अगले साल, दो हज़ार बाइस (2022) में भारतीय उपमहाद्वीप अपनी आज़ादी के पचहत्तर (75) साल पूरे करने जा रहा है। हम जानते हैं कि आज़ादी विभाजन (तक़सीम/ बंटवारे) के साथ आई और इकहत्तर (1971) में बांग्लादेश बनने के बाद यह एक मुल्क अब तीन अलग-अलग मुल्कों में बदल चुका है। गुज़रते हुए वक्त के साथ सिर्फ नक्शे नहीं बदले बल्कि इन मुल्कों की सियासत और सियासी रुझान भी बदले हैं।
विभाजन को लेकर एक ख्याल जो व्हाट्सएप “यूनिवर्सिटी” के आने से भी बहुत पहले से आम है वह कुछ यूं है कि अगर नेहरू, जिन्ना को पहला प्रधान मंत्री बन जाने देते तो विभाजन को टाला जा सकता था। इसी के साथ जिन्ना को एक सेक्युलर मुस्लिम साबित किया जाता है और विभाजन की लगभग सारी ज़िम्मेदारी नेहरू पर डाल दी जाती है। यह ख्याल अगर पाकिस्तान की तरफ़ से रखा जाय तो फिर भी समझ आता है, लेकिन जब यही बात भारत के तत्कालीन गृह मंत्री अडवाणी जी जिन्ना के मज़ार पर कहते हैं, या अटल बिहारी जी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के विदेश मंत्री जसवंत सिंह जी कहते हैं तो हम ज़रूर सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि जिन्ना को सेक्युलर साबित करने से इन नेताओं और इनकी पार्टी को क्या हासिल होता है।
ऐसे बहुत सारे सवालों का जवाब इश्तियाक अहमद साहब की हाल में प्रकाशित हुई किताब _Jinnah: His Success, Failures, and Role in History_ ना सिर्फ़ तलाशने की कोशिश करती है बल्कि एक बड़ी हद तक कामयाब भी होती है।
अब इस नुक्ते (बिंदु) को ज़हन में रखकर जिन्ना की यह ज़िद देखिए कि कांग्रेस ना सिर्फ मुस्लिम लीग को हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों की जमाअत माने बल्कि ख़ुद को भी सिर्फ एक हिंदू संगठन माने। जिन्ना की यह ज़िद ना सिर्फ अंग्रेज़ को सूट करती थी बल्कि उन दूसरी मुस्लिम पार्टीज के लिए भी एक डेथ वारंट थी जो लीग के साथ सहमति नहीं रखती थीं। कॉन्ग्रेस के लिए इस ज़िद को मानना बिल्कुल असंभव था क्योंकि विभाजन के समय तक भी नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर (सरहदी सूबा) में कांग्रेस की सरकार थी जिसमें डॉक्टर ख़ान साहब (खान अब्दुल गफ्फार ख़ान के भाई) मुख्यमंत्री थे।
इसके अलावा मुसलमानों की एक अहम तादाद खुद कांग्रेस में थी। जिन्ना आखिर तक इस बात पर अड़े रहे कि कॉन्ग्रेस को किसी मुसलमान को नामज़द करने का अधिकार नहीं। ध्यान दीजिए कॉन्ग्रेस से लगभग यही शिकायत हिंदू महासभा को भी थी जिनके साथ बाद में लीग ने सिंध और बंगाल में गठबंधन सरकार भी बनाई (आश्चर्यजनक तौर पर ना सिर्फ़ जसवंत सिंह और आयशा जलाल बल्कि इश्तियाक साहब की किताब में भी इन गठबंधन सरकारों के बारे में एक लफ़्ज़ भी नहीं लिखा गया है।) और फजलुल हक़ की अगुआई वाली इस सरकार (1941-1943) में तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्त मंत्री तक बने।
अब इस नुक्ते (बिंदु) को ज़हन में रखकर जिन्ना की यह ज़िद देखिए कि कांग्रेस ना सिर्फ लीग को हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों की जमाअत माने बल्कि ख़ुद को भी सिर्फ़ एक हिंदू संगठन माने। जिन्ना की यह ज़िद ना सिर्फ अंग्रेज़ को सूट करती थी बल्कि उन दूसरी मुस्लिम पार्टीज के लिए भी एक डेथ वारंट थी जो लीग के साथ सहमति नहीं रखती थीं। कॉन्ग्रेस के लिए इस ज़िद को मानना बिलकुल असंभव था क्यों कि विभाजन के समय तक भी नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर (सरहदी सूबा) में फ्रंटियर कांग्रेस की सरकार थी जिसमे डॉक्टर अबदुल जब्बार ख़ान साहब (1883-1958; ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान, 1890-1988, के भाई) मुख्य मंत्री थे। इसके अलावा मुसलमानों की एक अहम तादाद ख़ुद कांग्रेस में थी। जिन्ना आखिर तक इस बात पर अड़े रहे कि कॉन्ग्रेस को किसी मुसलमान को नामज़द करने का अधिकार नहीं।
अब यहां ज़रा यह देखते हैं कि सब को नेहरू से शिकायत क्यों है?
