भारत के चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे के कार्यकाल का आखिरी दिन 23 अप्रैल 2021 भी विवादित रहा। कार्यकाल के अंतिम दिन कोविड से संबंधित विभिन्न हाई कोर्ट में लंबित मामलों को स्वत: संज्ञान के नाम पर उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित करने की परदे के पीछे से बेशर्म कोशिश और वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे को एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) नियुक्त किये जाने का जिस तरह मुखर विरोध हुआ उससे निश्चित ही जस्टिस बोबडे मुंह में बुरा स्वाद लेकर रिटायर हुए। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को कहना पड़ा कि मैं चाहता हूं कि मुख्य न्यायाधीश को एक अच्छी विदाई मिले, न कि यह दुर्व्यवहार। इस पर वरिष्ट अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने जवाब दिया कि हम दुर्व्यवहार नहीं कर रहे हैं।
दरअसल जस्टिस जगदीश सिंह खेहर, जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस बोबडे के चीफ जस्टिस रहने के दौरान उच्चतम न्यायालय कमोबेश राष्ट्रवादी मोड में रहा और विधिक क्षेत्रों के साथ आम जनमानस में यह धारणा बलवती हुई कि उच्चतम न्यायालय सरकार को अप्रिय स्थिति से बचाने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है और संविधान और कानून के शासन की वाट लग गयी है। इसके दर्जनों उदहारण हैं। इसलिए जैसे ही 22 अप्रैल को सुबह, चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने स्पष्ट संकेत दिया कि सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 से जुड़े उन मुद्दों की सुनवाई खुद करना चाहता है, जिन पर विभिन्न हाई कोर्ट सुनवाई कर रहे हैं। वैसे ही इसकी आलोचना शुरू हो गयी और इसे केंद्र सरकार को अप्रिय स्थिति से बचने के प्रयास के रूप में देखा जाने लगा।
चीफ जस्टिस ने कहा कि मामलों की सुनवाई कर रहे छह अलग-अलग हाईकोर्ट ने भ्रम पैदा किया है और संसाधनों का विभाजन किया है , हालांकि इस संबंध में किसी ने भी उच्चतम न्यायालय से शिकायत दर्ज नहीं की थी। पीठ, जिसमें जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस एस रवींद्र भट शामिल थे, ने सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे को मामले में एमिकस क्यूरिया के रूप में नियुक्त किया। हरिश साल्वे संयोग से मामले में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से हो रही सुनवाई में वेदांता के स्टरलाइट प्लांट को दोबारा खोलने की मांग को लेकर मौजूद थे।
सीनियर एडवोकेट और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का स्वतः संज्ञान हस्तक्षेप और हाईकोर्ट को संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने से रोकने का प्रयास पूर्णतया अनुचित है, इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट पिछले कई दिनों से देश में होने वाली घटनाओं को मूक दर्शक के रूप में देखता रहा है। उन्हें दीवार पर लिखी इबारत देखनी चाहिए थी। उच्चतम न्यायालय, यदि नागरिकों के बारे में चिंतित था, तो यह सुनिश्चित करने के लिए पहले स्वतः संज्ञान हस्तक्षेप करना चाहिए था कि सरकार ठीक से काम करे और यह कि कोविड रोगियों को पर्याप्त अस्पताल, टीके, दवाएं और ऑक्सीजन की आपूर्ति उपलब्ध रहे।
दुष्यंत दवे ने कहा कि सरकार सो रही है और उच्चतम न्यायालय भी इस दौर में दुर्भाग्य से सो रहा है। इसलिए, जब हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करने का फैसला किया, उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप करना नैतिक रूप से अनुचित है। दूसरी बात यह कि स्थानीय परिस्थितियों को जानने के लिए हाई कोर्ट बेहतर स्थिति में है। इसलिए, दिल्ली में बैठे सुप्रीम कोर्ट को वास्तव में हाई कोर्ट के कामकाज में हस्तक्षेप करने से कोई मतलब नहीं है। हाई कोर्ट स्वतंत्र हैं, सुप्रीम कोर्ट के अधीन नहीं हैं।
