मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को आगे कर कृष्ण के जाल में यादवों को फंसाने की भाजपा की कोशिश

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मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के निर्देश पर मध्य प्रदेश सरकार ने सरकारी, निजी और विश्वविद्यालयों में जन्माष्टमी मानने का आदेश जारी किया। सरकारी आदेश के अनुसार शासकीय, निजी स्कूलों के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में भारतीय परंपरा के अनुसार सांस्कृतिक कार्यक्रम, योग सहित कई अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। जिसके लिए बच्चों को स्कूल जाना होगा। जन्माष्टमी की छुट्टी रद्द कर दी गई है। इतना ही नहीं स्कूलों से स्कूलों में होने वाले कार्यक्रम के वीडियो और फोटो अपलोड करने को कहा गया है।

पहली बात यह कि आदेश संविधान का उल्लंघन है। एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी धर्म विशेष के ईश्वर का जन्मदिन मनाने का आदेश जारी करना और उसका पालन अनिवार्य कर देना। संविधान के धर्म निरपेक्षता के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है। दूसरी बात यह है कि कृष्ण जन्माष्टमी मनाने का मतलब है, उससे जुड़े जितने धार्मिक अनुष्ठान हैं, सब किए जाएंगे। साफ हिंदू धर्म को स्थापित किया जाएगा। हिंदू धर्म को स्थापित करने का मतलब है कि ब्राह्मणवाद और वर्ण-जाति व्यवस्था को स्थापित किया जाएगा।

यह आदेश मोहन यादव ने जारी किया है। सभी जानते हैं कि मोहन यादव को दो कारणों से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था। पहला वे आरएसएस के खाकीधारी नेता हैं, वह आरएसएस के स्वयं सेवक हैं। इसके पहले के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चाहे जितने हिंदूवादी रहें हो, लेकिन वे खाकीधारी स्वयंसेवक नहीं थे। दूसरा उन्हें इसलिए मुख्यमंत्री बनाया ताकि यादवों को किसी तरह भाजपा की ओर खींचा जा सके। पूरी तरह न भी खींचा जा सके तो उनके बीच के एक हिस्से को अपने साथ किया जा सके। 

आरएसएस और भाजपा के हिंदू राष्ट्र के स्वप्न और अभियान को दो समूह सबसे मुश्किल पैदा करते रहे हैं, आज भी कर रहे हैं, उसमें दलित और यादव सबसे अग्रणी हैं। सिर्फ यादवों के बीच से ही दो ऐसे बड़े जनाधार वाले क्षेत्रीय नेता पैदा हुए हैं, जो भाजपा से कभी राजनीतिक समझौता नहीं किए। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव रामजन्मभूमि अभियान के मार्ग के सामने खड़े सबसे बड़े राजनेता रहे हैं। यूपी में मुलायम सिंह यादव पर तो संघ-भाजपाई कारसेवकों की हत्या कराने तक का आरोप लगाते रहे हैं, उन्हें मुल्ला मुलायम कहते रहे हैं। लालू यादव का  स्टैंड से तो इस मामले में जगजाहिर है।

उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने का भी साहस दिखाया। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के वारिस तेजस्वी और अखिलेश भी भाजपा की आंख के सबसे बड़ा कांटा हैं। यादव रूपी कांटे के हमेशा-हमेशा के लिए निकालने का कदम अटल बिहारी बाजपेयी ने उठाया था और कहा था कि मैंने कांटे से कांटा निकाल दिया। लेकिन जिस पेड़ के ये कांटे हैं, वहां से बड़े कांटे फिर उग आए। अबकी बार तो अखिलेश यादव ने हिंदू राष्ट्र के रथ के पहिए को यूपी में दलदल में धंसा दिया।

पहले तो भाजपा ने यादवों से निपटने के लिए मुख्य रणनीति यह बनाई कि यादवों को गैर-यादव पिछड़ों से पूरी तरह अलग कर दिया जाए। उन्हें यादव और मुस्लिम वोट तक सीमित कर दिया जाए। यह कोशिश कम से कम यूपी लोकसभा के दो और विधान सभा के दो चुनावों में एक हद तक सफल भी रही। लेकिन अखिलेश यादव ने निर्णायक कदम उठाकर 2024 के लोकसभा चुनावों में इसकी काट निकाल कर भाजपा को शिकस्त दे दिया। तेजस्वी भी इस ओर बढ़े, भले उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली। 