ब्रिटिश इंडिया में ज़मीन बड़ी महत्वपूर्ण थी और लगभग सारा भारतीय समाज ऊपर से हिंदू मुसलमान इत्यादि में बंटा होने के बावजूद अपनी जड़ में सिर्फ दो तबक़े रखता था। एक जो ज़मींदार थे और दूसरे जो भूमि हीन थे। नेहरू के कांग्रेस में आगमन के बाद जितना-जितना नेहरू भूमि सुधार और किसानों के हित में मुखर होते गए उतने उतने मुसलमान ज़मींदार और कास्ट हिंदुओं का एक वर्ग कांग्रेस से अलग होता गया क्योंकि जाति के आधार में भूमि का एक बड़ा किरदार था। यही वो वक्त था जब कांग्रेस ने राउंड टेबल राजनीति, जिसे कांस्टीट्यूशनल पॉलिटिक्स भी कह सकते हैं, से ज़मीनी राजनीति की तरफ़ रुख़ किया। जिन्ना ख़ुद को कांस्टीट्यूशनलिस्ट कहते थे और ज़मीनी राजनीति उन जैसे इलीट मिजाज आदमी को रास नहीं आ सकती थी।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत कुछ बदल चुका था। उन्नीस सौ सत्रह (1917) की बोल्शेविक क्रांति यूरोपियन पूंजीपति वाद के लिए एक खतरा बनकर उभर चुकी थी पूंजीपतिवाद के लिए एशिया सबसे बड़ा बाज़ार था और उसमें भारत जैसे बड़े देश में किसी पार्टी का समाजवाद की तरफ़ झुकाव अंग्रेज़ हुकूमत को रास नहीं आ सकता था। कांग्रेस में नेहरू के बढ़ते हुए प्रभुत्व और भूमि सुधार के वादों के साथ ज़मीन पर मज़बूत होती हुई कांग्रेस ने लीग, महासभा और ब्रिटिश हुकूमत के आपसी परस्पर विरोधों के बावजूद एक दूसरे के नज़दीक आने पर मजबूर कर दिया।
जिन्ना शुरुआत में एक राष्ट्रवादी मुसलमान थे। उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक भी बताया गया। ऐक दौर में वह ऐसे दिखते भी हैं। लेकिन ध्यान दीजिए वह कौन से हिंदुओं और मुसलमानों की एकता की बात करते हैं। सिर्फ उनकी जो अपर क्लॉस हिंदू और मुस्लिम हैं लेकिन जैसे-जैसे कॉन्ग्रेस जनमानस की तरफ जाती है वह कांग्रेस से दूर होने लगते हैं। अगर ऐसा उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से किया, जैसा कि उन्नीस सौ बीस के नागपुर अधिवेशन के बाद कहा जाता है, तो यह खुद उनकी विचारधारा में उनके विश्वास पर प्रश्न चिन्ह लगाता है क्योंकि व्यक्तिगत कारण कभी आपकी विचारधारा को नहीं बदल सकते।
जिन्ना इंग्लैंड जाते हैं, वहा कुछ वर्ष रहते हैं, वहां की राजनीति में भाग लेते हैं और जब लौटते हैं तो उसी बहुसंख्यक वाद से डराने की राजनीति करते हैं जिसका कभी ख़ुद उन्होंने यह कहकर मज़ाक उड़ाया था कि क्या हिंदुस्तानी मुसलमानों जितनी बड़ी तादाद को दबा कर या दरकिनार करके कोई हिंदुस्तान पर हुकूमत कार सकता है, कभी नहीं। कभी के हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक और राष्ट्रवादी जिन्ना खुलेआम कहते हैं कि हिंदुस्तान में पाकिस्तान की बुनियाद उसी दिन पड़ गई थी जिस दिन कोई हिंदू मुसलमान हुआ और इस बात पर हिंदुओं ने उसका बहिष्कार कर दिया। ज्ञात हो कि जिन्ना के दादा मुसलमान हुए थे (और उन्हें मुसलमान औरंगज़ेब ने नहीं बनाया था) और इस बात पर उनकी बिरादरी ने उनका बहिष्कार कर दिया था।
