‘इत्तफ़ाक-ए-आज़म’ की रिहाई से आगे क्यों नहीं बढ़ा सुप्रीम कोर्ट?

27 महीने बाद आज़म ख़ां सीतापुर जेल से रिहा हो गये। इससे पहले बारंबार रिहाई की स्थितियां बनीं, लेकिन रिहाई के एन वक्त पहले नया केस दर्ज करा दिया जाता और आज़म ख़ान जेल में रहने को विवश हो जाते। अब तक 89 मामले इत्तफ़ाक से आज़म खान के खिलाफ दर्ज हो चुके हैं। इत्तफ़ाक-ए-आज़म बन चुके आज़म खां जब कभी ज़मानत के बाद जेल से छूटने को होते, ‘इत्तफ़ाक’ से एक और केस उन पर चस्पा कर दिया जाता।

हद तो तब हो गयी जब दिसंबर में ज़मानत याचिका पर सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया। पांच महीने तक फैसला सुरक्षित रहा। क्यों? क्या यह भी इत्तफाक था? जाहिर है ऐसे में यह कहने या सोचने की पूरी छूट मिल जाती है कि आज़म खां पर किसी नये ‘इत्तफाक’ के इंतज़ार में फैसला सुरक्षित रहा कि कहीं जेल से न छूट जाएं आज़म खां!

सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की खंडपीठ ने आज़म खां को ज़मानत देने संबंधी याचिका पर सुनवाई करते हुए ऐसे ‘इत्तफ़ाक’ पर हैरानी जताई। राज्य सरकार से भी जवाब मांगे गये हैं। आज़म खां को ज़मानत नहीं मिले, इसके लिए कोई शक्ति थी जो ‘इत्तफाक’ पैदा कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस शक्ति को बेनकाब करने में अपनी ऊर्जा जाया करना उचित नहीं समझा और उसने अनुच्छेद 142 के तहत हासिल विशेष शक्ति का इस्तेमाल करते हुए आज़म खां को अंतरिम ज़मानत दे दी।

सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के अधिकार को बनाए रखा है और कहा है कि अगर आज़म खां की जमानत याचिका खारिज हो जाती है तब भी उसके अगले दो हफ्ते तक अंतरिम आदेश प्रभावी रहेगा। इस तरह आज़म खां के लिए एक और ‘इत्तफाक’ से कानूनी तरीके से लड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट स्थितियां बना दी हैं। कई सवाल खड़े हो रहे हैं-

सवालों में सुप्रीम कोर्ट

पहला सवाल, ज़मानत देने के लिए क्या सुप्रीम कोर्ट हुआ करती है?
दूसरा सवाल, विशेष परिस्थितियां बनीं तो सुप्रीम कोर्ट ने क्यों ऐसी परिस्थितियां फिर नहीं बने इसके लिए कोई कदम उठाया?

तीसरा सवाल, सुप्रीम कोर्ट जिस ‘इत्तफाक’ पर जोर देती दिखी वही इत्तफाक निचली अदालतों को दिखायी क्यों नहीं पड़ी?

चौथा सवाल, क्यों नहीं आज़म खां को जमानत नहीं मिलने देने से जुड़े ‘इत्तफाक’ को केस स्टडी मानकर किसी जांच समिति से इसकी जांच कराने का फैसला लिया गया?

पांचवां सवाल, निचली अदालत की बेजा कार्रवाइयों पर अंकुश के लिए सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं कदम उठाती?

छठा सवाल, प्रशासन की कार्रवाई जो संदिग्ध जान पड़ती है उसकी जांच को लेकर कोई पहल क्यों नहीं की गयी?

