सिब्बल, दुष्यंत दवे की कड़ी में प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की तीखी आलोचना की

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वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और दुष्यंत दवे की कड़ी में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले देश के मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने भारत के सुप्रीम कोर्ट की तीखी आलोचना की है। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार मुस्लिमों जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर हमलावर है। उसने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल प्रांत जम्मू-कश्मीर के नागरिकों, सरकार के आलोचकों और असहमत लोगों पर चौतरफ़ा हमला बोला हुआ है और अब इसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है। संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को जनता के मौलिक और मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त की अहम ज़िम्मेदारी सौंपी है और यह सुनिश्चित किया है कि कार्यपालिका और विधायिका नियमों के तहत या उसकी शक्ति और सीमा के अंदर काम करें। लेकिन सर्वोच्च अदालत नागरिक और राजनीतिक आज़ादी की रक्षा के इस दायित्व को पूरा करने में नाकाम रही है।

अमेरिका स्थित मानवाधिकार संगठनों द्वारा बुधवार को आयोजित ब्रीफ़िंग में प्रशांत भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट वास्तव में नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका को त्याग रहा है। यही नहीं, कुछ मामलों में तो वह लोगों की नागरिक स्वतंत्रता पर हमला करने की हद तक आगे बढ़ गया है।

प्रशांत भूषण ने कहा कि वर्ष 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद के आठ सालों में भारत में अल्पसंख्यकों पर आक्रामक हमलों के साथ लोगों के अधिकारों को बड़े पैमाने पर रौंदा गया है। सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक लिंचिंग करने वाली भीड़ है। मुस्लिमों को किसी तरह दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए क़ानून बनाये जा रहे हैं। उन्हें ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से फर्जी  मुठभेड़ों में मारा जा रहा है। केवल विरोध-प्रदर्शन करने पर उनके घरों को ध्वस्त किया जा रहा है।

प्रशांत भूषण ने कहा कि सरकार से असंतुष्ट लोगों के नागरिक अधिकारों को कुचला गया। जो कोई भी सरकार के ख़िलाफ़ ख़ड़ा हुआ, ख़ासतौर पर पत्रकार या एक्टिविस्ट, उसे निशाना बनाया गया।

प्रशांत भूषण ने कहा कि दिल्ली में 2020 में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा भड़काने का आरोप लगाकर बड़ी संख्या में हमारे पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। यूएपीए जैसे क्रूर क़ानूनों का उपयोग करते हुए उन्हें सालों तक जेल में रखा गया और ज़मानत से इंकार कर दिया गया। ऐसे हालात में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की भूमिका और ज्यादा बड़ी हो जाती है क्योंकि यह उनकी ज़िम्मेदारी, कर्तव्य और शक्ति है कि उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करें जिनके अधिकारों को कुचला गया है।

प्रशांत भूषण ने कहा कि बंदी प्रत्य़क्षीकरण, मुस्लिम विरोधी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और आधारहीन आरोपों में यूएपीए और देशद्रोह की धाराएँ लगाकर जेल भेजने, दंड संहिता, यहाँ तक कि निवारक नज़रबंदी की इजाज़त देने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत चल रहे मामलों को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई ही नहीं हो रही है।

भूषण ने कहा कि भीमा कोरेगाँव केस, जो महाराष्ट्र के इस नाम के गाँव में ‘नीची’ जाति के हिंदुओं के ख़िलाफ़ ‘ऊँची’ जाति के हिंदुओं की हिंसा से पैदा हुआ, साफ़ तौर पर एक झूठा मामला था । तमाम फोरेंसिक एक्सपर्ट्स ने दिखाया है कि जिन चीज़ों के आधार पर लोगों को आरोपित किया गया वे उनके कंप्यूटर में प्लांट किए गए थे। लेकिन लगभग चार साल हो गये हैं और वे लोग अभी भी जेल में हैं और अदालत ने उन्हें ज़मानत देने में नाकाम रही है। मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले लगभग एक दर्जन लोगों को इस मामले में जेल में रखा गया है।

भूषण ने कहा कि कश्मीर में भी तमाम ऐसे लोग हैं जिन्हें जेल में रखा गया है।और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने वाली याचिकाओं को चुनौती देने के लिए कई याचिकाएँ दायर की गयी हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सुनने से इंकार कर दिया। कई मामलों में हाईकोर्ट से और कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी ज़मानत देने से इनकार कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट फ़र्जी आरोपों के स्पष्ट मामलों में ज़मानत देने से इंकार करके अपनी ज़िम्मेदारी का त्याग कर रहा है।

भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ज़मानत के कठोर प्रावधानों की व्याख्या में पूरी तरह ग़लत था । सामान्य सिद्धांत के मुताबिक जमानत नियम और जेल अपवाद है। ज़मानत देने से तभी इंकार किया जा सकता है जब ये मानने के उचित आधार हों कि मुल्ज़िम भाग जायेगा, सबूतों के साथ छेड़छाड़ करेगा या फिर कोई अपराध करेगा ।

प्रशांत भूषण ने पिछले महीने मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम क़ानून को सही ठहराने वाले फ़ैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि इसने सबूत जुटाने के बोझ को उलट दिया है । अब ज़मानत पाने के लिए इस क़ानून के तहत मुल्ज़िम ठहराये गये किसी व्यक्ति को अपनी बेगुनाही का सबूत देना होगा ।मुक़दमा शुरू होने से पहले ही ख़ुद को बेगुनाह साबित कर पाना किसी के लिए लगभग असंभव है ।

भूषण ने 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिमों के नरसंहार में मोदी की मिलीभगत से जुड़े सबूतों की अनदेखी करने और मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की वस्तुत: गिरफ़्तारी का आदेश देने वाले हालिया फ़ैसले की भी कड़ी आलोचना की।सीतलवाड ने 20 साल पहले हुई उस हिंसा में मोदी की भूमिका को लगातार उजागर किया था। भूषण ने कहा कि इस फ़ैसले ने दिखाया कि अपनी ज़िम्मेदारी त्यागने को लेकर सुप्रीम कोर्ट एक “अलग स्तर” पर चला गया।

भूषण ने पिछले महीने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की गवाहियों को ख़ारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की भी आलोचना की, जिसमें कोर्ट ने सामूहिक हत्याओं के लिए पुलिस को ज़िम्मेदार ठहराने से इंकार कर दिया।

इधर भारतीय विधिज्ञ परिषद (बीसीआई) ने न्यायपालिका के खिलाफ टिप्पणी को लेकर अधिवक्ता प्रशांत भूषण की आलोचना की है। साथ ही कहा है कि किसी को भी उच्चतम न्यायालय और इसके न्यायाधीशों का उपहास करने का अधिकार नहीं है। इसने यह भी कहा कि वकीलों को ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं लांघनी चाहिए। बीसीआई के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने एक प्रेस रिलीज में आरोप लगाया कि भूषण जैसे लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं और भारत विरोधी अभियान में शामिल हैं।

भूषण ने 10 अगस्त को इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (आईएएमसी) द्वारा आयोजित वेबिनार को संबोधित करते हुए जकिया जाफरी और धनशोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) जैसे मामलों में शीर्ष अदालत के हालिया फैसलों की आलोचना की थी। बीसीआई ने कहा कि अधिवक्ता ने इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बोलते हुए सारी हदें पार कर दीं।

वरिष्ठ अधिवक्ता मिश्रा ने कहा कि उन्होंने न केवल उच्चतम न्यायालय के हमारे न्यायाधीशों की आलोचना की और अनुचित, अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। बल्कि यह कहकर खुद को बेनकाब कर दिया, और ऐसा करके उन्होंने उच्चतम न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों को डराना चाहा। शीर्ष अधिवक्ताओं के निकाय प्रमुख ने कहा कि किसी को भी भारत के उच्चतम न्यायालय, इसके न्यायाधीशों या न्यायपालिका का उपहास करने का अधिकार नहीं है।

बयान में कहा गया कि आप (प्रशांत भूषण) व्यवस्था का मजाक नहीं बना सकते। आप किसी की भी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन आप लक्ष्मण रेखा पार नहीं कर सकते, हमेशा अपनी भाषा का ध्यान रखें। प्रैक्टिस करने का लाइसेंस आपको वकील के रूप में अपनी स्थिति का दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं देता है।बीसीआई ने भूषण के बयान को हास्यास्पद, निंदनीय और राष्ट्र के खिलाफ करार दिया।

इसमें कहा गया है कि भूषण जैसे व्यक्ति कभी भी नागरिक स्वतंत्रता के नायक नहीं रहे हैं। बल्कि, इस तरह के अनुचित कार्य करके, वे दुनिया को यह संदेश देने में सफल होते हैं कि वे भारत विरोधी हैं। वास्तव में, ऐसे लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं। हम चीन और रूस जैसे देशों में प्रशांत (भूषण) जैसे लोगों के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते। बीसीआई ने कहा कि उच्चतम न्यायालय अवमानना की कार्यवाही शुरू करने में किसी एक या अन्य कारणों से संकोच कर सकता है, लेकिन बार काउंसिल इस तरह की चीजों को बर्दाश्त नहीं करेगी।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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