क्या जिन्ना ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्यों कि उन्हें नागपुर में हूट किया गया था। या बंगाल, पंजाब सिंध जैसे राज्यों में अपनी पैठ बनाने के लिए जहां लाख कोशिशों के बाद भी लीग वहां की लोकल मुस्लिम पार्टीज पर हावी नहीं आ पा रही।
अब सवाल ये उठता है कि फिर लीग कुछ ही सालों मे मुस्लिम अशराफिया की एक छोटी सी पार्टी से नेशनल लेवल की पार्टी कैसे बन गई? इश्तियाक साहब इस प्रश्न का बहुत स्पष्ट उत्तर देते हैं।
मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेशों में ज़मींदारी भले ही मुसलमानों के पास थी लेकिन ट्रेड और कॉमर्स में हिंदुओं का ही वर्चस्व था। अंग्रेज़ शासन के लगान सिस्टम के तहत खोखले हो चुके मुस्लिम ज़मींदार हिंदू बनियों के कर्जदार थे ऐसे में एक अलग मुस्लिम देश का ख़्वाब ही उनकी आखिरी उम्मीद था। जिन्ना ने इस सूरत ए हाल को बहुत अच्छी तरह पढ़ लिया और वही जिन्ना जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें गांधी से धार्मिक राजनीति के आधार पर शिकायत थी, उनकी मुस्लिम लीग में शामिल मौलवियों ने खुले आम धार्मिक उन्माद की राजनीति को हवा दी और गैर लीगी मुसलमानों को मुसलमान तक मानने से इंकार कर दिया। सिंध में अल्लाह बख्श सुमरो जिन्ना के खुले मुखालिफ थे और उनको निहायत रहस्यमई हालात में कत्ल कर दिया गया। उनके कातिलों का नाम आज तक नहीं खुला।
यहां दूसरी तरफ़ मोर्चा हिन्दू महासभा ने संभाला और उसकी मुस्लिम विरोधी आवाज़ मुखर होती चली गई। इस से आम मुसलमानों में जो भय पनपा उसका पूरा फ़ायदा जिन्ना ने उठाया। खुद आयशा जलाल कहती हैं कि जिन्ना ने कभी अपने पाकिस्तान के भूगोल को स्पष्ट (क्लियर) नहीं किया। किसी को नहीं मालूम था कि पाकिस्तान होगा तो कैसा होगा, कहां तक होगा। लोगों ने पूछा भी नहीं और जिन्होंने पूछने की हिम्मत भी की उन्हें जिन्ना ने कभी बताया नहीं।
उन्नीस सौ सैतीस (1937) के चुनाव के बाद हालात और बिगड़ गए। कांग्रेस और लीग में कोई समझौता नहीं हो पाया और जो कांग्रेस की सरकार बनी उसके पास नाम मात्र के अधिकार थे। यह चुनाव कांग्रेस की अग्नि परीक्षा थे अगर कांग्रेस सरकार ना बनाती तो यह मैसेज जाता कि ख़ुद कांग्रेस में हुकूमत करने का साहस नहीं और इतने सीमित अधिकारों के साथ किसी भी काम को ज़मीन पर अमल में लाना उस सरकार के लिए असम्भव था जिसमें तमाम प्रभावित शक्तियां अंग्रेज़ गवर्नर के पास थीं। इस दौर मे भयानक हिंदू मुस्लिम दंगे हुए जिन्हें अंग्रेज़ सरकार का संरक्षण प्राप्त था। जिन्ना ने ऐसा कोई मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया।
