जॉर्ज सोरोस को अमेरिका का सर्वोच्च सम्मान, भारत में घमासान

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अमेरिका के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम’ से हेनरी क्लिंटन समेत 19 सम्मानित करने का ऐलान किये जाने पर तीखी प्रतिक्रिया सामने आई, कारण यह कि इन 19 लोगों में जॉर्ज सोरोस का नाम भी है। जॉर्ज सोरोस के नाम पर काफी प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है।

खुद अमेरिका में रिपब्लिकन्स समेत और दक्षिण-अफ्रीकी-कनाडाई-अमेरिकी बड़े ‘प्रभावशाली’ एलन मस्क ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी है। एलन मस्क ‘प्रभावशाली’ तो हैं ही, 20 जनवरी 2025 से शुरू होनेवाले अमेरिका के दोबारा राष्ट्राध्यक्ष बनने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप के शासन-काल में ‘प्रभु-सत्ता’ संपन्न भी हो जायेंगे।

जॉर्ज सोरोस भारत में भी प्रमुख सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी और प्रमुख विपक्षी कांग्रेस के बीच राजनीतिक टकराव और आरोप का विषय रहे हैं।

2024 के दिसंबर में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने कांग्रेस, खासकर श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी के जॉर्ज सोरोस से कथित जुड़ाव को राजनीतिक महत्व का मुद्दा बनाने की भरपूर कोशिश की।

हालांकि कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने जॉर्ज सोरोस से कांग्रेस के जुड़ाव के आरोप का खंडन किया और आरोप को निराधार बताया। कुल मिलाकर यह कि जगत प्रकाश नड्डा के इस आरोप से वैसा राजनीतिक प्रभाव उत्पन्न नहीं हो सका जैसा भाजपा चाहती थी।

एलन मस्क ने तो जॉर्ज सोरोस को मानवता से नफरत करनेवाला और सभ्यता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न, तहस-नहस करनेवाला बताया। जॉर्ज सोरोस को अमेरिका के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम’ से सम्मानित किये जाने को राजनीति से प्रेरित माना जा रहा है। यह राजनीति से प्रेरित है तो प्रेरणा की इस राजनीति का मतलब समझना ही होगा।

जॉर्ज सोरोस हंगरी मूल के यहूदी अमेरिकी धनकुबेर हैं। आज के धनकुबेर जॉर्ज सोरोस एक समय हिटलर के कोप से जान बचाकर मुश्किल से निकल पाये और अमेरिका में बास करते हैं। जॉर्ज सोरोस के दुश्मनों की कोई कमी नहीं है तो दोस्तों की भी कोई कमी नहीं है। सच पूछा जाये तो जॉर्ज सोरोस को समझने के लिए कार्ल पॉपर को समझना जरूरी है।

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, कार्ल पॉपर जॉर्ज सोरोस के शिक्षक थे। कार्ल पॉपर की एक किताब है, ‘द ओपन सोसाइटी एंड इट्स एनिमीज’। इससे प्रेरित हो कर जार्ज सोरोस ने 1970 के दशक के उत्तरार्ध में ‘ओपन सोसाइटी’ का गठन किया। पॉपर के अनुसार स्वतंत्रता, ज्ञान, प्रगति और सहकार को बढ़ावा दिया जाने की प्रवृत्ति की सक्रियता खुले समाज का लक्षण होती है।

‘ओपन सोसाइटी’ प्लेटो, हेगेल, मार्क्स से असहमति रखता है और अधिनायकवादी प्रवृत्ति का विरोध करता है। दक्षिण-पंथी लोग जॉर्ज सोरोस को वाम-पंथी विचार का मानते हैं। पॉपर ने ऐतिहासिकता और अधिनायकवाद के बीच संबंध के अपने सिद्धांत का विस्तार किया ‘वॉर वर्क’ कहा जो 1945 में प्रकाशित हुआ था।

यह समय पूर्वी यूरोप के मार्क्सवादी शासन की स्थापना का था। कम्युनिस्ट देशों के ‘असंतुष्ट’ लोगों ने कार्ल पॉपर को अपना नायक बना लिया।

1990 के दशक की शुरुआत में कम्युनिस्ट शासन के पतन के बाद उनके काम को भविष्यवाणी के रूप में सम्मानित किया गया था। 1992 में रूसी अनुवाद छपा। कहा जाता है, यह सब से अधिक बिकनेवाली किताब बन गई।

