भट्टू कलां/फतेहाबाद। हरियाणा के फतेहाबाद जिले में स्थित भट्टू कला गांव के चारों तरफ इस समय कभी गेहूं की हरी फसलें लहलहाया करती थीं लेकिन आजकल यहां लोहे की भीमकाय आकृतियां खड़ी हो गयी हैं। जैसे किसान अब अनाज नहीं बल्कि लोहा बो रहे हैं और उनसे उगाना बंद कर किसी लोहे के कारोबार में जुट गए हों। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। पूर्वी हिस्से में स्थित यह जमीन न तो अब गांव वालों की रही और न ही उस पर किसी तरह का उसका कोई मालिकाना हक। जो इलाका कभी गांव वालों के लिए खेत का खुला मैदान हुआ करता था और कोई भी शख्स इन खेतों में बेफिक्र होकर आ जा सकता था।
आजकल उसे कंटीले तारों और सीमेंट की दीवारों से घेर दिया गया है। और इस तरह से यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो गया है। दरअसल यहां एक कंपनी का वेयरहाउस यानी गोदाम बन रहा है। रातों-रात जमीन खरीद ली गयी। उस पर रेलवे लाइन बिछा दी गयी। और उसमें अनाज भरने के लिए साइलोज बना दिए गए। यह सिलसिला शुरू हुआ अगस्त, 2017 से। 25 अगस्त, 2017 को यह प्रोजेक्ट भरा गया। एनसीएमएल कंपनी द्वारा तैयार किया जा रहा यह वेयरहाउसिंग नॉन रेफ्रिजरेटेड होगा। और इसकी क्षमता 50 हजार मीटरी टन होगी। और इसके लिए कंपनी ने 73130.98 वर्ग मीटर तकरीबन 26 एकड़ जमीन अधिग्रहीत कर ली है। आपको बता दें कि इस जमीन में उस तक पहुंचने वाले रास्ते और रेलवे लाइनों की जमीन का हिस्सा नहीं जुड़ा है।
गांव के एक शख्स ने बताया कि जमीन का अधिग्रहण किसानों को धोखे में रख कर किया गया। उन्हें बताया गया कि एफसीआई यानी सरकारी गोदाम स्थापित होगी। और ज्यादातर जमीनों को दलालों के जरिये कंपनी ने हासिल किया है। और यह जमीन 20 लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से खरीदी गयी है। जबकि हरियाणा में उद्योगों के लिए खरीदी जाने वाली जमीन का सरकारी रेट 40 से 50 लाख रुपये प्रति एकड़ है।
और उससे भी दिलचस्प बात यह है कि इस जमीन का लैंड यूज यानी खेती से उद्योग का दर्जा देने का काम 7 जून, 2019 को पूरा हुआ। चंडीगढ़ स्थित टाउन एंड कंट्री प्लानिंग के निदेशक के मकरंद पांडुरंग और असिस्टेंट टाउन प्लानर ओम प्रकाश ने इस पर उसी तारीख को हस्ताक्षर किया था। जबकि उससे पहले से ही न केवल जमीनों के अधिग्रहण का काम वहां शुरू हो गया था बल्कि गोडाउन के निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी थी। और जिस तरह से रेलवे लाइन बिछायी गयी है और उसको पास स्थित भट्टू कलां रेलवे स्टेशन से जोड़ दिया गया है उससे किसी के लिए इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि हरी झंडी किस स्तर पर मिली है। वरना किसी सरकारी कागज को एक मेज से दूसरी मेज पर पहुंचने में कितने समय लगते हैं और उसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह किसी से छुपा नहीं है।
इसकी एक झलक पंचायत के उस जमीन संबंधी मामले से लगाया जा सकता है जिसको लेकर ग्रामीणों और कंपनी के बीच विवाद है। कम्पनी के पूर्वी हिस्से में जहां से रेल लाइन गुजरनी है वहां पर गांव की पंचायत समिति की 13 कनाल जमीन है। कम्पनी गांव के लोगों के विरोध के बावजूद सरकार से मिलीभगत करके उस पंचायत समिति की जमीन का तबादला करा लिया है। इस मसले पर पंचायत की बैठक होनी थी। लेकिन पंचायत के सदस्यों का कहना था कि कोरोना के चलते यह बैठक नहीं हो पा रही है। लिहाजा सरकार ने अपनी तरफ से आगे बढ़कर कैबिनेट के स्तर पर प्रस्ताव पारित कर दिया और पंचायत की जमीन को कंपनी के हवाले कर दिया।
पंचायत समिति की करोड़ों की जमीन के बदले कंपनी ग्रामीणों को न केवल दो टुकड़ों में जमीन दी है बल्कि ऐसी जगह दी गयी है जहां उस जमीन तक आने-जाने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। गांव के अनिल कुमार नम्बरदार ने पंचायत समिति की जमीन को बचाने के लिए CM विंडो में शिकायत की हुई है। लेकिन बताया जाता है कि सरकार किसानों की मदद करने की बजाए कम्पनी की तरफदारी कर रही है।