अब द्वित्तीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और कांग्रेस ने युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए पूर्ण स्वराज की शर्त रखी। सरकार के इंकार करने के बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और तमाम कांग्रेसी नेता जेल चले गए। जिन्ना ने इस समय लार्ड लिनलिथगो को पूरा सहयोग देने का वादा किया। यह कहना तो असंभव है कि अंग्रेज़ शुरू से पाकिस्तान के समर्थक थे या नहीं लेकिन उतना ज़रूर कहा जा सक्ता है कि इसी समय अंग्रेज़ को पाकिस्तान के आइडिया में ना सिर्फ़ अपनी हुकूमत बल्कि एशिया में पश्चिमी दुनिया और उसके पूंजीपति वाद को बचाए रखने की अपार संभावनाएं नज़र आना शुरू हो गईं।
जिन्ना को बहुत अच्छी तरह मालूम था कि अंग्रेज़ क्या सुनना चाहता है। कम्युनिस्ट पार्टी ने भले ही पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया और “मुसलमान कम्युनिस्टों” को पाकिस्तान भी भेजा लेकिन जिन्ना ने कम्युनिस्टों को बहुत पहले अपनी एक तक़रीर में ख़बरदार कर दिया था।
” कम्युनिस्ट हमें पागल समझते हैं। शायद वह ठीक भी हों लेकिन इस बार अगर वह ऐसा सोच रहे हैं तो यह उनका भ्रम है। तो दूर रहो हम से ऐ कम्युनिस्टों दूर रहो,,, हमारे यहां तुम्हारे किसी लाल पीले झंडे की जगह नहीं। हमारा झंडा चांद तारे वाला हरा इस्लामी झंडा होगा।”
विभाजन और उसकी सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ कांग्रेस पर थोप देने वाली लगभग हर थियरी उन्नीस सौ सैतीस के चुनाव और लीग को सरकार में ना शामिल कर पाने से निकलती है।
लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या ज़रूरी था कि लीग अगर सरकार में आती तो सब कुछ ठीक ही चलता। यह सवाल उठाने वाले यह भूल जाते हैं कि उन्नीस सौ पैंतालीस की उस इंटेरिम गवर्नमेंट में क्या हुआ जो लीग और कांग्रेस ने बनाई और जिसमें आने वाले वक्त के पाकिस्तान के पहले वज़ीर आज़म नवाबजादा लियाकत अली खान वित्त मंत्री बनाए गए। इस सरकार में लियाकत अली खान ने अपना वह “सोशलिस्ट बजट” पेश किया जिसमें सारे टैक्स सिर्फ़ बिज़नेस क्लास पर लगाए गए और जमींदारों को छोड़ दिया गया। ऊपर कहा जा चुका है कि जमींदारियां मुसलमानों की ज़्यादा थीं, और बिज़नेस हिंदुओं का। यह बजट ना सिर्फ़ हिंदुओं बल्कि बिड़ला और डालमिया जैसे बिजनेस ग्रुप्स पर भी हमला था जो कॉन्ग्रेस की आर्थिक सहायता करते आए थे। नेहरू इस बजट के दूरगामी प्रभाव जिसका नतीजा विभाजन था, को देखते हुऐ इस बजट के लिए भी राजी हो गए लेकिन सरदार पटेल, जायज़ तौर पर इस बजट से नाराज़ हो गए। इस बजट ने व्यापारी वर्ग में खतरे की घंटी बजा दी और इसी वर्ग के दबाव में भी कॉन्ग्रेस के पास आखिर में विभाजन को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा।