अगर सुप्रीम कोर्ट के लिए यह मजबूरी बन गयी कि आज़म खां की ज़मानत अर्जी पर विचार करने के लिए उसे प्राप्त विशेष शक्तियों का इस्तेमाल किया जाए, तो उसका यह कर्त्तव्य भी बन जाता है कि भविष्य में ऐसी शक्तियों का बारंबार इस्तेमाल ना हो इसकी वह पुख्ता व्यवस्था करे। 

आज़म खां राजनीतिक व्यक्ति हैं। पूर्व मंत्री हैं। सांसद हैं। समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में हैं। उन्हें अगर सत्ता में रहने का फायदा मिलता रहा है और इस दौरान कथित रूप से सत्ता का दुरुपयोग व्यक्तिगत फायदे के लिए किया गया है तो विपक्ष में रहते हुए आज़म खां को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। मगर, प्रश्न यह है कि प्रशासन और न्यायालय का भी बदले की भावना से दुरुपयोग-चाहे बचाने के लिए या फिर फंसाने के लिए हो सकता है? इस प्रश्न को उन ‘इत्तफाकों’ के मद्देनज़र दबाया नहीं जा सकता जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने चिन्हित किया है।

राजनीति रुख बदलती है तो क्या परिस्थिति बदल जाती है?

यह बात भी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है कि आज़म खां की ओर से संकेत दिए जा रहे हैं कि वे समाजवादी पार्टी छोड़ सकते हैं। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि जब तक वे झुके नहीं, तब तक उन्हें सलाखों के पीछे रहना पड़ा?  ऐसे में प्रश्न उठता है कि सुप्रीम कोर्ट से आज़म खां की रिहाई भी क्या ‘इत्तफाक’ है कि उन्होंने राजनीतिक निष्ठा पर पुनर्विचार करना शुरू किया और वे जेल से बाहर आ गये?

जो ‘इत्तफाक’ लगातार पैदा होते रहे हैं उस पर विचार करना संवैधानिक संस्थाओं के लिए जरूरी हो गया है। राजनीति लगातार ऐसे ‘इत्तफाक’ पैदा कर रही है और इसके लिए संवैधानिक संस्थाओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस्तेमाल होता दिख रहा है। इसी वजह से यह आवश्यक हो जाता है कि आज़म खां के केस को केस स्टडी के तौर पर लिया जाए और इस मामले से जुड़े सारे ‘इत्तफाक’ सामने लाने के लिए स्पेशल कमेटी बने। 

कैसे रुकेंगे ‘इत्तफाक’?

जिग्नेश मेवानी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वे जेल से रिहा ना हों, इसके लिए केस दर केस ठोंके गये। झूठे गवाह खड़े किए गये। इस मामले में भी गुवाहाटी की अदालत सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में ‘इत्तफाक’ को परखने में जुटी है और परखा भी है। भीमा-कोरेगांव मामले में भी लंबे समय से देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी जेलों में बंद हैं। वे जेल से बाहर नहीं निकलें, इसके लिए तमाम हथकंडे अपनाए गये। 87 वर्षीय स्टेन स्वामी बगैर ट्रायल और बगैर जमानत के ऐसी स्थिति में मौत के मुंह में चले गये जब उनकी याददाश्त जा चुकी थी, वे अपने मुंह से खुद पानी तक नहीं पी सकते थे। मौत के बाद अदालत को भी उनसे माफी मांगनी पड़ी थी।

किसी को कठघरे में खड़ा करते हुए जेलों में बंद रखने के लिए अगर इत्तफाकों की झड़ी लगी है तो कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें अभियुक्तों को जेल से बाहर रखने के लिए भी ‘इत्तफाक’ पैदा किए गये हैं। जस्टिस लोया की रहस्यमय मौत पर पर्दा पड़ा हुआ है। साध्वी प्रज्ञा जेल से बाहर हैं। कई लोग ऐसे हैं जो खुलेआम नफरत फैलाने वाले भाषण या नारे लगाकर भी शासन-प्रशासन और कानून की जद में नहीं आ पा रहे हैं। अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा जैसे नेता इसी श्रेणी में आते हैं। जेएनयू में बाहर से आए हमलावरों का बाल भी बांका न हुआ जबकि जेएनयू कैंपस के छात्रों के खिलाफ केस की झड़ियां लग गयीं।

आज़म खां केस बानगी है। इस केस के बहाने देश के तमाम ‘इत्तफाकों’ की पहचान और उपचार की पहल की जा सकती थी। आखिर जो बात सुप्रीम कोर्ट के जजों को महसूस हुई, वही बात इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों को क्यों महसूस नहीं हुई? कानून के दुरुपयोग पर मौन क्यों? क्या सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक-प्रशासनिक सुधार का एक अवसर गंवा नहीं दिया है?

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

प्रेम कुमार
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