियां बता रही हैं। पहला यह कि इससे सभी जातियों की सटीक आबादी की जानकारी हो जाएगी और दूसरी बात यह कि जिसकी जितनी आबादी है उसके मुताबिक़ उस जाति और समाज को आरक्षण का लाभ मिले और बाकी सुविधाएँ भी मिलें।
हर जगह उनके लिए निर्धारित आरक्षण के मुताबिक़ काम हो। जाहिर है अगर ऐसा हुआ तो देश की राजनीति तो बदल ही सकती है इसके साथ ही अभी तक सभी क्षेत्रों में जिस तरह से सवर्णों का दबदबा बना हुआ है उस पर विराम लग जायेगा और आरक्षित जातियां आगे बढ़ती दिखेंगी। यह काम पहले कांग्रेस भी नहीं करती दिखी लेकिन अब कांग्रेस को लग रहा है कि बीजेपी को चुनौती देने के लिए समाज और राजनीति को बदलना ज़रूरी है और इसके लिए जातिगत जनगणना काफी अहम है।
रमेश का दूसरा सवाल परिसीमन को लेकर ही है। अगर 2026 में परिसीमन आबादी के आधार पर होता है तो जाहिर है कि उत्तर और दाक्षिण राज्यों के बीच संघर्ष तेज होगा। दक्षिण के अधिकतर राज्य परिवार नियोजन में काफी सफल रहे हैं और अब वे राज्य विकास के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं जबकि उत्तर भारत में जनसंख्या वृद्धि आज भी एक बड़ी समस्या है और उत्तर के अधिकतर राज्य दक्षिणी राज्यों की तुलना में विकास में काफी पीछे हैं। और ऐसी हालत में आबादी को आधार बनाकर अगर परिसीमन किया जाता है तो जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों को इस परिसीमन से कोई बड़ा लाभ नहीं होगा जबकि उत्तर के राज्य लोकसभा और विधान सभा की सीटों में ज्यादा लाभकारी होंगे।
अब परिसीमन पर भी चर्चा की जरूरत है क्योंकि आबादी के मुताबिक़ परिसीमन होता है तो निश्चित तौर पर देश के भीतर एक नया विवाद खड़ा हो सकता है। इतना तो साफ़ है कि देश में परिसीमन से लोकसभा सीटों की संख्या में इजाफा हो जाएगा। साल 2026 में भारत की अनुमानित जनसंख्या 1 अरब 42 करोड़ 19 लाख 48 हजार हो जाएगी और परिसीमन के बाद सीटों की संख्या बढ़कर 753 या फिर उससे भी ज्यादा हो सकती है। जानकार तो यह भी कह सकते हैं कि लोकसभा में सीटों की संख्या 900 तक भी हो सकती है।
अगले दो सालों में देश की अनुमानित जनसंख्या एक अरब 42 करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान है। अभी तक लगभग 26 लाख आबादी पर एक लोकसभा सीट है। 2001 में एक लोकसभा सीट में 18 लाख की आबादी थी। 2001 से 2026 की अनुमानित जनसंख्या की बात करें तो इसमें करीब 35 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी की सम्भावना है। अगर आबादी के इस परिवर्तन को सीटों से जोड़ दें तो 2026 में करीब 210 सीटों का इजाफा हो सकता है। ऐसे में लोकसभा में कुल सीटों की संख्या 753 तक हो सकती है लेकिन यदि कुछ और कम आबादी पर लोकसभा सीटों को निर्धारित किया जाएगा तो सीटें और भी बढ़ सकती हैं। लेकिन यह सब परिसीमन आयोग को ही तय करना है।
अगर मौजूदा आबादी के अनुसार ही लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ती है तो उत्तर भारत के राज्यों को सीटों का ज्यादा लाभ हो सकता है। यूपी में अभी सीटों की संख्या 80 है। परिसीमन के बाद यहाँ सीटों की संख्या 128 हो सकती है। यूपी में 48 सीटें बढ़ सकती हैं। बिहार में अभी 40 सीटें हैं जो बढ़कर 70 तक पहुँच सकता है। मध्य प्रदेश में 29 सीटें हैं जो बढ़कर 47 तक हो सकती है। महाराष्ट्र में 48 सीटें हैं जो बढ़कर 68 तक हो सकती है। राजस्थान की सीटें 25 से बढ़कर 44 तक हो सकती हैं। गुजरात में भी 13 सीटों का इजाफा हो सकता है। इसी तरह उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में सीटों की संख्या बढ़ेगी यह तय है।
लेकिन दक्षिण के राज्यों में सीटों की संख्या उत्तर की तुलना में कम ही बढ़ेगी। दक्षिण के राज्य परिवार नियोजन योजना को आगे बढ़ाने में सफल रहे हैं और ये राज्य विकास की गति को पकड़े हुए हैं यही वजह है कि इन राज्यों की आबादी में कम बढ़ोतरी हो रही है। ऐसे में इनकी लोकसभा सीटों में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं होगी।
कर्नाटक में लोकसभा सीटों की संख्या 28 है जो परिसीमन में बढ़कर 36 तक हो सकती है। केरल में लोकसभा की 20 सीटें हैं जो परिसीमन के बाद 19 हो जाएंगी। एक सीट कम हो जाएगी। तेलंगाना में 17 सीट बढ़कर 20 तक हो सकती है जबकि आँध्र प्रदेश की 25 सीटें बढ़कर 28 तक हो सकती हैं। तमिलनाडु की 39 सीटें बढ़कर 41 हो सकती हैं। जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों को कोई बड़ा लाभ नहीं होगा परिसीमन से। हालांकि यह कहा जा रहा है कि सरकार कोई ऐसी नीति अपना सकती है जिससे सीटों का निर्धारण सबके लिए अनुकूल हो।
लेकिन एक बात की और भी सम्भावना बढ़ रही है कि जैसे ही लोकसभा और विधान सभा में सीटों की संख्या बढ़ेगी फिर से नए राज्यों की मांग उठ सकती है। दक्षिण के भी कुछ राज्यों में नए राज्य की बात हो सकती है जबकि यूपी और बिहार के साथ ही बंगाल में भी नए राज्य की मांग हो सकती है।
लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि मोदी सरकार आगे क्या करने जा रही है। सबसे पहले जनगणना कराने की जरूरत है और अगर यह हो जाता है तो फिर कई सवाल उठेंगे और देश की राजनीति भी बदलेगी।
(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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