इस किताब का लेखक बताता है कि जिन्ना गांधी को एक पहेली कहते थे लेकिन जिन्ना को खुद पता नहीं चला कि वह खुद कब एक पहेली बन गए। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करते करते वह ख़ुद एक बहुसंख्यक वादी में बदलते गए और जब उनसे पूछा गया कि उन मुसलमानों का क्या होगा जो हिंदुस्तान में रह जाएंगे तो उन्होंने जवाब दिया कि अगर एक छोटी आबादी को अपनी बड़ी आबादी की आज़ादी के लिये कुर्बानी देनी पड़े तो उन्हें वह कुर्बानी देनी चाहिये। उन्होंने मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट को जिसमें मुस्लिम बहुल राज्यों को लगभग सारे अधिकार देते हुए सिर्फ़ सुरक्षा, विदेश मामले, और टेली कम्युनिकेशन के क्षेत्र मे एक सेंट्रल गवर्नमेंट के मातहत रहने का प्रस्ताव दिया गया था यह कहके खारिज कर दिया कि सेंट्रल गवर्नमेंट के मातहत इन राज्यों को कभी पूरी स्वायत्तता नहीं मिल सकती लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद एक समय वह खुद प्रांत और प्रांतीय सरकारों के ख़िलाफ़ हो गए और सिर्फ़ सेंट्रल गवर्नमेंट की हिमायत करते नज़र आए।
आज़ादी के समय नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर में फ्रंटियर नेशनल कांग्रेस की सरकार थी फिर भी वह प्रांत पाकिस्तान को दिया गया और जब उस कांग्रेस ने एक अलग पख्तूनिस्तान की मांग की तो डॉक्टर खान को ज़बरदस्ती इस्तीफ़ा दिला कर वहां अब्दुल कय्यूम खान की अगुआई में लीग की सरकार बनवा दी गयी। क्या जिन अधिकारों के नाम पर जिन्ना ने पाकिस्तान मांगा और पाया भी उन्हीं अधिकारों के आधार पर पठानों को पख्तूनिस्तान का अधिकार नहीं था.
जिन्ना आखिर आते आते ख़ुद को क्या समझने लगे थे इसकी मिसाल इस किताब में लिखे एक वाक़ये से मिलती है। सिखों का एक डेलिगेशन जिन्ना से मिलने गया जिनके सामने जिन्ना ने पाकिस्तान मे शामिल होने का बड़ा लुभावना प्रस्ताव रखा। जब उनसे हरदीत सिंह मलिक ने पूछा कि जब तक आप हैं जिन्ना साहब तब तक तो यह प्रस्ताव ठीक हैं लेकिन आपके बाद क्या होगा तो जिन्ना ने जवाब दिया कि मेरे हुक्म को मेरे बाद पाकिस्तान में इस तरह माना जायगा जैसे खुदा का हुक्म माना जाता है। बहरहाल खुदा और भगवान के नाम पर सियासत करने वालों का ख़ुद को ख़ुदा या भगवान समझने लगना कोई नयी बात नहीं।
पाकिस्तान किसके लिए बना इस सवाल के जवाब को सोचने के लिये यह किताब काफ़ी मवाद मुहैया कराती है।
लेखक इस किताब मे एक जगह लिखता है कि जब चर्चिल से पूछा गया कि अगर हमे हिन्दुस्तान छोड़ना ही पड़ जाय तो हमारी क्या नीति होनी चाहिये तो चर्चिल ने जवाब दिया कि थोड़ा सा हिन्दुस्तान अपने पास रखकर। क्या वही थोड़ा सा हिन्दुस्तान पाकिस्तान की शकल मे सामने आया. एक और वाक़ेया (घटना) इस किताब में है जिस से यह सवाल पूरी तरह हल ना भी हो तो भी कुछ रोशनी तो डालता ही है। एक कॉन्ट्रोवर्सी ये भी है कि पाकिस्तान रेजोल्यूशन किसने लिखा था तो इश्तियाक साहब इस किताब मे खान अब्दुल ग़फ्फार खान के बेटे, वली खान (1917-2006), की गवाही नक़ल करते हैं जिसके अनुसार उन्होंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा था कि वो रेजोल्यूशन सर जफरुल्लाह (1893-1985), जो पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री बने, ने लिखा और उसका इमला (dictation) उन्हें लॉर्ड लिनलिथगो ने बोला था।
