लूट, शोषण और अन्याय की व्यवस्था के खिलाफ भगत सिंह बन गए हैं नई मशाल

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आखिर ऐसी क्या बात है कि जब भी हम भगत सिंह को याद करते हैं तो हमें वे युवा के रूप में ही याद आते हैं! भगत सिंह का नाम उनके जीवन काल में ही क्रांति का प्रतीक बन गया था, और आज भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों ही मुल्कों में हर तरह के शोषण, उत्पीड़न और अन्याय के खात्मे के लिए लड़ने वाले आदर्शवादी युवकों के दिलों में भगत सिंह की छवि तथा उनका जोश और जज्बा हिलोरें मारता रहता है और उनकी जुबान पर उनका नारा ‘इन्क़लाब-ज़िंदाबाद’ गरजता रहता है।

दरअसल न केवल मेरे पिताजी और दादाजी भगत सिंह को अपने युवा दोस्त के रूप में याद करते रहे हैं, बल्कि मेरे बाद की असंख्य पीढ़ियां भी आंखों में हर तरह के अन्याय और गैर-बराबरी से मुक्त एक बेहतरीन दुनिया का सपना लिए और उस सपने के लिए हंसते-हंसते अपना सर्वस्व न्योछावर करने की उद्दाम लालसा लिए, ओठों पर तरुणाई का तराना गाते हुए भगत सिंह को अपने हमजोली, अपने यार, अपने साथी के रूप में ही याद करेंगी।

मैं अकसर भगत सिंह को अपने इर्द-गिर्द तलाशने की कोशिश करता हूं, और सच बताऊं कि मुझे निराशा नहीं होती है। मैं सोचता हूं कि यदि आज भगत सिंह होते तो कहां पर होते और क्या कर रहे होते। जब मैं उन जगहों पर जाता हूं तो वहां पर हर उम्र के युवा मिल जाते हैं जो ठीक वही काम कर रहे होते हैं जो मैं भगत सिंह से उम्मीद करता।

फांसी से तीन दिन पहले 20 मार्च, 1931 को पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र में वे लिखते हैं, “हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।” इस बात से उनकी भावना स्पष्ट है कि उनकी क्रांति केवल शासक-परिवर्तन या सत्ता-परिवर्तन नहीं है, बल्कि वह व्यवस्था-परिवर्तन करना चाहते हैं।

यानि एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए जिसमें कोई ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा जैसा भेदभाव न हो। जहां न कोई इतना ताकतवर हो कि अन्य लोगों का शोषण कर सके, न ही कोई इतना बेबस और मजबूर हो कि उसका शोषण हो सके। जब भी मैं समाज में ऐसे लोगों को देखता हूं जो अपने सुख-दुख की परवाह किए बिना एक शोषण और उत्पीड़न से मुक्त समाज बनाने के लिए संघर्षों में लगे हुए हैं तो उनमें मुझे भगत सिंह दिखाई देते हैं।

भगत सिंह अपने लेखों में बार-बार इस बात का उल्लेख करते हैं कि इस दुनिया को स्वर्ग बनाने का काम नौजवान ही कर सकते हैं। अपने 1925 में लिखे ‘युवक’ शीर्षक लेख में उन्होंने युवावस्था का बेहद कलात्मक चित्रण किया है। वे लिखते हैं, “युवावस्था मानव-जीवन का वसन्त काल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हज़ारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्र-धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदान्ध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष, प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचण्ड, नवागत वसन्त की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी-संगीत की तरह मधुर युवावस्था है।

उज्ज्वल प्रभात की शोभा, स्निग्ध सन्ध्या की छटा, शरच्चन्द्रिका की माधुरी ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्र पदी अमावस्या की अर्द्ध रात्रि की भीषणता युवावस्था में सन्निहित है। जैसे क्रान्तिकारी के जेब में बम गोला, षड्यन्त्री की असटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था। 16 से 25 वर्ष तक हाड़-चाम के सन्दूक में संसार भर के हाहाकारों को समेटकर विधाता बन्द कर देता। दस बरस तक यह झाँझरी नैया मँझधार तूफ़ान में डगमगाती रहती है। युवावस्था देखने में तो शस्य श्यामला वसुन्धरा से भी सुन्दर है, पर इसके अन्दर भूकम्प की-सी भयंकरता भरी हुई है।”

