Friday, April 19, 2024

क्योंकि मोदी जी को लोगों की जिंदगियों से ज्यादा अपनी सत्ता प्यारी है!

मोदी जी कोरोना के खिलाफ लड़ाई में फंड के तीन संभावित स्रोत हैं। पीएम केयर्स, राज्यों को मिलने वाली जीएसटी का हिस्सा और अलग से घोषित कोई पैकेज। अब आइये बारी-बारी से इन तीनों पर बात करते हैं। आपने कोरोना से लड़ाई के नाम पर पिछले साल पीएम केयर्स के नाम से अपना निजी ट्रस्ट गठित कर लिया था और फिर उसमें देश के कॉरपोरेट को सीएसआर से लेकर दूसरे फंड को देने की खुली छूट दे रखी थी। जिसमें आपने हजारों करोड़ रुपये इकट्ठा किए। यहां तक कि राज्य सरकारों और उनकी सहायता कोषों को सीएसआर से दिए जाने वाले पैसों पर आपने रोक लगा दी थी। और खर्चे के नाम पर अभी तक पीएम केयर्स से जो पैसा सामने आया है उसमें अहमदाबाद के फर्जी वेंटिलेटर का एक सौदा था जिसमें तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपये दिए गए थे। बाकी पीएम केयर्स का पैसा क्या हुआ और उसकी क्या योजना है इसको लेकर न तो आपकी तरफ से कुछ बोला गया और नही पीएमओ की तरफ से। एक ऐसे समय में जबकि देश में हर चीज की किल्लत है। और राज्य सरकारें जूझ रही हैं। तब पीएम केयर्स के पैसे पर जो कि उसी के नाम पर लिया गया है, आप का कुंडली मारकर बैठे रहना कितना जायज है? माना कि आप चुनाव में व्यस्त हैं लेकिन पीएमओ को यह जिम्मेदारी दी जा सकती थी। या फिर ब्यूरोक्रेसी इस चीज को देख सकती थी। यह सही बात है कि पिछले सात सालों के शासन में यह बात हो गयी है कि एक आदमी के इशारे के बगैर सत्ता के पेड़ का एक पत्ता नहीं हिलता। वरना इस देश की ब्यूरोक्रेसी जो सत्तर सालों से काम कर रही है, इतनी अक्षम नहीं है। वह चीजों को संभालना जानती है और बस उसे मौका मिलने की देरी है। लेकिन सच्चाई यह है कि पीएम मोदी की तरफ से ही इसका इशारा नहीं हो रहा है।

दूसरा फंड का स्रोत है जीएसटी। जिसके सहारे राज्य सरकारें और उनकी व्यवस्था चलती है। लेकिन उसकी सच्चाई यह है कि राज्य सरकारों के जीएसटी के बकाए का बड़ा हिस्सा केंद्र उनको दे ही नहीं रहा है। ऐसे में लगातार सूबे की सरकारें आर्थिक मोर्चे पर संकटों का सामना कर रही हैं। अब जबकि कोरोना काल बन गया है और सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों को निभानी पड़ रही है तब केंद्र अगर उनके बकाए का पैसा ही दे दिए होता तो शायद आज तस्वीर कुछ दूसरी होती। 

और तीसरा मद था केंद्र द्वारा पैकेज की घोषणा। देश में कोरोना को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। मौत सड़कों पर नाच रही है। लोग अपनी आंखों के सामने अपनों को खोते देख रहे हैं और कुछ नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि न तो सरकार की तरफ से कोई व्यवस्था है और न ही उसकी कोई योजना। अस्पताल मरीजों से फुल हैं और श्मशान लाशों से। ऐसे में क्या केंद्र की तत्काल यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह एक बड़े पैकेज का ऐलान करे। जिसमें पैसे से लेकर तमाम सुविधाओं को बढ़ाने की योजना हो। लेकिन मोदी जी के लिए लोगों को मौत के मुंह से निकालना नहीं बल्कि बंगाल की सत्ता हासिल करना पहली प्राथमिकता बनी हुई है। एक क्रिकेट खिलाड़ी की अंगुली में चोट का दर्द महसूस करने वाले मोदी जी पर हजारों-हजार मौतों का भी कोई असर नहीं पड़ रहा है। उन्होंने इन मौतों पर दो शब्द भी कहना जरूरी नहीं समझा।

दरअसल कोरोना अभी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। उसके लिए यह महज एक अवसर है जिसमें वह अपना सब कुछ हल कर लेना चाहती है। सरकार अगर रत्ती भर भी कोरोना को लेकर चिंतित होती तो वह सबसे पहले हरिद्वार के कुंभ को रद्द करती। या फिर उसका आयोजन इतना नियंत्रित और सीमित कर देती जिससे किसी पर कोई असर ही नहीं पड़ता। लेकिन उसे तो देश में धर्मांधता फैलानी है। लोगों को जाहिलियत की सुरंग में झोंक देना है। इस सरकार से ज्यादा समझदार तो साधु-संत और उनके अखाड़े दिखे। जिन्होंने आज से अपनी तरफ से ही कुंभ के समाप्ति की घोषणा कर दी है। वरना वहां का जाहिल मुख्यमंत्री तो ज्यादा से ज्यादा लोगों के कुंभ में पहुंचकर गंगा में डुबकी लगाने का आह्वान कर रहा था। उसने साफ-साफ कहा कि तब्लीगियों को इसलिए कोरोना हो गया था क्योंकि वो बंद कमरे में थे यहां कुंभ का आयोजन तो खुले में हो रहा है और गंगा मैइया किसी को कोरोना नहीं होने देंगी। यह जमूरा इसके पहले भी इसी तरह का कई बयान दे चुका है और चौतरफा हंसी का पात्र बन चुका है। लेकिन यह बीजेपी-संघ की सोची समझी रणनीति है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे पार्टी के तमाम नेता अक्सर इसी तरह के बयान देते दिख जाते हैं जिसको कि कोई आम आदमी भी मूर्खतापूर्ण करार देगा। लेकिन इसके जरिये ये समाज को एक जाहिल समाज के रूप में तब्दील करने के अपने एजेंडे पर काम कर रहे होते हैं। क्या आपने कभी किसी नेता के बयान को उसके बड़े नेता के जरिये खारिज करते या फिर उसे नसीहत देते देखा है? यही बात बताती है कि इसको लेकर उनके बीच आम सहमति है।

