क्रिस्टॉफ जेफरलॉट और कलैयारासन ए का लेख: उच्च शिक्षा के हाशिए से भी बाहर कर दिए गए मुसलमान

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हाल ही में ‘उच्च शिक्षा की स्थिति पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2020-21’ की रिपोर्ट जारी हुई है। इसने काफी विषमताओं को उजागर किया है। एक ओर उच्च शिक्षा में दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के नामांकन में 2019-20 की तुलना में क्रमशः 4.2 प्रतिशत, 11.9 प्रतिशत और 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जहां ऊंची जातियों का उच्च शिक्षा में नामांकन 2000 के दशक के अंत में मंडल-2 के कार्यान्वयन के साथ घटता जा रहा था, वह 13.6 प्रतिशत की अब तक की उच्चतम विकास दर हासिल कर चुका है। दूसरी ओर, मुस्लिम छात्रों के नामांकन में 2019-20 से 8 प्रतिशत, यानि 1,79,147 छात्रों की गिरावट आयी। इस स्तर की गिरावट हाल के दिनों में किसी भी समूह के लिए कभी नहीं हुई है।

इस गिरावट का सर्वाधिक 36 प्रतिशत हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश में हुआ है, इसके बाद जम्मू और कश्मीर में 26 प्रतिशत, फिर महाराष्ट्र (8.5 प्रतिशत), तमिलनाडु (8.1 प्रतिशत), गुजरात (6.1 प्रतिशत), बिहार (5.7 प्रतिशत) और कर्नाटक (3.7 प्रतिशत)। केवल तमिलनाडु को छोड़कर, मुसलमानों के नामांकन में संख्या के मामले में सभी राज्यों में गिरावट दिखी है। हालांकि जिन राज्यों में मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा रहता है, वहां गिरावट भी ज्यादा हुई है, फिर भी छोटे राज्यों में भी यही रुझान दिख रहा है। उदाहरण के लिए, 2019-20 से 2020-21 के बीच, दिल्ली ने अपने लगभग 20 प्रतिशत मुस्लिम छात्रों को खो दिया, जबकि जम्मू-कश्मीर ने लगभग 36 प्रतिशत को खो दिया है।

अगर ओबीसी छात्रों का उच्च शिक्षा में कुल नामांकन लगभग 36 प्रतिशत, दलितों का 14.2 प्रतिशत और आदिवासियों का 5.8 प्रतिशत है, तो मुसलमान मात्र 4.6 प्रतिशत नामांकन के साथ सबसे निचली पायदान पर हैं, जबकि वे लगभग 15 प्रतिशत समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।

2006 में प्रस्तुत ‘सच्चर समिति की रिपोर्ट’ ने दिखाया कि शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों की स्थिति देश के सबसे पिछड़े समुदायों के बराबर या उससे भी बदतर है। तब से उनका हाशियाकरण और गहरा होता गया है। शुरू में मुसलमान दलितों से थोड़े ऊपर थे। लेकिन 2017-18 में दलितों ने शिक्षा में मुसलमानों को पीछे छोड़ दिया और 2020-21 में आदिवासी भी उन्हें पीछे छोड़ कर आगे निकल गये।

यदि हम सिर्फ 18-23 वर्ष आयु समूह पर ही ध्यान दें, तो ‘पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे’ (पीएलएफएस) के आंकड़े भी इसी प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं। मुसलमानों की हालत दलितों और आदिवासियों से भी बदतर हैं। इस स्रोत के अनुसार, वर्तमान में मुसलमान छात्रों में से सिर्फ 19 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा संस्थानों में जा रहे हैं, जबकि वहीं आदिवासी छात्रों में से 21 प्रतिशत, दलित 26 प्रतिशत, हिंदू ओबीसी 34 प्रतिशत और हिंदू उच्च जातियों के छात्रों में से 45 प्रतिशत उच्च शिक्षा में जा रहे हैं। 2020-21 में, प्रमुख राज्यों में तमिलनाडु, तेलंगाना और दिल्ली को छोड़कर किसी भी राज्य में मुसलमान छात्रों का प्रतिशत दलितों से बेहतर नहीं रहा। राजस्थान, असम, गुजरात, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे कई राज्यों में आदिवासी छात्रों का प्रतिशत मुसलमानों से बेहतर रहा है।

सबसे अधिक आबादी वाला राज्य होने के नाते, यूपी के आंकड़े राष्ट्रीय औसत को और नीचे गिरा देते हैं। इस राज्य में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है, जबकि उच्चशिक्षा में कुल नामांकनों में उनकी संख्या सिर्फ 4.5 प्रतिशत है। अकेले यूपी में 2019-20 से 58,365 मुस्लिम छात्र ड्रापआउट हुए, यानि पढ़ाई छोड़ दिये। यह 16 प्रतिशत की गिरावट है। यदि यूपी मुसलमानों की गहराती जा रही वंचना की कहानी पेश करता है, तो दूसरी तरफ केरल उनके आगे बढ़ने की कहानी पेश करता है। केरल में न केवल नामांकन में सकारात्मक वृद्धि दिखी है, बल्कि यहां वर्तमान में उच्च शिक्षा में भाग ले रहे मुस्लिम युवाओं का प्रतिशत भी सबसे ऊपर (43 प्रतिशत) है। मुसलमानों के पक्ष में सदियों पुराने सकारात्मक प्रोत्साहन ने इस समुदाय को राज्य में शैक्षिक राजधानी बनाने में मदद की है।