फतेहाबाद के उपायुक्त को लिखे पत्र में अनिल कुमार नंबरदार ने कहा है कि “प्राप्त अपुष्ट जानकारी के अनुसार NCML द्वारा जो जमीन पंचायत समिति को दी जा रही है उस पर जाने के लिए सरकारी रास्ता 1709 है जो आगे जाकर सरकारी रास्ता 1708 से जुड़ता है। सरकारी रास्ता 1708 का कुछ भाग NCML कंपनी पहले ही बंद कर चुकी है तथा शेष बचे रास्ते को भी बंद करना चाहती है लेकिन अदालत में सरकारी रास्ता 1708 पर स्टे होने के कारण बंद नहीं कर पा रही है। सरकारी रास्ता पर सिविल अदालत का दिनांक 18.10.2018 से स्टे…..जो वर्तमान में भी जारी है। अत: सारांशत: NCML कंपनी ने अपनी जो जमीन पंचायत समिति को देना प्रस्तावित किया है उस पर जाने का कोई वैधानिक रास्ता वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।”
सरकार ने अब तक अनिल कुमार नम्बरदार की इस शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं की है। अनिल नम्बरदार पूरे सबूतों के साथ 3 बार ये शिकायत CM विंडो में कर चुके हैं लेकिन सरकार अनिल नम्बरदार की सुनने की बजाए मजबूती से कम्पनी की लूट के साथ खड़ी है।
गांव में प्रशासन की सह पर कंपनी की किस कदर तानाशाही चल रही है यह अकेला उदाहरण नहीं है। वेयरहाउस के आगे स्थित अपनी जमीनों पर किसानों के लिए पहुंचना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि वहां तक पहुंचने वाले रास्ते को कंपनी ने बंद कर दिया है। इसके साथ ही उस नाले को भी कंपनी ने बंद कर दिया है जिससे उन खेतों को पानी जाता था। जबकि कानूनी तौर पर खेत का रास्ता व पानी की नाली पक्के रंग की होती है उनको कोई बन्द नहीं कर सकता है। लेकिन यहां कम्पनी व सरकार की मिलीभगत से सब कुछ हो रहा है। रास्ते के लिए खेत मालिक देवेंद्र जो राजस्थान पुलिस में डीआईजी की पोस्ट पर हैं। उन्होंने कम्पनी के खिलाफ केस फाइल किया हुआ है। जिसको उन्होंने अपने पिता रामचंदर के नाम से फतेहाबाद की स्थानीय अदालत में दायर किया हुआ है। आपको बता दें कि रामचंदर इस समय राजस्थान के गंगानगर में रहते हैं। यहां उनकी तकरीबन 11 एकड़ जमीन है जो इस विवाद की चपेट में है। अदालत ने भी न केवल मुकदमा स्वीकार किया बल्कि उसने स्टे दे रखा है।
एक किसान रणसिंह ने भी कम्पनी के खिलाफ केस किया हुआ है। रणसिंह के परिवार की साझी ज़मीन का एक प्लाट गांव में था। ये प्लाट वैधानिक तौर पर कूड़ा-गोबर डालने के लिए चकबन्दी के समय उनको मिला था। और उसी के साथ गांव के सभी किसानों को मिले प्लाट भी जुड़े हुए हैं। जिस तरह से खेती की जमीन पर बगैर Land Use चेंज करवाये कोई उद्योग नहीं लगा सकता है। ऐसे ही इस जमीन पर जिसे खड्डा-खाद की जमीन बोलते हैं, गोबर, खाद, उपले बनाने के अलावा किसी दूसरे काम में इसका प्रयोग नहीं हो सकता है। लेकिन कम्पनी ने यहां भी सारे नियमों को दरकिनार कर दिया। और साझे हिस्से को सबसे खरीदने की बजाए सिर्फ एक हिस्सेदार को मामूली सी रकम देकर अपने नाम जमीन करवा ली। और जमीन का बिना Land Use बदलवाए वहां से कम्पनी का रास्ता निकाल दिया।
कम्पनी साइलोज के निर्माण में 80 करोड़ खर्च होने की बात कर रही है। हमने जब इस बारे में जांच पड़ताल की तो एक और बड़ा घोटाला सामने आया। मुल्क में बन रहे प्रत्येक साइलोज चाहे वो अडानी ग्रुप का हो या किसी अन्य का। इन सबको भारतीय खाद्य निगम के कांट्रेक्ट को आधार बनाते हुए बैंकों से मात्र 4 प्रतिशत पर करोड़ों-अरबों का लोन दिया जाता है। 4 प्रतिशत जो किसान को खेती के लिए लोन मिलता है लेकिन कारपोरेट व सरकार की मिलीभगत से कारपोरेट लॉबी किसानों के लिए मंजूर बजट के बड़े हिस्से को हड़प जा रही है। लोगों को जानकर यह हैरानी होगी कि इस तरीके से किसानों को मिलने वाले कर्ज का बड़ा हिस्सा खेती के नाम पर बनी कम्पनियां ले जा रही हैं।
