Thursday, March 28, 2024

संवैधानिक शपथ के अनुरूप अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहें हैं चीफ जस्टिस रमना

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने अपनी संवैधानिक शपथ के अनुरूप अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करके भारत के न्यायिक इतिहास में एक ऐसी रेखा खींच दी है जिसका उल्लंघन करना उच्चतम न्यायालय के आने वाले चीफ जस्टिसों, जस्टिस यूयू ललित ,जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ आदि के लिए लगभग असम्भव होगा। उनके पहले चीफ जस्टिस रहे जस्टिस खेहर,जस्टिस दीपकमिश्रा,जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एसए बोबडे जिस तरह अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहे और संविधान के मूलाधिकारों और कानून के शासन की अवधारणा पर राष्ट्रीय सुरक्षा को महत्व दिया उसे चीफ जस्टिस एनवी रमना ने पेगासस जासूसी मामले में ठुकरा दिया और यहाँ तक कहा कि केवल “राष्ट्रीय सुरक्षा” का उल्‍लेख करने भर से राज्य को फ्री पास नहीं मिलेगा और “राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उच्चतम न्यायालय मूक दर्शक नहीं बन सकता ।
जबसे जस्टिस एनवी रमना ने चीफ जस्टिस का कार्यभार सम्भाला है तब से उन्होंने मनसा वाचा कर्मणा उल्लेखनीय काम किया है और अपने चार पूर्ववर्तियों के विपरीत स्पष्ट रूप से साबित कर दिया कि वह अपनी संवैधानिक शपथ के प्रति सच्चे हैं जो अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहे। पेगासस और लखीमपुर खीरी जैसे मामलों में उच्चतम न्यायालय ने साबित कर दिया है कि यह वास्तव में संविधान की कस्टोडियन यानि प्रहरी है और वास्तव में नागरिकों का एक चौकस अभिभावक है।

उच्चतम न्यायालय ने पेगासस मामले में केंद्र सरकार की ओर से द‌िए गए “राष्ट्रीय सुरक्षा” के तर्क को ठुकराते हुए निजता के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पड़ रहे प्रभाव को ज्यादा महत्व दिया, जो उनके पहले चीफ जस्टिस रहे जस्टिस खेहर,जस्टिस दीपकमिश्रा,जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एसए बोबडे कि नजर में गौड़ था और उन्होंने संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई, जिससे अघोषित प्रतिबद्ध न्यायपालिका की अवधारणा को बल मिला।

पेगासस पांचवां मामला था, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल उठाया गया था। लेकिन चीफ जस्टिस की पीठ ने इसे स्वीकार नहीं किया।लेकिन इसके पहले उच्चतम न्यायालय चार अन्य हालिया मामलों राफेल घोटाला, कश्मीर इंटरनेट प्रतिबंध, भीमा कोरेगांव और रोहिंग्या शरणार्थी मामलों में भी केंद्र सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा के तर्क को स्वीकार कर लिया था ।

राफेल घोटाला सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक था जिसमें सरकार ने अदालत से न्यायिक जांच से दूर रहने के लिए कहने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को आधार बनाया। नतीजतन, सरकार ने सीलबंद लिफाफे में कुछ विवरण उच्चतम न्यायालय के सामने भी रखे थे।घोटाले की जांच की मांग वाली याचिका को अंततः तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई कि अगुआई वाली पीठ ने खारिज कर दिया था। सीलबंद लिफाफे में केंद्र की प्रस्तुति में पर उच्चतम न्यायालय के फैसले ने समीक्षा याचिका दायर करने का आधार दिया। समीक्षा सुनवाई के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील भी ली गई।

रक्षा मंत्रालय ने एक हलफनामा दायर कर कहा कि याचिकाकर्ताओं ने समीक्षा याचिका में संवेदनशील और गुप्त दस्तावेजों की फोटोकॉपी संलग्न करके चोरी की है और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता हो सकता है। केंद्र ने कहा था कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 के तहत विशेषाधिकार वाले गोपनीय दस्तावेजों को पुनर्विचार याचिका का आधार नहीं बनाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस आपत्ति पर अपना फैसला 14 मार्च की सुनवाई के बाद सुरक्षित रख लिया था।समीक्षा याचिकाएं भी अंततः खारिज कर दी गईं।