दवे ने मामले में सीनियर एडवोकेट साल्वे की नियुक्ति की आलोचना भी की और इसे अनुचित करार दिया। दवे ने इस बात से निराशा व्यक्त की कि जब चीफ जस्टिस कुछ गलत कर रहे थे तो पीठ में शामिल अन्य जजों ने हस्तक्षेप नहीं किया। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस रवींद्र भट्ट के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। मुझे अभी भी कहना चाहिए, मैं बहुत निराश हूं। चीफ जस्टिस के साथ बैठे जजों या जस्टिस अरुण मिश्रा जैसे जज से। ये सभी कभी भी अध्यक्षता कर रहे जज को गलत निर्णय लेने से रोक नहीं पाए। यह उच्चतम न्यायालय पर एक बहुत ही दुखद टिप्पणी है। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के सभी जज, जज हैं, वह संवैधानिक शपथ से बंधे हैं। समान जजों के बीच मुख्य न्यायाधीश सिर्फ पहले हैं। वह उनके मालिक नहीं हैं।
सीनियर एडवोकेट और भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि मैं सुप्रीम कोर्ट के नजरिए से असहमत हूं। यह एक प्रतिगामी कदम है। हाई कोर्ट अब बेमानी हो जाएंगे। सीनियर एडवोकेट चंदर उदय सिंह ने कहा कि मुझे आश्चर्य है कि सुप्रीम कोर्ट को देश भर में छह हाई कोर्ट द्वारा युद्ध स्तर पर सुने जा रहे छह अलग-अलग मामलों में कदम रखना चाहिए। यह ऐसे समय में आया है, जब यह माना जा रहा है कि निर्णय लेने के अति-केंद्रित तरीका कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में विफल रहने में व्यापक रूप से जिम्मेदार रहा है।
सीनियर एडवोकेट अंजना प्रकाश सीनियर एडवोकेट और पटना हाई कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश ने कहा कि मुझे लगता है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हाई कोर्ट के आदेश में क्या अवैधता थी? जहां तक मुझे पता है न्यायालयों की पदानुक्रमित प्रणाली के बावजूद, हाईकोर्ट उच्चतम न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय नहीं है, जिसे प्रत्येक आदेश के लिए उच्चतम न्यायालय का अनुमोदन प्राप्त करना पड़े, जैसा कि नौकरशाही में आवश्यक होगा। इसलिए कानूनी हलकों में हस्तक्षेप को उस तरह से देखा जाता है, जिस तरह से नौकरशाही में एक वरिष्ठ अधिकारी अधीनस्थ को आदेश देता है।
सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने कहा कि महामारी की घातक दूसरी लहर और वायरस के तेजी से बढ़ने के कारण, हजारों भारतीयों की जान चली गई, हमें चौकस होकर पूछना चाहिए, क्या सुप्रीम कोर्ट भी मानव जीवन के विनाश में शामिल है?” सीनियर एडवोकेट और राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा, सीनियर एडवोकेट रवींद्र श्रीवास्तव, सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह सहित अनेक वरिष्ट अधिवक्ताओं ने स्वत: संज्ञान के निर्णय की आलोचना की।
भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे के अंतिम कार्य दिवस पर, उनकी अगुवाई वाली पीठ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोविड-19 संबंधित मुद्दों पर लिए गए स्वत: संज्ञान मामले के खिलाफ वरिष्ठ वकीलों द्वारा की गई आलोचना पर नाराज़गी व्यक्त की। पीठ में जस्टिस एल नागेश्वर राव और एस रवींद्र भट भी थे। पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालयों से मामलों को यहां लेने का कोई इरादा नहीं था और इसलिए आलोचना निराधार है। सीजेआई बोबडे ने वरिष्ठ वकीलों द्वारा स्वत: संज्ञान मामले के खिलाफ दिए गए बयानों का जिक्र करते हुए कहा कि हम यह पढ़कर खुश नहीं थे जो, कथित तौर पर वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने कहा, लेकिन हर किसी की अपनी राय है।
वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे को मामले से एमिकस क्यूरी के रूप में मुक्त करने की अनुमति देने के बाद चीफ जस्टिस ने यह टिप्पणी की जब साल्वे ने कहा कि मैं नहीं चाहता कि इस मामले को एक छाया के नीचे सुना जाए कि चीफ जस्टिस से अपनी स्कूल की दोस्ती के आधार पर मैं नियुक्त किया गया था।
एमिक्स क्यूरी हरीश साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 स्वत: संज्ञान मामले से खुद को अलग कर लिया। इस समय, जस्टिस एल नागेश्वर राव ने वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे से पूछा कि आदेश जारी होने से पहले ही, उस चीज़ के लिए आलोचना की जा रही थी जो उस क्रम में नहीं थी। क्या इस तरह से वरिष्ठ अधिवक्ता बोलते हैं? आदेश को देखे बिना? क्या यह तरीका है?”