यह सच है कि कार्ल पॉपर किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं थे, लेकिन उनके विचारों के राजनीतिक परिणाम जरूर थे, कदाचित अपनी मासूमियत में खतरनाक भी।

‘ओपन सोसाइटी’ प्लेटो, हेगेल, मार्क्स के विचार से निर्णायक असहमति रखती है; हां, अधिनायकवादी प्रवृत्ति का सक्रिय विरोध करती है। सिगमंड फ्रायड आदि के विश्लेषण और आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के प्रति कार्ल पॉपर में आकर्षण था।

‘ओपन सोसाइटी’ के अधिनायकवाद विरोध में अधिनायकवादी रुझान होता है; राजनीतिक नेताओं के अधिनायकवाद का विरोध और धनकुबेरों के अधिनायकवाद के समर्थन की भयानक प्रवृत्ति होती है। ‘ओपन सोसाइटी’ का बाहरी रूप राजनीतिक नेताओं के अधिनायकवाद होने का विरोधी होने के कारण बहुत आकर्षक और भीतरी स्वभाव धनकुबेरों के समर्थक होने के कारण बहुत मारक होता है।

वियना विश्वविद्यालय में प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान, तर्क और गणित से तैयार कुलीन दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का एक समूह था, मुख्य रूप से तार्किक अनुभववाद से जुड़े दार्शनिकों का एक समूह था, इसे वियना सर्किल के रूप में जाना जाता है। ज्ञानोदय के प्रभाव से वियना सर्किल का जुड़ाव था।

वियना सर्किल से जुड़े दार्शनिक 1924 से 1936 तक नियमित रूप से मिलते थे। द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद वियना सर्किल का मिलना-जुलना अनियमित हो गया। कहना न होगा कि प्रथम विश्व युद्ध 1914-18 और द्वितीय विश्व युद्ध 1939-45 के पहले बाद के वातावरण ने दुनिया को सभी स्तरों पर बदलकर रख दिया। कार्ल पॉपर का वियना सर्किल से भी वैचारिक संपर्क रहा था।

जॉर्ज सोरोस के वैचारिक सूत्रों को समझने के लिए कार्ल पॉपर को सामना जरूरी है। क्या है ‘ओपन सोसाइटी’ का निहितार्थ? ‘ओपन सोसाइटी’ यानी! गालिब को याद करें तो ‘बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर’! हम-साया और तीमारदार से दूर! एक अकेले का समाज! यह कैसे होगा? यह क्योंकर होगा? बाबा नागार्जुन से पूछें!

तट का अनुशासन ही सलिल को सुधा बनाता है। प्रकृति खुली भी है और बंद भी है! प्राकृतिक रूप से मानव समाज को प्रकृति की तरह से खुला भी होना चाहिए और बंद भी होना चाहिए! स्वतंत्रता, ज्ञान, प्रगति और सहकार के लिए घर का, समाज का खुला होना जितना जरूरी है, बंद होना भी उतना ही जरूरी है।

धनकुबेर जॉर्ज सोरोस ने दुनिया के कई देशों की सत्ता की राजनीति को अपने धन और बुद्धि से बहुत गहरे अर्थों में प्रभावित किया है। इनकी धन-लीलाओं ने कई लोकतांत्रिक देशों के मतदाताओं के सामाजिक-समूह के असंतोष को अपनी-अपनी सरकारों के विरुद्ध होने में उत्प्रेरक भागीदार की भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है।

सच पूछा जाये तो प्राथमिक रूप से जॉर्ज सोरोस की इन धन-लीलाओं से लोकतांत्रिक व्यवस्था में पनपी ‘चुनावी तानाशाही’ से पीड़ित लोगों के लिए तात्कालिक राहत भी पहुंचती हुई लग सकती है। इस अर्थ में धनकुबेर जॉर्ज सोरोस बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के भी ‘धनी’ हैं।

जॉर्ज सोरोस की ऐसी भूमिका को निश्चित रूप से उन देशों के मामलों में बाहरी हस्तक्षेप और अपने अंतिम परिणाम में निकृष्ट और नकारात्मक ही माना जा सकता है।