कश्मीर इंटरनेट प्रतिबंध मामले में भी राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया गया था, वह था अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद जम्मू और कश्मीर में इंटरनेट प्रतिबंधों को चुनौती देना।केंद्र सरकार ने दलील दिया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं और सीमा पार आतंकवाद के मद्देनजर इंटरनेट पर प्रतिबंध आवश्यक थे।प्रतिबंध को सही ठहराने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उद्धृत प्रमुख आधारों में से एक यह था कि घाटी में अशांति फैलाने के लिए भारत विरोधी तत्वों द्वारा इंटरनेट और दूरसंचार का दुरुपयोग किया जाएगा।

बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष भीमा कोरेगांव मामले में जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे का हवाला दिया गया था।पुणे पुलिस से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को भीमा कोरेगांव मामले में जांच स्थानांतरित करने को चुनौती देने वाले दो आरोपियों सुरेंद्र गाडलिंग और सुधीर धवले द्वारा दायर एक याचिका में यह तर्क दिया गया था।गृह मंत्रालय द्वारा मामले में दायर हलफनामे में कहा गया है कि केंद्र सरकार ने अपराध की गंभीरता और इसके अंतर-राज्यीय लिंक और राष्ट्रीय सुरक्षा पर निहितार्थ को देखते हुए जांच को संभालने के लिए एनआईए को एक अधिसूचना जारी की थी।

रोहिंग्या शरणार्थी मामले में भी केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील दी थी।सरकार ने 2017 में उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर अपने हलफनामे में कहा कि भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों का लगातार रहना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है।हलफनामे में कहा गया था कि कुछ रोहिंग्या अवैध/राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं, जैसे हुंडी/हवाला चैनलों के माध्यम से धन जुटाना, अन्य रोहिंग्याओं के लिए नकली भारतीय पहचान हासिल करना और मानव तस्करी में भी शामिल हैं।हलफनामा दो रोहिंग्याओं द्वारा दायर एक याचिका में दायर किया गया था जिसमें उन्हें निर्वासित करने के सरकार के फैसले को चुनौती दी गई थी।

पेगासस के अलावा लखीमपुर खीरी कांड का भी चीफ जस्टिस रमना अगुवाई वाली पीठ ने स्वत: संज्ञान लिया, शब्दों की नकल नहीं की और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर असंतोष व्यक्त किया, आरोपी आशीष मिश्रा की गिरफ्तारी पर सवाल उठाया, सबूतों के संरक्षण का निर्देश दिया और स्थानांतरित करने पर विचार किया।और ताजा सुनवाई के दौरान भी उत्तर प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा किया।

इसके पहले तत्कालीन चीफ जस्टिस जे एस खेहर पर कलिखोपुल ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे ।उसके बाद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट मेडिकल प्रवेश घोटाले मामले मे आरोप लगे थे और जस्टिस रंजन गोगोई सही चार जजों ने रोस्टर में अनियमितता बरतते हुए एक जूनियर जज जस्टिस अरुण मिश्रा को महत्वपूर्ण मामलों को सौंपने का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी थी,लेकिन चीफ जस्टिस बनने के बाद रंजन गोगोई ने सरकार के सामने पूरी तरह न्यायपालिका का समर्पण कर दिया और आपातकाल के दौरान न्यायपालिका के समर्पण का रिकार्ड भी तोड़ दिया था।इसके बाद आये चीफ जस्टिस एसए बोबडे भी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर मोदी सरकार के साथ खड़े नज़र आये।

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने पेगासस मामले ने जो कुछ कहा वह आने वाले समय में संवैधानिक और कानून के शासन मामलों में उच्चतम न्यायालय की दिशा निर्धारित करेगा।

चीफ जस्टिस ने कहा कि हम सूचना के युग में रहते हैं। हमें यह पहचानना चाहिए कि प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण है । निजता के अधिकार की रक्षा करना महत्वपूर्ण है, न केवल पत्रकार बल्कि गोपनीयता सभी नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण है । निजता के अधिकार पर प्रतिबंध हैं लेकिन उन प्रतिबंधों की संवैधानिक जांच होनी चाहिए। आज की दुनिया में गोपनीयता पर प्रतिबंध आतंकवाद की गतिविधि को रोकने के लिए है और इसे केवल तभी लगाया जा सकता है जब राष्ट्रीय सुरक्षा की बात हो। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि निगरानी में यह लोगों के अधिकार और स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। यह अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और उनके द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में भी है, ऐसी तकनीक का प्रेस के अधिकार पर प्रभाव पड़ सकता है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles