Friday, March 29, 2024

माहेश्वरी का मत: भागवत जी,शब्दों की बाजीगरी से नहीं धुल सकता संघ के दामन पर लगा बर्बर हत्याओं का दाग!

मोहन भागवत शब्दों की बाजीगरी से जीवन के सच को अपसारित करना चाहते हैं । वे कहते हैं लिंचिंग एक विदेशी अवधारणा है, इसे भारत पर लागू नहीं करना चाहिए। भारत में हो रही भीड़ की हत्याओं को लिंचिंग नहीं कहा जाना चाहिए ।

हमारा उनसे सबसे पहला सवाल तो यही है कि वे खुद कौन सी अवधारणा (विचारधारा) की उपज हैं? आरएसएस कौन सी अवधारणा है? अतीत से लेकर आज तक हिटलर और मुसोलिनी तथा आज इसराइल उनके आदर्श कैसे हैं?

1925 में जब आरएसएस का गठन हुआ था, वह काल दुनिया के नक्शे पर हिटलर और मुसोलिनी के उदय का काल था। मोहन भागवत क्या इस बात का जवाब देंगे कि किस समझ के तहत उनके गुरू गोलवलकर ने हिटलर के जर्मनी की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा था कि “जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध चर्चा का विषय है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौका दिया है। जाति पर गर्वबोध वहां अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।”

हम सब जानते हैं कि आरएसएस का जन्म ब्रह्मा के पेट से नहीं हुआ है । वह बहुत हाल की, भारत में हिटलर-मुसोलिनी भक्तों की करतूतों की उपज है । उनके कृत्यों की सही व्याख्या भी उन पदों के जरिये ही हो सकती है जो दुनिया को हिटलर-मुसोलिनी की देन रहे हैं । इसीलिये भागवत से सिर्फ यह पूछा जाना चाहिए कि क्या गाय के नाम पर, बीफ के नाम पर, दलितों के नाम पर, अल्पसंख्यकों के नाम पर लोगों को पीट-पीट कर या दंगें करा कर मार डालना कोरा शाब्दिक खेल है, कि इन पर उठाये जा रहे सवालों को आप शब्दों की बाजीगरी से उड़ा देना चाहते हैं !

ये सब शुद्ध रूप से संगठित सामूहिक हत्याएं है, अभी के हमारे समाज की ठोस, चिंताजनक और घृणित सच्चाई। दुनिया के आधुनिक काल के अनुभवों के आधार पर ही इन हत्याओं के विचारधारात्मक स्वरूप और इनके पीछे काम कर रही साजिशों और मानसिकताओं की खास शिनाख्त की जा सकती है ।

मसलन् 2002 का गुजरात का जनसंहार बताता है कि हमारे देश में हिटलर का शासन पैदा हो चुका है। गोगुंडों की करतूतें और संघ के कार्यकर्ताओं की नैतिक पुलिस की भूमिका भी इसी सच्चाई की और पुष्टि करती है। कश्मीर में उठाया गया कदम भारत में आक्रामक विस्तारवादी, प्रभुत्ववादी यहूदीवादी हिंदुत्व के सत्य का बयान करता है। इन सबके लिये प्राचीन साहित्य से सुंदर स उपसर्ग वाले तत्सम शब्द नहीं ढूंढे जा सकते हैं ।

हत्या को हत्या कहे जाने पर भागवत को आपत्ति है। लेकिन इन हत्याओं को वे खुद भारत के प्राचीन काल में किये गये जन-संहारों की किस निन्दित श्रेणी में रखेंगे, इसके लिये उनके पास कोई देशी शब्द या अवधारणा नहीं है ! उनके शब्द भंडार का यह अभाव ही बताता है कि आरएसएस के लोगों की ये तमाम करतूतें किसी भारतीय आदर्श से प्रेरित नहीं हैं। यह सब जिन विदेशी आदर्शों से प्रेरित हैं, उनकी चर्चा न करने की हिदायत दे कर भागवत यही कह रहे हैं कि भारत के इस उभरते हुए जघन्य यथार्थ की चर्चा ही न की जाए; इन्हें सिर्फ होने दिया जाए ! और अगर चर्चा हो भी तो उनके ‘भारतीय वीरों‘ के महान राष्ट्रवादी कृत्यों के तौर पर हो।

लेकिन सबसे मुश्किल की बात यह है कि इनका राष्ट्रवाद भी बिना हिटलर-मुसोलिनी की चर्चा किये कभी भी परिभाषित नहीं हो सकता है ! भागवत लिंचिंग का कोई भारतीय शब्द बताएं !

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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