इस रणनीति के साथ आरएसएस-भाजपा समानान्तर दूसरी रणनीति की खोज और उस पर चलना भी जारी रखे। वह रणनीति यह थी कि यादवों के बीच से कुछ प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर शीर्ष नेता तैयार किए जाएं। जो अपने जन्म और पहचान के आधार पर यादव हों, लेकिन हिंदुत्व के लिए काम करें और यादवों के एक बड़े हिस्से को तोड़कर भाजपा के साथ करें। बिहार में कई बार-बार ऐसे नेताओं को लाया गया, भाजपा को कुछ सफलता भी मिली। कई सारे नेता तो राजद से तोड़कर खड़े किए गए।

मध्यप्रदेश में मोहन यादव को लाना इसी रणनीति के तहत हुआ है। भाजपा यादवों को यह संदेश देना चाहती थी कि यदि आप हमारे साथ आते हैं, तो हम आपकी जाति के नेताओं को सिर्फ केंद्रीय मंत्री नहीं मुख्यमंत्री भी बना सकते हैं, जो भविष्य में प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। लेकिन ऐसे नेताओं को काम हिंदुत्व (ब्राह्मणवाद) की मजबूती के लिए काम करना होगा, लेकिन उन्हें अपनी यादव पहचान का इस्तेमाल यादवों और अन्य पिछड़ों को हमारे हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए लाना होगा।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने जन्माष्टमी को सरकारी स्कूलों, निजी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में मनाने का जो आदेश जारी किया है। उसके दो मुख्य उद्देश्य हैं। पहला उद्देश्य सतह पर दिखने वाला खुला उद्देश्य है। वह यह है कि कृष्ण की जन्माष्टमी के नाम पर हम कृष्ण को स्थापित कर रहे हैं, उन्हें लोकप्रिय बना रहे हैं, उनके ईश्वरत्व और नायकत्व को जन-जन तक पहुंचा रहे हैं। कृष्ण यदुवंशी हैं, हम कृष्ण के वंशज हैं, कृष्ण हमारे हैं, वैसे यह पहले से ही कई सारे यादव नेता और बुद्धिजीवी स्थापित करने की कोशिश करते रहे हैं।

इसका एक कारण तो अपने अतीत का महिमा मंडन रहा है, जो हमारे देश कमोबेश सभी जातियां करती रही हैं और अब भी करती हैं। यदुवंशी कृष्ण से खुद को जोड़कर यादव अपने वंश परंपरा को गौरवान्वित करने की कोशिश करते हैं। यादवों के इस मनोभाव और सोच का आरएसएस-भाजपा बार-बार फायदा उठाने की कोशिश करते रहे हैं। कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति के आंदोलन पर पिछले दिनों जोर इस कार्यनीति का एक हिस्सा है। 

यूपी-बिहार में यादवों के बीच कृष्ण के साथ संबंध कायम करने की मुहिम एक और कारण से जोर पकड़ी। रामजन्मभूमि आंदोलन के दौर में मुलायम सिंह यादव और लालू यादव को राम विरोधी, मतलब हिंदू विरोधी साबित करने की मुहिम आरएसएस-भाजपा ने जोर-शोर से चलाई। इसकी काट के तौर पर कृष्ण को लाया गया है। यादव नेताओं और बुद्धिजीवियों ने कृष्ण के साथ खुद को जोड़कर यह दिखाने की कोशिश की कि हम हिंदू विरोधी हो ही नहीं सकते हैं। हम तो हिंदुओं के बड़े आराध्य कृष्ण के वंशज हैं। इस  बात को बार-बार कहा और लिखा गया।

