कृषि कानून रद्द: अभी सवाल शेष हैं!

                               

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा विवादास्पद तीनों कृषि कानून रद्द करने का फैसला बताता है कि सरकार पहले दिन से ही इस मामले में गलत थी और यह भी बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हर फैसले के पीछे खास किस्म की राजनीति होती है। इस फैसले में भी जबरदस्त सियासत है। पंजाब के आंदोलनरत किसानों का मानना है कि अति उत्साह में केंद्र के इस फैसले का स्वागत करने की बजाय इसका समग्र विश्लेषण किया जाना चाहिए और सरकार से सवाल पूछने का सिलसिला रूकना नहीं चाहिए। सवाल क्या हैं?       

बीते साल 26 नवंबर से किसान दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर इन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलनरत हैं तथा शांतिपूर्ण ढंग से धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। आंदोलनरत किसानों में से 100 से ज्यादा किसान अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। इनमें महिलाएं भी हैं। मारे गए ज्यादातर किसान अपने अपने परिवारों के पालनहार थे। यहां तक कि सुदूर लखीमपुर खीरी में भी केंद्रीय राज्यमंत्री की गाड़ी ने किसानों को कुचल कर मार डाला। एक सर्वेक्षण बताता है कि आंदोलन में मुतवातर बैठे किसानों की आर्थिक बदहाली में इजाफा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सब पर कुछ नहीं बोले हैं। 26 जनवरी की लाल किला हिंसा के आरोप में भी कई किसान जेल में हैं और कईयों पर मुकदमे बनाए गए हैं। उनका क्या होगा? दिल्ली और हरियाणा में सरकार की शहर पर किसानों पर  अमानवीय अत्याचार किए गए। क्या उन्हें भी अब इंसाफ मिलेगा? किसान, कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ-साथ अन्य कुछ मुद्दे भी अपने आंदोलन में उठाते थे। उन पर भी केंद्र सरकार खामोश है।           

अगले साल के शुरू में पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा के लिए पंजाब  अहम है, जहां उसका अब कोई नामलेवा नहीं। कैडर तो है लेकिन सियासी जमीन इसलिए भी खिसक चुकी है कि शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन किसानों के मसले पर टूट गया तथा किसान (जिनमें सिखों की तादाद ज्यादा है) भाजपा नेताओं का घरों से निकलना तक मुश्किल कर रहे हैं। दरअसल, नरेंद्र मोदी ने एक हफ्ते के भीतर दो फैसले ऐसे लिए, जिनके केंद्र में कहीं न कहीं पंजाब है। पहला, गुरु नानक देव जी के प्रकाश उत्सव की पूर्व संध्या पर श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलना और दूसरा, ऐन उनके जन्मदिवस पर कृषि कानून रद्द करने की घोषणा। यह वक्त पर है कि इन फैसलों का क्या असर होगा और पंजाब में लुंज-पुंज भाजपा को इसका कितना फायदा मिलेगा। इतना तो तय है कि पंजाब के सियासी समीकरण यकीनन बदलेंगे।                                             

बादलों की सरपरस्ती वाला शिरोमणि अकाली दल महज केंद्र के कृषि कानूनों के मुद्दे पर भाजपा से अलहदा हुआ था। उसे सत्ता में लाने के लिए हिंदू मतों का बड़ा योगदान रहता है। भाजपा के जरिए शिरोमणि अकाली दल को पर्याप्त मत हासिल होते थे और इन दिनों प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल की चिंता का सबब था कि इस बार हिंदू मत पहले की मानिंद कैसे हासिल होंगे? सुखबीर सिंह बादल शिरोमणि अकाली दल का चुनाव अभियान शुरू कर चुके हैं और हिंदू मतों पर निगाह रखते हुए वह मंदिरों में खूब मत्था टेक रहे हैं। नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानून रद्द करने की घोषणा के साथ ही सूबे में कयास लगने शुरू हो गए कि भाजपा और शिरोमणि अकाली दल फिर एक प्लेटफार्म पर आ सकते हैं। ऐसा होता है तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के लिए तगड़ी दुश्वारियां खड़ी हो जाएंगीं। उधर, कांग्रेस से जुदा होकर अलग पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह इस उम्मीद में थे कि वह मध्यस्था करके किसान आंदोलन खत्म कराएंगे और केंद्र के कृषि कानूनों को रद्द करवाने में भूमिका निभाकर ‘नायक’ की छवि हासिल करेंगे। उनकी रणनीति भी औंधे मुंह गिर गई है।

अमरीक
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