यक़ीन मानिए कि हमारे देश में, और पूरी दुनिया में कमजोर और मजलूम के पक्ष में तथा अन्याय और जुल्म के खिलाफ सीना तान कर खड़े लोगों की संख्या करोड़ों में है। जब भी लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय के लिए आवाजें उठती हैं, स्थापित सत्ताएं और यथास्थितिवादी ताकतें अपने विशेषाधिकारों को बचाने के लिए दमन और उत्पीड़न के सभी हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू कर देती हैं। इसके बावजूद पूरी दुनिया में सालों साल प्रतिरोध चलते ही रहते हैं। जो भी न्याय के लिए लाठी-गोली-जेल की परवाह नहीं करता और सत्ता के दमन के प्रतिरोध का साहस करता है, चाहे वे किसी भी उम्र के हों, वे सभी लोग युवा हैं और उन सबके भीतर भगत सिंह हैं। ‘युवक’ शीर्षक उक्त लेख में ही भगत सिंह लिखते हैं, “संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर सन्देश भरे पड़े हैं।

संसार की क्रान्तियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे, जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ अथवा ‘पथ-भ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिड़ी हैं, वे क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से क़िले की खाइयों को पाट देने वाले जापानी युवक किस फ़ौलाद के टुकड़े थे। सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चोखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुँह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख़्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है। फाँसी के दिन युवक का ही वज़न बढ़ता है, जेल की चक्की पर युवक ही उद्बोधन-मन्त्र गाता है, काल कोठरी के अन्धकार में धँसकर ही वह स्वदेश को अन्धकार के बीच से उबारता है।”

आज भी हम देख सकते हैं कि हर तरह की सत्ता नौजवानों से खतरा महसूस करती है। हर जगह नौजवान ही अपने व्यक्तिगत हानि-लाभ और कैरियर के जोड़-घटाने को छोड़कर कमजोर के पक्ष में खड़ा हो रहा है। आदिवासियों और जनजातियों के जल, जंगल, जमीन के अधिकार को कॉरपोरेट लूट से बचाने की लड़ाई वह नौजवान भी लड़ रहा है जो खुद आदिवासी परिवार में नहीं पैदा हुआ है। दलितों के ऊपर ब्राह्मणवाद द्वारा किए जा रहे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ वह नौजवान भी खड़ा हो रहा है जो खुद सवर्ण परिवार में पैदा हुआ है। सभी तरह के अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यकवादी दमन, दुर्भावना और दुष्प्रचार के खिलाफ बहुसंख्यक परिवार में पैदा हुआ युवक चट्टान बनकर खड़ा है।

मैं पितृसत्ता के खिलाफ स्त्रियों की बराबरी की लड़ाई लड़ते हुए अगली क़तार में खड़े नौजवान पुरुषों को देख रहा हूं तो मालिकों और पूंजीपतियों द्वारा हो रहे शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ मजदूरों और किसानों के कंधों से कंधा मिलाकर लड़ रहे नौजवानों को भी देख रहा हूं। बेहतर दुनिया के अंखुए नौजवानों में जड़ें जमा रही उस आधुनिक चेतना में महसूस किए जा सकते हैं जिसकी मशाल से हमारा नौजवान हर तरह के पुरातनपंथ और कूपमंडूकता के झाड़-झंखाड़ को जला रहा है। बेहतर दुनिया एक मंजिल से ज्यादा एक रास्ता है। मैं रोज ब रोज एक बेहतर दुनिया बनते हुए देख रहा हूं जिसे सभी तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त हमारा नौजवान गढ़ रहा है।

यह वही नौजवान है जिसे भगत सिंह के समय में भी बड़े-बूढ़े कहा करते थे कि नौजवानों को राजनीति से दूर रहना चाहिए, उन्हें शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। ऐसे लोगों को जवाब देते हुए जुलाई 1928 में अपने लेख ‘विद्यार्थी और राजनीति’ में वे लिखते हैं, “क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?” जब सत्ता जनता के हितों के लिए काम न कर रही हो तो छात्र सत्ता के प्रति वफादारी क्यों दिखाए? इसी लेख में वे आगे लिखते हैं, “हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफ़ादारी करने वाले वफ़ादार नहीं, बल्कि ग़द्दार हैं, इन्सान नहीं, पशु हैं, पेट के ग़ुलाम हैं। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफ़ादारी का पाठ पढ़ें।”