दवे ने कहा, “वह किसी भी मकसद को लागू नहीं कर रहे हैं। किसी उद्देश्य को लागू नहीं किया जा रहा है। हम सभी ने सोचा था कि आप मामले को हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करने जा रहे हैं। यह एक वास्तविक धारणा थी। आपने पहले भी ऐसा किया है।”
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश आज सेवानिवृत्त हो रहे हैं। मैं वास्तव में महसूस करता हूं कि वह एक प्रेमपूर्ण विदाई के हकदार हैं। वरिष्ठ अधिवक्ताओं को धारणाओं के आधार पर सार्वजनिक बयान नहीं देना चाहिए। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि मैं चाहता हूं कि मुख्य न्यायाधीश को एक अच्छी विदाई मिले, न कि यह दुर्व्यवहार। इस पर दवे ने जवाब दिया कि हम दुर्व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हम इस बयान पर आपत्ति करते हैं। दवे ने कहा कि श्री मेहता, आप केवल धारणाओं के आधार पर सरकार का बचाव कर रहे हैं।
वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के वर्तमान अध्यक्ष विकास सिंह ने कहा कि सॉलिसिटर जनरल ने कहा है कि कोई भी प्रवासी सड़क पर नहीं चल रहा और अदालत ने स्वीकार कर लिया था। विकास सिंह ने कहा कि दिल्ली के अस्पतालों को ऑक्सीजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है, और अदालत को राज्य के मुद्दों पर गौर करना चाहिए।
इसके बाद पीठ ने आज के लिए मामला बंद कर दिया और इसे अगले मंगलवार के लिए स्थगित कर दिया, क्योंकि सॉलिसिटर जनरल जवाब दाखिल करने के लिए समय मांग रहे थे। पीठ ने मामले से मुक्त करने के साल्वे के अनुरोध को भी अनुमति दे दी।
जिस तरह से चीफ जस्टिस बोबडे ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन 23 अप्रैल को नए केस की सुनवाई रखी, उससे भी सवाल उठता है। माइनिंग कंपनी वेदांता ने गुरुवार को अपने बंद पड़े तूतीकोरिन के ऑक्सीजन प्लांट को खोलने की इजाजत मांगी। आगे जब उन्होंने वेदांता के पक्षकार हरीश साल्वे, जिन्होंने हाल के मामलों में केंद्र सरकार का ही पक्ष लिया है, को इस सुमोटो केस में एमिकस क्यूटी (न्याय मित्र) नियुक्त कर दिया तो और सवाल उठने लगे, जबकि हरीश साल्वे इस संकट के बीच भारत में हैं भी नहीं।
सीएए विरोधी प्रदर्शन में पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ आर्टिकल 32 के अंतर्गत, याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं, तब चीफ जस्टिस बोबडे ने कहा था कि याचिकाकर्ताओं को हाई कोर्ट जाना चाहिए। पर अब उन्हें यही हाई कोर्ट के पास जाने वाला रुख गलत लगा। क्या ऐसा इसलिए है कि विभिन्न हाई कोर्ट ने जरूरी मुद्दे पर ऐसे ऑर्डर पास किए हैं जो सरकार के लिए अप्रिय हैं और बैड गवेर्नेंस पर सवाल उठा रहे हैं।
चीफ जस्टिस बोबडे के 17 महीनों के कार्यकाल में संवैधानिकता से जुड़े मुद्दे पर कोई फैसला नहीं लिया गया, चाहे कितना भी जरूरी हो। 17 महीनों के कार्यकाल में उच्चतम न्यायालय में एक भी नियुक्ति नहीं हुई, वह भी तब जब पांच पद खाली हैं और चार तो इनके कार्यकाल में ही खाली हुई। आरोप है कि संघायु वाले न्यायाधीश नहीं मिले। 17 महीनों के कार्यकाल में सरकार से एक भी कठोर सवाल नहीं पूछा गया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और हरीश साल्वे को किसी भी केस में, वे जो चाहें बोलने की आजादी दी गई और बदले में सवाल नहीं किया गया।
सीएए, कश्मीर, इलेक्टोरल बॉन्ड और कृषि कानूनों पर मेरिट की सुनवाई नहीं की गयी। कृषि कानूनों की संवैधानिकता जांचने की जगह, विभिन्न स्टेक होल्डर से बातचीत और रिपोर्ट देने के लिए कमेटी बैठा दी गई। संवैधानिकता के सवाल पर कोई जवाब नहीं दिया और असल में कुछ नतीजा भी नहीं निकला।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)
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