कम्पनी जो साइलोज बनाती है उसमें अनाज भंडाकरण के लिए भारतीय खाद्य निगम के साथ उसका 20 से 30 साल तक का करार होता है। यह करार मूलत: किराए के लिए होता है। साइलो बनते ही एफसीआई को उनमें अनाज स्टोर करना आवश्यक है। करार की शर्त ये है कि एफसीआई अनाज स्टोर करे या न करे, कम स्टोर करे या फुल स्टोर। उसको तय किराया पूरे साल का व साइलो की फुल क्षमता का कम्पनी को अदा करना ही पड़ेगा। दूसरा अगर भारतीय खाद्य निगम ने साइलो में गेहूं भंडार किया और दो महीने बाद उसे निकाल लिया। तो भी उसे साल भर के भंडारण की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ समय बाद अगर धान या कोई दूसरा अनाज इन खाली साइलो में स्टोर किया गया तो एफसीआई को उसका भी अलग से किराया कंपनी को देना होगा। पूरे साल के लिए किराया तय होने के बावजूद कम्पनी IN एंड OUT के आधार पर किराया लेती है।
अब कुछ बातें इस कंपनी के बारे में। कंपनी का रजिस्ट्रेशन जनवरी, 2017 में हुआ। कंपनी के एमडी और सीईओ संजय कौल रिटायर्ड आईएएस हैं। और सबसे दिलचस्प बात यह है कि वह सरकार में रहते पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के साथ काम कर चुके हैं। और रिटायर होने के बाद उसी क्षेत्र की कंपनी खोलकर अपने पुराने संपर्कों, रिश्तों और अनुभवों का लाभ ले रहे हैं। संजय कौल जानते हैं कि कैसे कंपनी को इस दौर में आगे बढ़ाया जा सकता है। लिहाजा उन्होंने मौजूदा सत्ता के सबसे चहेते पूंजीपति गौतल अडानी के साथ अपने कारोबारी रिश्ते बनाने में देरी नहीं की। और इस कड़ी में उन्होंने अडानी के अडानी पोर्ट्स एंड स्पेशल इकोनामिक जोन लिमिटेड (एपीएसईजेड) के साथ रणनीतिक करार में चले गए। मुंदडा पोर्ट के लिए हुए इस समझौते के बाद संजय कौल ने कहा कि “अडानी समूह के साथ गठजोड़ गोदामों के लिए पोर्ट लोकेशन की सुविधा वित्त का विस्तार होगा और यह हम लोगों के लिए एक अनोखा अवसर मुहैया कराएगा। देश में यह अपने किस्म की अकेली सुविधा है। और हम इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि समानों के आयात और निर्यात के लिए पोर्ट लोकेशन पर कोलैटरल फाइनेंस उपलब्ध कराना सामानों के बाजारर के खिलाड़ियों के लिए बेहद मददगार साबित होगा।”
इन तमाम मामलों से जो कुछ सवाल जेहन में पैदा होते हैं उनके जवाब भी मिलने जरूरी हैं। मसलन-
1. हरियाणा जैसा छोटा प्रदेश जहां उपजाऊ जमीन है। हरित क्रांति के बाद अपनी पैदावार से इसने पूरे देश की भुखमरी दूर करने में इसने मदद पहुंचायी थी। यहां सरकार क्यो उद्योग लगा कर जमीन को खत्म कर रही है? जबकि उद्योग किसी भी बंजर जमीन में लग सकता है।
2. किसान को मिलने वाला कर्ज जो किसानों के लंबे संघर्ष के बाद 4 प्रतिशत हुआ। उसके बजट का बड़ा हिस्सा कॉर्पोरेट को क्यों दिया जा रहा है। क्या ये नंगी लूट नहीं है।
3. जब ऐसे आधुनिक वेयरहाउस बनाने की आवश्यकता वर्तमान में है तो उसे सरकार की एजेंसी एफसीआई क्यों नहीं बना रही है। क्यों कॉर्पोरेट को इसके लिए खुली छूट दी गयी है।
4. भविष्य में किसान को जो डर सता रहा है कि उनकी ये कम्पनियां एक नहीं सुनने वाली। क्या वर्तमान की इनकी कारगुजारियों से ये साबित नहीं हो रहा है। देवेंद्र जैसा व्यक्ति जो आईपीएस है। पुलिस में डीआईजी की पोस्ट पर है। जब ये कम्पनियां इतने पावरफुल व्यक्ति का रास्ता हड़प सकती हैं तो एक आम रणसिंह जैसे किसान की क्या हैसियत होगी जो इन कम्पनियों से जिनकी पीठ पर सत्ता का हाथ है, लड़ सके।
5. जब एक शुद्ध उद्योगपति उद्योग लगाता है तो उसको कृषि की दर पर कर्ज क्यों। उसमें उद्योग नीति लागू क्यों नहीं होती है।
6. क्या ये भविष्य की प्राइवेट मंडियां नहीं हैं?
फैसला आपको करना है की आपको साइलोज कॉर्पोरेट के चाहिए या सरकार के चाहिए।
(जनचौक के संस्थापक संपादक महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)