जब भी नौजवान देश और समाज के वृहत्तर सवालों को लेकर आंदोलित होते हैं तो आज भी इसी तरह के सवाल उनके ऊपर दागे जाते हैं। लेकिन पिछले दिनों हुए तमाम आंदोलनों में देश भर के उच्च शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों की निर्भय होकर अनैतिक और अन्यायपूर्ण फैसलों के खिलाफ बढ़-चढ़ कर भागीदारी ने विद्यार्थियों पर भगत सिंह के भरोसे को सही साबित किया है। उपरोक्त लेख में ही भगत सिंह लिखते हैं, “सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की ज़रूरत है, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ़ गणित और ज्योग्राफ़ी का ही परीक्षा के परचों के लिए घोंटा न लगाया हो।”

अक्टूबर 1929 में पंजाब छात्र संघ, लाहौर का दूसरा अधिवेशन हुआ जिसकी सदारत सुभाष चंद्र बोस ने की थी। इस अधिवेशन में भगत सिंह द्वारा जेल से लिखा गया विद्यार्थियों के नाम पत्र पढ़ा गया जिसमें वे लिखते हैं, “नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।” भगत सिंह ने भविष्य की उस पदचाप को सुन लिया था कि ब्रिटिश हुकूमत ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं है, परंतु उनके लिए क्रांति का मतलब इतना ही तो था नहीं। इस बात को वे बार-बार और भांति-भांति तरीकों से स्पष्ट करते रहे। 

जेल से ही एक क्रांतिकारी  की कविता की किताब ‘ड्रीमलैंड’ की भूमिका में भी वे लिखते हैं कि “हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि क्रान्ति का अर्थ मात्र उथल-पुथल या रक्तरंजित संघर्ष नहीं होता। क्रान्ति में, मौजूदा हालात (यानि सत्ता) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज के सुव्यवस्थित पुनर्निर्माण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित रहता है।” परंतु यह कार्यक्रम अभी भी अधूरा है। क्रांति संपन्न नहीं हो सकी। विदेशी शासन के जुए से जरूर आजादी मिली, लेकिन भगत सिंह के शब्दों में केवल ‘गोरी गुलामी की जगह काली गुलामी’ ने ले लिया। न भूख से आजादी मिली, न आर्थिक, सामाजिक अथवा पितृसत्तात्मक भेदभाव से आजादी मिली। समाज में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना का सपना अभी तक अधूरा है।

अभी भी ‘जन’ के तंत्र की जगह ‘धन’ के तंत्र का ही बोलबाला है। गरीब आदमी के लिए मनुष्य की गरिमा एक फरेब-मात्र है जो पुलिसिया बूटों के रहमोकरम की मोहताज है। मिल्कियत वही है, मालिक बदल गए हैं। कमजोर के लिए न्याय एक मृगमरीचिका है। रोज हो रहे सैकड़ों फैसलों के भूसे के बीच न्याय की सुई को बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ना पड़ता है। जबरा मारता भी रहता है और रोने भी नहीं देता। स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय जैसे सभी उदात्त मूल्य दुबके-दुबके अपना समय काट रहे हैं। इन दिनों बंधुता का तो धावा बोल कर सरे राह कभी भी बलात्कार कर दिया जाता है। इसे नया फैशन बना दिया गया है। उसे बचाने की कोशिश अब घोषित ‘राष्ट्रद्रोह’ है।

लेकिन आश्चर्य यह है कि यह राष्ट्रद्रोह अब ढेर सारे नौजवान करने लगे हैं। उन्होंने दमन और हथकड़ियों-जेलों से डरना बंद कर दिया है। वे सत्ता के विमर्श की जगह इन उदात्त मूल्यों की रखवाली को अपना नया फैशन बनाने लगे हैं। सड़कों, चौराहों, विद्यालयों, पुस्तकालयों, हर जगह आधुनिकता और बराबरी की चेतना के अंखुए निकलने लगे हैं। दमन-उत्पीड़न जितना ज्यादा हो रहा है, उनके प्रतिरोध की एकजुटता और आवाजों की बुलंदी भी उतनी ही तेज होती जा रही है। किसी भी तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ उठने वाली हर आवाज भगत सिंह की आवाज है। एक ही भगत सिंह ने अन्यायपूर्ण निरंकुश सत्ता की नाक में दम कर दिया था, जब लाखों-लाख भगत सिंह एक नई दुनिया के निर्माण के लिए कटिबद्ध होंगे तो धरती पर स्वर्ग को उतार लाने का सपना पूरा होने में देर नहीं लगेगी।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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