अब भाजपा कृष्ण की जन्माष्टमी को सरकारी स्तर पर बडे़ पैमाने पर मानने की मध्यप्रदेश में मुहिम शुरू की है। स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में मनाने का आदेश इसी का हिस्सा है। यदि भाजपा कृष्ण नाम पर यादवों को अपने साथ नहीं कर पाती है या उनके एक बड़े हिस्से को कम से कम यूपी-बिहार में तोड़कर अपने साथ नहीं कर पाती है। तो भी उसका एक दूसरा काम हो जाएगा। वह यह कि भविष्य में यदि यूपी में अखिलेश यादव की सरकार बनती है, तो उस पर दबाव बनाया जाएगा कि आप भी कृष्ण जन्माष्टमी सरकारी स्तर पर मनाइए। बिहार और अन्य जगहों पर भी।

कृष्ण किस यादव वंश के थे, कृष्ण पशुचारक समाज के थे आदि बातें सही हो सकती हैं, कुछ हद तक सही लगती भी हैं, लेकिन आदि शंकराचार्य (100 ईसवी के आस पास) के जमाने में ही कृष्ण को पूरी तरह ब्राह्मणवादी फोल्ड में समा लिया गया है। गीता के रचयिता के तौर पर वे ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व दर्शन के संस्थापक बन चुके हैं।

गीता में कृष्ण वर्ण-व्यवस्था की वकालत करते हैं। इसी गीता के सहारे तिलक ने भारतीय राजनीति का हिंदुत्वीकरण-ब्राह्मणीकरण करने की कोशिश की। इसका सहरा लेकर गांधी ने हिंदू धर्म को नए सिरे से श्रेष्ठ घोषित करने की कोशिश की। दोनों ने इस पर भाष्य लिखा। राधाकृष्णन ने जो कुछ किया वह छोड़ ही दीजिए। डॉ. आंबेडकर ने गीता पर लिखकर इसकी सच्चाई उजागर की।

गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग बहुत पहले सुषमा स्वराज ने जोर-शोर से उठाई थी। भाजपा की कई सरकारों ने इसे अपने राज्यों के पाठ्यक्रम में शामिल किया है। गीता और गीता जयंती हिंदुत्व के प्रचार का एक बड़ा माध्यम बन चुका है। 

डॉ.आंबेडकर ने बहुत पहले अपनी किताब रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म में एक अध्याय कृष्ण के रिडल्स पर भी लिखा है। भाजपा मध्यप्रदेश के मोहन यादव को आगे कर जन्माष्टमी के बहाने कृष्ण के रिडल्स ( जाल) में यादवों को विशेष तौर पर फंसाना चाहती है। यह जाल सार रूप में ब्राह्मणवाद और वर्ण-व्यवस्था का जाल है। 

जहां तक मेरी समझ है, इस जाल से कृष्ण के इस रूप या उस रूप को सामने रखकर नहीं तोड़ा जा सकता है। भले एक बौद्धिक और अकादमिक कार्य के तौर पर यह कार्य महत्ता रखता है। लेकिन  राजनीति किसी भी ईश्वर या देवता के नाम पर नहीं होनी चाहिए। किसी भी ईश्वर-देवता या अल्ला-गॉड का राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

राजनीति को पूरी तरह धर्म और ईश्वरों से मुक्त होना चाहिए। राज्य और राज्य की संस्थाओं में किसी धर्म या ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। स्कूलों में बच्चों को धार्मिक नहीं, तार्किक और वैज्ञानिक बनाया जाना चाहिए। उन्हें मिथकों की जगह तथ्यों के आधार राय बनाने, सोचने और निर्णय करने की शिक्षा-दीक्षा दी जानी चाहिए।

आरएसएस-भाजपा के राम के बाद कृष्ण के इस रिडल्स से कैसे भारतीय समाज निपटता है, कैसे बहुजन समाज निपटता है, कैसे बहुजन राजनेता निपटते हैं और उसमें भी विशेषकर यादव समाज में जन्म लिए नेता कैसे निपटते हैं, यह भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।

कृष्ण का रिडल्स भी अंततोगत्वा हिंदू राष्ट्र के स्वप्न का साधन बनेगा, कभी भी वह बहुजन राजनीति का साधन नहीं बन सकता है। हिंदू राष्ट्र मतलब मुसलमानों के प्रति घृणा पर आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था को बनाए रखने वाला राष्ट्र।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक एवं पत्रकार हैं)

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