‘चुनावी तानाशाही’ में अनिवार्य रूप से अपनाई गई ‘हम’ और ‘अन्य’ की नीति में जॉर्ज सोरोस की भूमिका ‘अन्य’ से जा मिलती है और अंततः ‘अन्यीकरण’ की प्रक्रिया इतनी मारक हो जाती है कि लोगों के स्वाभाविक देश प्रेम को द्वेष-पूर्ण और दूषित कर देती है।

जॉर्ज सोरोस का हस्तक्षेप अंततः दवा में ही जहर मिलाने जैसा हो जाता है।

सोवियत संघ के बाद आज और अब, राजनीति को आर्थिक स्थिति बहुत ही निर्ममता से परिभाषित करने लगी है। वैश्विक वातावरण में आर्थिक संतुलन आज संक्रमण के दौर में है। यह दर अभी लंबा चलनेवाला है।

इस संक्रमण काल में मुख्य रूप से अमेरिका और चीन आमने-सामने हैं। आज भूमंडलीकरण की परियोजना सिकुड़ रही है।

अमेरिका में ‘एच1बी’ वीसा को लेकर कोहराम मच रहा है। इस कोहराम की तेज आहट, अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी महसूस की जा रही है। इस संक्रमण काल में अमेरिका और चीन की राजनीति अभी क्या-क्या रूप धरेगी! कुछ भी कहना मुश्किल है! भूमंडलीकरण के सिकोड़ के दौर में अमेरिका और चीन आमने-सामने।

ऐसी कठिन घड़ी में चढ़ती महंगाई दर, तदर्थ अर्थ-नीति, आर्थिक बदहाली, कमजोर साबित होती विदेश नीति, ‘पचकेजिया आबादी’ का दबाव, बेरोजगारी के कारण निर्योग्यता से सहमे हुए ‘प्रतिभावान’ लोगों आदि के साथ निरंकुश संसदीय लोकतंत्र!

भारत के सामने चुनौतियों की क्या कमी है! भूमंडलीकरण में ‘असंतोष’ के हजारों कारण रहे हैं तो भूमंडलीकरण के सिकोड़ के भी लाखों कारण हैं।

क्या गजब है कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव का सताया हुआ बताते हैं; शिकारी के शिकार हो जाने के बोध से एक भिन्न प्रकार की हदस में है दुनिया।

जॉर्ज सोरोस को सम्मान और ‘ओपन सोसाइटी’ के महत्व को रेखांकित करते हुए अमेरिका दुनिया की आर्थिक शक्ति के संतुलन को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए ‘ओपन सोसाइटी’ के ‘एनिमीज’ के साथ सलूक में किस हद तक जायेगा, कुछ भी कहना मुश्किल है।

20 जनवरी 2025 के बाद डोनाल्ड ट्रंप का शासन-काल शुरू होने पर एलन मस्क का प्रभाव दिखने लगेगा। जॉर्ज सोरोस हों या एलन मस्क हों, दोनों का लक्ष्य अमेरिका का हित-साधन ही होगा। अभी भले ही जॉर्ज सोरोस और एलन मस्क एक दूसरे के विरोधी लग रहे हैं, लेकिन अमेरिका का हित-साधन दोनों को एक ही घाट पर पानी का मुहैया होना सुनिश्चित कर देगा।

ऐसे में जॉर्ज सोरोस को अमेरिका के सब से बड़े नागरिक सम्मान ‘प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम’ से सम्मान दिये जाने पर घमासान मचाने के बदले उसके निहितार्थ को समझना जरूरी है; न विरोध न उत्सव बस सही-सही समझ ही काम आ सकता है।

पूंजीवाद और समाजवाद दोनों ही विचारधाराओं की परिधि से बाहर उखाड़वाद के दौर में पहुंचकर विरोध और उत्सव के बाहर हमें अपनी वास्तविक समझ से काम लेना होगा। भावुक सांद्रताओं से मुक्त बुद्धिमत्ता से काम लेना सीखना होगा।

हमें ऐसा निष्ठावान शाकाहारी होने की भावुकता से बचना चाहिए जो किसी मांसाहारी के द्वारा अपनी थाली में मांस खाने का बदला लेने के लिए उस मांसाहारी की थाली में विष्ठा खाने की जिद तक पहुंच जाता है।

‘हमें’ का आशय नागरिक समाज से है। सरकारों से? हां, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। लोकतंत्र में निश्चित ही चुनाव महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन चुनाव जीतने के चक्कर में कहीं देश न हार जायें, इसकी चिंता तो करनी ही होगी। इसकी चिंता की जायेगी, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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