भारत की आजादी पर सवाल उठाकर भागवत ने आरएसएस के खतरनाक इरादे को एक बार फिर किया स्पष्ट

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मोहन भागवत के अनुसार भारत को असली आज़ादी उस दिन मिली जिस दिन राम मंदिर का उद्घाटन हुआ। इससे पहले कुछ इसी तरह का बयान फिल्म एक्ट्रेस और अब हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सांसद, कंगना रनौत ने भी दावा किया था कि भारत को आजादी 1947 में नहीं 2014 में मिली। सोशल मीडिया में जब-तब आरएसएस की शाखाओं से निकले लोगों के द्वारा ऐसी ही बयानबाजी अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं, जिसको लेकर अक्सर भारी विवाद खड़ा होता रहा है।

लेकिन अब जबकि स्वयं सर संघचालक मोहन भागवत ने अपने मन की बात जुबां से कह दी है, तो शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। आज इस विवाद को लेकर तमाम गोदी मीडिया कार्यक्रम चला रही है। आरएसएस प्रमुख की लानत मलामत करने के बजाय उसकी गूढ़ व्याख्या की जानी तय है। इस प्रकार, आरएसएस, बीजेपी और गोदी मीडिया मिलकर देश की आजादी के लिए 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 के बीच असंख्य कुर्बानियों का अपमान करने का काम करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

बता दें कि इंदौर में देवी अहिल्या पुरस्कार वितरण के अवसर पर, जिसकी अध्यक्षा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन हैं, की उपस्थिति में मोहन भागवत ने भारत की आजादी के ऊपर नया प्रश्नचिंह खड़ा कर दिया है। भागवत के मुताबिक राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के दिन ही असल में देश की सच्ची स्वतंत्रता प्रतिष्ठा हुई। आरएसएस प्रमुख का इस बारे में अपना तर्क और समझ है।

मोहन भागवत ने कहा “अनेक शताब्दियों से परतंत्रता झेलने वाले भारत को उस दिन सच्ची स्वतंत्रता हासिल हो गई। 15 अगस्त 1947 के दिन भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई। हमें स्वतंत्रता मिल गई, लेकिन वह प्रतिष्ठित नहीं थी। हमारा भाग्य निर्धारण करना हमारे हाथ में आ गया था, हमने एक संविधान भी बनाया। लेकिन उसके जो भाव थे उसके अनुसार चला नहीं गया। और इसलिए, स्वप्न सब साकार हो गये हैं, कैसे मान ले हम? टल गया सिर से व्यथा का भार कैसे मान ले हम? ऐसी मनःस्थिति बनी हुई थी।”

आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र ने अपने सोशल मीडिया हैंडल से इस भाषण का एक टुकड़ा साझा किया है, जिसमें मोहन भागवत कह रहे हैं, “हमारी 5000 वर्षों की हमारी परंपरा क्या है? वही है जो भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान शिव से शुरू हुई थी। वो ही हमारा स्व है। हमारे अपने जागरण के लिए एक आंदोलन चला था। बैठकों में, कॉलेज के छात्र हमसे रटा-रटाया सवाल पूछते थे कि आप लोगों ने रोजी-रोटी की चिंता छोड़कर मंदिर क्यों बनाए। किसी ने उन्हें यह सब पूछने के लिए कहा होगा।

तो मैं उनको कहता था कि यह 80 का दशक है, हमें 1947 में आजादी मिली, हमारे साथ इजरायल और जापान ने चलना शुरू किया, और वे कहाँ से कहाँ पहुँच गये। हम पूरा समय लोगों की रोजी-रोटी की ही चिंता करते रहे। समाजवाद, गरीबी हटाओ का नारा लगाते रहे। कुछ हुआ क्या? भारत की रोजी-रोटी का रास्ता भी श्री राम मंदिर से होकर जाता है। इसे ध्यान में रखें।