जिन्ना सारे मुसलमानों को एक नेशन मानते थे और उनके समर्थक उन्हें अपना कायद। सर जफरुल्लाह उन्हीं समर्थकों मे से एक थे लेकिन जब जिन्ना का इंतकाल हुआ तो उन्होंने यह कह कर जिन्ना के जनाजे की नमाज पढ़ने से मना कर दिया कि किसी ग़ैर कादियान के जनाज़े की नमाज़ पढ़ना जायज़ नहीं। उनके जनाज़े की दो नमाज़ें हुईं। एक प्राइवेट तौर पर जो शिया तरीक़े से हुई जो उनकी बहन ने पढ़वाई। आधिकारिक नमाज़ सुन्नी तरीक़े से हुई जिसे मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी (1887-1949) ने पढ़ाया।
पाकिस्तान से मुसलमानों ने क्या पाया?
आज बंटवारे के पचहत्तर साल बाद हम इस सवाल का, पूर्ण ना सही, लेकिन आंशिक उत्तर ज़रूर पा सकते हैं। जब रूस से अमेरिका को लड़ना था तो इसी पाकिस्तान के मुसलमानों को मुजाहिदीन बनाकर उस लड़ाई मे झोंक दिया और जब उन्हीं मुजाहिदीन पर बाद में अमेरिका को बम बरसाने थे तो इसी पाकिस्तान की ज़मीन से उसके फाइटर जेट्स ने उड़ान भरी। जब सुएज वार हुई तो नेहरु ने नासिर के समर्थन में स्टैंड लिया मगर पाकिस्तान ने इंग्लैंड का समर्थन किया (पाकिस्तानी स्कॉलर डॉ. तैमूर अहमद का अरब इस्राइल-संघर्ष पर वीडियो देखें) हिन्दुस्तानी मुसलमान जिनकी सुरक्षा की गारंटी जिन्ना के अनुसार होस्टेज (यरग़माल) थ्योरी थी उनके लिये खुले आम हिन्दुस्तान की पार्लियामेंट मे सीएए जैसा कानून पास हुआ। अगर पाकिस्तान ना बनता तो पाकिस्तान के मुस्लिम बहुल प्रांत भारत के बॉर्डर स्टेट्स होते। क्या उस सूरत में भी हिंदुस्तानी मुसलमान हिन्दुस्तान की राजनीति में उतना ही अप्रासंगिक होता जितना आज हो गया है?
आज भारत मे दायें बाज़़ू की (दक्षिण पंथी) भगवा पार्टी के उरूज के साथ यहां फिर एक बार जिन्ना ब्रांड राजनीति के लिये ज़मीन तैयार है और हिन्दुस्तानी मुसलमान को फिर एक बार तय करना है कि उसे किस तरफ़ जाना है। सेपेरेट इलेक्ट्रोरेट की तरह एक बार फिर “अपनी क़यादत” का नारा फ़ज़ा में गूंज रहा है। पाकिस्तान “तहरीक” का उदाहरण हिन्दुस्तानी मुसलमान के सामने है। कल भी यह राजनीति सिर्फ़ उन प्रांतों को सूट करती थी जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक थे। “अपनी क़यादत” का नारा भी सिर्फ़ उन कांस्टिट्एंसीज (seats) के मुसलमानों को सूट करता है जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। लेकिन जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं वहां के लिये कोई ब्लू प्रिंट ना पाकिस्तान तहरीक के समर्थकों के पास था, ना आज, “अपनी क़यादत” की बात करने वालों के पास।
(अमीर इमाम, ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है, और साहित्य अकादमी से शायरी में पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।)