लेटरल एंट्री, क्रीमी लेयर, आरक्षित सीट और जातिगत जनगणना का मुद्दा मोदी सरकार के गले की फांस ?

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आज भारत बंद का सबसे अधिक असर बिहार में देखने को मिल रहा है। इसके साथ ही राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के भी कुछ जिलों में भारत बंद का असर देखने को मिल रहा है। बिहार की राजधानी पटना में तो बिहार पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज भी किया है, जिसमें गलती से एक पुलिस वाले ने एसडीएम की पीठ पर ही लाठी भांज दी। 21 अगस्त के भारत बंद का आह्वान अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के विभिन्न संगठनों और विपक्षी दलों के द्वारा समर्थन के आधार पर आह्वान किया गया था।

इस बंद का मकसद सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ के द्वारा हाल ही में एससी/एसटी को संविधान प्रदत्त आरक्षण की व्यवस्था में क्रीमी लेयर को बाहर करने की मंशा के खिलाफ आहूत किया गया है। लेकिन मामला सिर्फ इतना भर नहीं है, बल्कि यह तो अभी सिर्फ आग़ाज है, जिसके अंजाम के बारे में सोचकर ही कल केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री के माध्यम से केंद्र में संयुक्त सचिव एवं निदेशक पदों पर भर्ती की प्रक्रिया को अचानक से स्थगित कर दिया था।

यदि आप समाचार पत्रों और टीवी डिबेट को सरसरी निगाह से देखते होंगे तो निश्चित ही आपको भी यही लगता होगा कि इस देश में लोग कामकाज करने के बजाय आंदोलन, भारत बंद और आगजनी के अलावा कोई रचनात्मक काम नहीं कर सकते। लेकिन यदि समग्रता में देखेंगे तो आप पाएंगे कि भारत देश जो पहले से ही विरोधाभासी चीजों से घिरा हुआ था, और उसकी विविधता भी सीधे-सीधे कोई आम राय बनाने से हमें रोक देती है, उसमें कई जटिलताओं को तो हमारी सरकारें खुद जन्म देती हैं। आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ की रूलिंग को अभी किनारे कर यदि हम कार्यपालिका में नीति-निर्धारण में लेटरल एंट्री पर गौर करेंगे तो उससे ही देश के असल हालात का जायजा लग सकता है।

क्या होती है लेटरल एंट्री?

आजादी के बाद से देश की प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के माध्यम से संचालित भारतीय प्रशासनिक सेवा के माध्यम से भर्ती की प्रकिया काम कर रही थी। इसमें सामाजिक एवं शैक्षिक आधार पर वे तबके जो हजारों वर्षों से वंचित रह गये थे, उनके प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई थी। लेटरल एंट्री के माध्यम से इस व्यवस्था में एक बदलाव किया गया है, जिसके तहत अब केंद्र सरकार को यदि लगता है कि उसे विशिष्ट क्षेत्र में दक्ष अधिकारियों की आवश्यकता है तो वह संविधान एवं यूपीएससी के नियमों से अलग भी सीधे इस पद के लिए योग्य व्यक्तियों को 3 से 5 वर्ष के लिए नियुक्त कर सकती है। इन उम्मीदवारों को आईएएस परीक्षा की तरह विभिन्न चरणों से गुजरने की जरूरत नहीं होती। एक प्रकार से यह आईएएस/आईपीएस कैडर में सेंधमारी तो है ही, इसके साथ ही दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित 50% आरक्षण के लिए उपलब्ध सीटों में भी कटौती करना हुआ।

लेटरल एंट्री की शुरुआत

फरवरी 2017 में, नीति आयोग ने अपने तीन वर्षीय कार्यकारी एजेंडा में, और शासन पर सचिवों के क्षेत्रीय समूह (SGoS) ने अपनी रिपोर्ट में, केंद्र सरकार की नौकरशाही के भीतर माध्यमिक एवं वरिष्ठ प्रबंधन पदों के लिए अखिल भारतीय सेवाओं के बाहर से कर्मियों की भर्ती की सिफारिश की थी। अपनी सिफारिश में नीति आयोग एवं एसजीओएस ने सुझाव दिया था कि ये लोग अपने डोमेन में विशेषज्ञ होंगे और एक महत्वपूर्ण अंतराल को भरने में मदद करेंगे। इन्हें कॉर्पोरेट, पीएसयू अथवा राज्य सरकारों से नियुक्त किया जा सकता है।

इस प्रकार पहली लेटरल-एंट्री भर्ती 2018 में एनडीए सरकार के तहत हुई थी। हालाँकि, इस विचार के बीज कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-I सरकार के द्वारा बोए गए थे। 2005 में कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने विशेष ज्ञान की आवश्यकता वाली भूमिकाओं में अंतराल को भरने के लिए विशेषज्ञों की भर्ती की सिफारिश की थी। लेकिन इस सिफारिश को अमल में लाने का काम मनमोहन सिंह सरकार के बजाय भाजपा सरकार ने किया और 2018 से अब तक नौकरशाही में 68 नियुक्तियां कर भी चुकी है। इस बार भी केंद्र सरकार की ओर से अपने 24 मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक एवं उप-सचिव पदों के लिए 45 लेटरल भर्तियों के आवदेन करने के लिए विज्ञापन जारी किये गये थे। लेकिन कल अचानक से केंद्र सरकार की ओर से इसे वापस ले लिया गया है, और अब कहा जा रहा है कि लेटरल भर्तियों में सरकार आरक्षण की व्यवस्था को लागू करेगी।

संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के द्वारा 17 अगस्त को 45 लेटरल एंट्रियों के लिए जारी विज्ञापन में 10 संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों की नियुक्ति होनी थी, जिसमें सरकार को तेजी से उभरती प्रौद्योगिकियों, सेमीकंडक्टर और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में विशेषज्ञों की तलाश है। ऐसा माना जाता है कि आईएएस परीक्षा से आये नौकरशाहों के पास इन विशेष नौकरियों के लिए अपेक्षित कौशल सेट नहीं पाया जाता है, और इसी वजह से सरकार लेटरल एंट्री के जरिए डोमेन विशेषज्ञों को नियुक्त करना चाहती है।

लेटरल एंट्री का असली खेल

अब हमें यहां पर इसके असल खेल को समझने की जरूरत है। लेटरल एंट्री का जीता-जगता नमूना सेबी की चेयरपर्सन माधवी पुरी बुच के तौर पर देखा जा सकता है। इससे पहले यह पद किसी प्रशासनिक अधिकारी के द्वारा ही भरा जाता था। लेकिन मोदी सरकार ने बैंकिग सेक्टर से मिस बुच को इस पद के योग्य पाया, जबकि हम सभी जानते हैं कि कॉर्पोरेट की नौकरी करने वाले लोग अपने कैरियर में कंपनी को मूल्यवान बनाने, शेयर बाजार में पूंजीकरण बढ़ाने की होड़ में लगे होते हैं। इसी प्रकार आईआईएम जैसे संस्थानों से निकलने वाले छात्र भी कॉर्पोरेट हितों की रक्षा के अलावा सामजिक सरोकार से वास्ता नहीं रख सकते।

माधवी पुरी बुच का न सिर्फ सेबी के मुखिया के पद पर रहते हुए एक अन्य फर्म का मालिकाना होने का खुलासा हुआ है, जो कि ऑफिस इन प्रॉफिट होने का अपराध है, बल्कि अडानी की कंपनियों में जिन दो विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ़पीआई) को सेबी ढूंढ़ नहीं पाई, उनमें से एक में करोड़ों रुपये का निवेश हो रखा था। बुच का जिस एफपीआई में करोड़ों रुपया लगा हो, उसके बारे में सेबी ने सुप्रीम कोर्ट को शपथपत्र में बताया कि उसे उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पा रही है। और इस प्रकार अडानी-हिंडनबर्ग विवाद में लीपापोती वाली रिपोर्ट दाखिल कर अडानी समूह को बचाने का कारनामा किया जा सका।

असल में, लेटरल एंट्री की जरूरत सरकार को नहीं देश के बड़े कॉर्पोरेट को है, जिन्हें 90 के दशक में सरकार के माध्यम से नौकरशाहों से अपने मन-मुताबिक नीतियां तैयार कराने के लॉबिंग की जरूरत पड़ती थी। आज क्रोनी पूंजी इतनी ताकतवर हो चुकी है कि उसे भारतीय नौकरशाही के बजाय अपना आदमी सरकार के भीतर चाहिए, जिसके ऊपर भारतीय संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती है। इनके चयन का आधार ही पूरी तरह से भिन्न होता है, और अपना काम खत्म करने के बाद ये फिर से कॉर्पोरेट जगत में आसानी से वापस चले जाते हैं। इसके उलट, किसी आईएएस के लिए किसी कॉर्पोरेट के मनमुताबिक नीतियों को तैयार करने के बाद, जवाबदेही के लिए तैयार रहना होगा।

राहुल गांधी और विपक्षी गठबंधन की बदली हुई भूमिका

4 जून के चुनाव परिणाम ने भले ही निर्णायक रोल अदा न किया हो, लेकिन बहुसंख्यकवादी फासीवादी विचारधारा की ओर तेजी से बढ़ते भारतीय राज्य की नई भूमिका पर आवश्यक ब्रेक तो अवश्य ही लगा दिया है। पीएम नरेंद्र मोदी ने यह दिखावा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि 240 सीट होने के बावजूद, जैसा पिछले 10 वर्षों से वे करते आ रहे थे, बदस्तूर जारी रहने वाला है। लेकिन ढाई महीने के भीतर ही सरकार अपने चार फैसलों को वापस लेने के लिए मजबूर हुई है।

5 वर्ष पहले इसी अगस्त माह में धारा 370 को निरस्त कर कश्मीर को तीन टुकड़ों में बांट देने वाली सरकार सकते की हालत में है। इसे 10 वर्ष बाद उसी कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, जहां वह एक भी कश्मीरी पंडित को सुरक्षित आवास मुहैया नहीं करा पाई है, देश के बाकी के हिस्सों में रहने वालों को प्लाट दिला पाने की तो बात ही छोड़ दीजिये।