तो ये जो पूरा आंदोलन था वो भारत के आत्म जागरण के लिए था…। भारत फिर से भारत बनकर अपने पैरों पर खड़ा होकर दुनिया को विकसित करे, इसलिए था। अयोध्या में हजारों वर्षों से कलेवो की परंपरा चल रही थी, वो समाप्त हो जाये और अयोध्या वास्तव में अयोध्या बने, और वही हो रहा है। एकदम तो होता नहीं, बीच में बहुत लंबा समय गया है। धीरे-धीरे सारी बातें होती हैं।”

इस प्रकार आरएसएस ने इंदौर में इस भाषण के जरिये स्पष्ट कर दिया है कि भारत की आजादी की लड़ाई, भारतीय संविधान और अंबेडकर के सम्मान की बात उनके लिए आज भी पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। बाद में पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए सुमित्रा महाजन ने बताया कि इस बार का अहिल्याबाई पुरस्कार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलनरत कारसेवकों को दिया जाना तय हुआ था। लिहाजा, आयोजकों ने तय पाया कि राम मंदिर निर्माण के महामंत्री और विश्व हिंदू परिषद के भी महामंत्री, चंपत राय को कारसेवकों के प्रतिनिधि के तौर पर पुरस्कृत किया जाना सर्वोत्तम रहेगा।

तो इस प्रकार तय पाया गया कि आरएसएस और उससे जुड़े भाजपा और सैकड़ों आनुषांगिक संगठन अब से 15 अगस्त 1947 के दिन को भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के तौर पर महत्व देंगे, लेकिन इसी के साथ-साथ 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर की जो प्राण प्रतिष्ठा की गई, उसे प्रतिष्ठा द्वादशी के तौर पर संघ मनायेगा।

ऐसे में सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है कि जहां एक ओर 144 करोड़ भारतीय ब्रिटिश औपनिवेशिक राज से मुक्ति के तौर पर 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मनाएंगे, वहीं आरएसएस और उसके तमाम संगठन भारत के ही भीतर दो भारत राष्ट्र की अपनी कल्पना को परवान चढाते जायेंगे। आजादी की लड़ाई के दौरान भी या मुस्लिम लीग और आरएसएस-हिंदू महासभा ही थे, जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाय हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की बात कर रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट की जिस खंडपीठ ने बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला सुनाया था, उस फैसले में ही यह स्वर स्पष्ट सुना जा सकता है कि इस विवाद को अब खत्म किया जाना चाहिए। बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की आस्था को शिरोधार्य मानते हुए भारत के मुसलमानों (जिन्होंने बाबरी मस्जिद पर वर्षों से नमाज अदा नहीं की थी) को जज्ब करने और बदले में पास ही जमीन आवंटित की थी।

लेकिन जिस संगठन में यह विचार चल रहा हो कि राम मंदिर निर्माण को वह हिंदुओं के आराध्य के जन्म स्थल के रूप में पूजे जाने से बढ़ाकर सीधे देश की आजादी के समतुल्य या उससे भी बड़ा काम मान ले तो उसकी मंशा को लेकर जो संदेह बना हुआ था, वह पक्का यकीन में बदल जाता है।

इसका अर्थ तो साफ़ है कि आरएसएस-बीजेपी स्पष्ट तौर पर ऐलान कर रही है कि वह मंदिर-मस्जिद के बहाने हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक विभाजन में ही असल में अपना उद्धार देखती है। जिस संगठन के प्रमुख का साफ़ तौर पर कहना हो कि गरीबी, भुखमरी, रोजगार की बात बेमानी है, जिसे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से ही स्व का भान और गौरव हासिल होता हो, और जिसे सिर्फ इसी के माध्यम से भारत को एक बार फिर से विश्व शक्ति के रूप में स्थापित करने का भरोसा हो, तो उसके लिए निश्चित रूप से देश की बदहाली और संकट कोई मायने नहीं रखती।

आरएसएस प्रमुख का यह बयान न सिर्फ देश के 20 करोड़ मुस्लिमों के लिए चिंता का विषय है, बल्कि देश के हर लोकतंत्र पर आस्था रखने वाले नागरिक, बाबासाहेब अंबेडकर के द्वारा निर्मित संविधान और दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और हाशिये पर खड़े लोगों के लिए खतरे की घंटी है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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