मोदी जी के बंगाल के चुनाव प्रचार से लौटने के बाद भी कोरोना उनकी प्राथमिकता में नहीं होगा। प्राथमिकता में होगा किसान आंदोलन और उसका निपटारा। आपदा में अवसर इस सरकार का सिद्धांत बन गया है। और हर मौके पर वह उसे व्यवहार में तब्दील करने से नहीं चूकती। अनायास नहीं खबरें आनी शुरू हो गयी हैं कि आपरेशन क्लीन चलाया जाएगा और बॉर्डर पर बैठे किसानों को पुलिसिया बल पर हटा दिया जाएगा। अब कोई पूछ सकता है कि मोदी जी अगर कुंभ में कोरोना नहीं हो सकता है तो बॉर्डर पर निश्चित दूरी पर बने कैंपों और उसमें रहने वाले लोग कैसे इसकी चपेट में आ सकते हैं। लेकिन मोदी के लिए सबसे बड़ा संकट बने इस आंदोलन को निपटाने का इससे बेहतर अवसर कोई दूसरा नहीं हो सकता है। इसके अलावा आपदा रूपी इस अवसर में क्या कुछ होगा उसके बार में सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं। लेकिन एक बात बिल्कुल तय है कि उन्हीं चीजों को अंजाम दिया जाएगा जो जनता के पक्ष में नहीं होंगी।

हां, इस बीच सरकार और उसका पूरा निजाम किसी तब्लीगी जमात की खोज में रहेगा और उनकी पूरी कोशिश होगी कि कैसे दूसरे दौर के कोरोना की जिम्मेदारी उनके सिर मढ़ दिया जाए। जिसमें कोरोना से निपटने की जिम्मेदारी से इतिश्री भी हो जाएगी और समाज में सांप्रदायिक जहर घोलने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। और जरूरत पड़ी तो इसको साजिशन कृत्रिम रूप से तैयार भी किया जा सकता है। इसलिए अगर कहीं कोई इस तरह की घटना हो तो उस पर ज्यादा अचरज करने की जरूरत नहीं है।

हां एक दूसरी बात और। भक्तों के एक हिस्से की तरफ से यह कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने पूरे देश में कोरोना फैलाया है। जबकि सच्चाई यह है कि महाराष्ट्र सरकार ही अकेली ऐसी सरकार है जिसने कोरोना से निपटने में पूरी गंभीरता दिखायी है और उसके लिए जो भी जरूरी उपाय हो सकते हैं उसको पूरा करने का काम किया है। वह टेस्टिंग का मामला हो या फिर क्वारंटाइन करने का। या फिर चरणबद्ध तरीके से सीमित और नियंत्रित लॉकडाउन में जाने का। यही कारण है कि महाराष्ट्र में मौतों की संख्या दूसरे राज्यों के मुकाबले बहुत कम है। महाराष्ट्र से कोई ऐसी तस्वीर नहीं आयी है जिसमें श्मशान घाटों पर लाशों की कतार लगी हो। या फिर इस तरह की खबर हो कि लाशें इतनी जलायीं गयीं कि चिमनी ही गल गयी।

कोरोना के प्रति सरकार किस आपराधिक स्तर तक लापरवाह है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बंगाल चुनावों के बाकी चरणों के चुनावों को एक साथ कराने या फिर तय चरणों में ही संपन्न करने पर चुनाव आयोग ने सर्वदलीय बैठक बुलायी थी। जिसमें बीजेपी को छोड़कर बाकी सभी दलों का मत था कि बाकी सारे चरणों को एक साथ क्लब कर देना चाहिए। जबकि बीजेपी पुरानी तय तारीखों पर ही चुनाव की पक्षधर थी। और फैसला भी चुनाव आयोग ने उसी की राय के मुताबिक किया। यानी पुराने टाइम टेबल के ही हिसाब से चुनाव होंगे। अब इसमें कोई पूछ ही सकता है कि अगर सत्तारूढ़ पार्टी की ही राय माननी थी तो चुनाव आयोग ने बैठक क्यों बुलाई? बहरहाल ऐसे ही थोड़े इस आयोग का नाम केंचुआ पड़ गया है। लेकिन इस घटना से यह साबित हो जाता है कि बीजेपी के लिए लोगों की जिंदगियां कम सत्ता हासिल करना ज्यादा मायने रखता है। 

(जनचौक के संपादक महेंद्र मिश्र का लेख।)

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