केरल में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 12 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलता है। हिंदू एझावा जाति (14 प्रतिशत) के बाद यहां की आबादी में मुसलमान दूसरा सबसे बड़ा समुदाय हैं, इसीलिए वे राज्य ओबीसी कोटे में अपने हिस्से के लिए भी दावा करते हैं।

हलांकि मुसलमानों के हाशियेकरण की शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी, फिर भी हाल के दिनों में इस रुझान में आयी तेजी एक नयी प्रक्रिया है। इसे कैसे समझा जाए? बढ़ते हुए हिंदू बहुसंख्यकवाद के संदर्भ में कुछ कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी हो सकती है।

पहला, भविष्य अंधकारमय है क्योंकि मुसलमानों के लिए नौकरियों के अवसर दूसरों की तुलना में भी काफी कम हो रहे हैं। सभी सामाजिक-धार्मिक समूहों के बीच सबसे ऊंची बेरोजगारी दर को वही झेल रहे हैं। सर्वेक्षण के लिए चिह्नित सप्ताह में नियमित/वेतनभोगी श्रमिकों में से काम न पाने वाले मुसलमानों का प्रतिशत 2018-19 में 1.6 से बढ़कर 2019-20 में 13.2 हो गया। ये आकड़े नौकरी के क्षेत्र में एक हद तक एक खास तरीक़े के भेदभाव को प्रतिबिंबित करते हैं। एक पुरानी प्रवृत्ति है, जिसकी पुष्टि सर्वेक्षणों में हुई है: आप उसी बायोडाटा (सीवी) को ब्राह्मण नामों, दलित नामों और मुस्लिम नामों के साथ भेजते हैं, तो साक्षात्कार के लिए आमंत्रित किए गए लोगों में मुस्लिम नाम वालों का प्रतिशत सबसे कम रहता है।

दूसरा, ऐसे धूमिल परिदृश्य में, हो सकता है कि किसी के पास पढ़ने के लिए पर्याप्त धन न हो और जीविकोपार्जन की मजबूरियां भी ज्यादा हों। यही कारण है कि, मुस्लिम युवाओं के बीच स्कूल छोड़ने की दरें काफी ऊंची हैं और वे बुनाई और कारों की मरम्मत जैसे मेहनत वाले काम और कम आमदनी वाले स्व-रोज़गार का क्षेत्र चुनते हैं, जिसके लिए इस समुदाय को जाना जाता है।

तीसरा, मुसलमानों के खिलाफ बढ़ती हिंसा ने उनकी एक स्थान से दूसरे स्थान की गतिशीलता को सीमित कर दिया है और उन्हें अपने खोल में वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया है। उन्हें सामुदायिक संकीर्ण बस्तियों (घेटो) में बंद कर देने की यह प्रक्रिया लगभग सभी भारतीय शहरों में साफ-साफ दिख रही है।

जैसा कि सच्चर समिति की रिपोर्ट और (इससे भी अधिक) रंगनाथ मिश्रा समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों में भी कहा गया है, इस संदर्भ में सरकार के लिए एकमात्र उचित नीति यह होगी कि मुसलमानों के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव और प्रोत्साहन शुरू किये जाएं। कुछ दक्षिणी राज्यों ने ऐसे क़दम सफलता पूर्वक उठाये हैं। लेकिन ऐसे प्रोत्साहनों की शुरुआत की कौन कहे, इसके विपरीत, मुसलमानों के लिए राज्य का समर्थन कम हो गया है। कर्नाटक में मुसलमानों को ओबीसी कोटा के भीतर 4 प्रतिशत का एक उप-कोटा दिया जा रहा था, उसे हाल ही में भाजपा सरकार द्वारा हटा दिया गया। अल्पसंख्यक छात्रों को उच्च शिक्षा में आगे बढ़ाने के लिए दी जाती रही मौलाना आज़ाद फेलोशिप को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने 2022-23 से बंद कर दिया है।

कमजोर अल्पसंख्यकों की उच्च शिक्षा तक पहुंच को निशाना बनाने वाली ऐसी सतत भेदभाव वाली नीति क्या कहीं और दिखती है? हां, ऐसा केवल उन देशों में हुआ है जहां उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की मंशा थी। और वहां इस नीति के कुपरिणाम दिखे, लेकिन कभी भी वहां सामंजस्यपूर्ण विकास नहीं हुआ।

( क्रिस्टॉफ जेफरलॉट और कलैयारासन ए का लेख।‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद : शैलेश)

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