वक्फ बोर्ड बिल, ब्राडकास्टिंग बिल, इंडेक्सेशन और अब लेटरल एंट्री और साथ ही एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर को छांटने की कवायद, सब एक-एक कर विफल साबित हुई हैं। इससे भी बढ़कर, मुद्दा यह है कि विपक्ष पहले की तुलना में लगातार आक्रामक है। विशेषकर, राहुल गांधी ने तो भारत जोड़ो यात्रा के बाद से जैसे पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समुदाय और महिलाओं के एकमात्र प्रतिनधि होने का दावा ठोंक दिया है, और वे लगातार विभिन्न मुद्दों पर अपने नैरेटिव को लगातार मजबूत करते जा रहे हैं। हालत यह हो चुकी है कि समाज के विभिन्न तबकों से लोग अब सरकार या मंत्रालय के समक्ष अपना प्रतिवेदन देने के बजाय राहुल गांधी के समक्ष अपना आवेदन या समस्या रख रहे हैं। आजाद भारत में किसी भी सरकार के लिए ऐसी खराब स्थिति शायद ही कभी देखने को मिली हो।

यहां तक कि संसद सत्र के दौरान भी किसानों, मैला ढोने वालों, रेल कर्मियों का प्रतिनिधिमंडल सरकार के मंत्रियों से मिलने के बजाय, प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी से मुलाकात करने आने लगा है। स्वंय राहुल जब कभी मौका मिलता है तो वे समाज में हाशिये पर खड़े लोगों से मिलने और उनके मुद्दों को हाईलाइट में लाने का मौका नहीं चूकते। पेरिस ओलिंपिक में पदक हासिल करने वाले खिलाड़ी तक जब ऐसा करने लगते हैं तो सरकार के लिए भारी चिंताजनक स्थिति बन जाती है। ऊपर से जातिगत जनगणना की मांग अब राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के दलों से आगे विस्तारित होकर अब एनडीए के घटक दलों में भी मुखरित होने लगी है।

जिस भाजपा-आरएसएस को पिछले 10 वर्षों में अगड़ों के साथ-साथ पिछड़ों को साधने के लिए आधुनिक चाणक्य की उपाधि से नवाजा जाता था, और माना जा रहा था कि 90 के दशक में मंडल बनाम कमंडल की विपरीत रजनीति को वश में कर दोनों को अपना पिछलग्गू बना देने वाले गुजरात के दो महारथियों ने शायद वो कारनामा कर दिखाया है, जो कांग्रेस के पूर्व दिग्गज नेता भी नहीं कर सके, उसका शिराजा इतनी जल्दी पूरी तरह से बिखरने के कगार पर आ चुका है। आज के भारत बंद और लेटरल एंट्री पर उलटबांसी से ऐसा जान पड़ता है कि नरेंद्र मोदी ओबीसी और दलितों आदिवासियों को इतनी आसानी से विपक्ष के खेमे में नहीं जाने देंगे, और लेटरल एंट्री में आरक्षण की घोषणा उसी की बानगी है। लेकिन यदि विपक्ष ने इसी प्रकार चौकस रहते हुए इस मुद्दे पर डटे रहने का फैसला लिया तो यहाँ पर भी मोदी सरकार के लिए राह खुलने के बजाय फंसने की संभावना ही अधिक है।

ऐसा इसलिए क्योंकि जब छोटी-मोटी सरकारी नौकरियों तक में उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में आरक्षित सीटों पर आयोग को योग्य व्यक्ति नहीं मिलते, और कोटे में भी सामान्य वर्ग के आवेदकों को भर्ती करा दिया जाता है, जैसा कि हाल ही में अदालत ने सहायक शिक्षक भर्ती में भारी गड़बड़ी को पाकर, इसे निरस्त कर दिया है तो भला नवोन्मेष एवं आधुनिकतम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भला ओबीसी एवं दलित आदिवासी वर्ग से सरकार को एक भी उम्मीदवार कैसे मिल सकता है? यह तो सीधे-सीधे बेवकूफ बनाने की स्कीम हो सकती है, जिसमें 45 उम्मीदवारों की भर्ती के लिए 90 सीट के लिए विज्ञापन जारी कर, जितनी जरूरत है, उतने ही लोगों को नियुक्त कराना बेहद आसान है, जिसे देश की किसी भी कोर्ट में चुनौती भी नहीं दी जा सकती।

मामला शीशे की तरह साफ़ है। बिहार जैसे राज्य में तो सरकार की इस कवायद ने अभी से 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव को पूरी तरह से दुष्कर बना डाला है। हालत यह हो चुकी है कि नितीश कुमार एनडीए में रहें या न रहें, बिहार का ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक इंडिया गठबंधन के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा लामबंद हो सकता है। उल्टा, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक में इसकी आंच पहुँचने लगी है, जो आने वाले समय में हिंदी पट्टी में एक बड़े उलटफेर का संकेत दे रहा है।

(रविंद्र पटवााल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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