Tuesday, March 19, 2024

जजों की नियुक्ति में शामिल कई हितधारकों में से महज एक हितधारक हैं जज: चीफ जस्टिस

केरल से माकपा सांसद जॉन ब्रिट्टस ने उच्च और उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीश (वेतन और सेवा शर्त) संशोधन विधयेक-2021 पर चर्चा के समय संसद में कहा था कि न्यायाधीशों द्वारा ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की बात दुनिया में कहीं सुनाई नहीं देती। न्यायाधीशों यानी जस्टिस की नियुक्ति में हमारी कोई भूमिका नहीं है? क्या यह दुनिया में कहीं मौजूद है? बिल्कुल नहीं! न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति दुनियाभर में अनसुना है। लेकिन, भारत में ऐसा होता है। इस पर न्यायिक क्षेत्रों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। भारत के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने रविवार को कहा है कि यह धारणा एक मिथक है कि ‘न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति कर रहे हैं’। क्योंकि न्यायपालिका, न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल कई हितधारकों में से महज एक हितधारक है।  

दरअसल माकपा सांसद जॉन ब्रिट्टस ने राज्यसभा में कहा था कि एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की मांग की गई है, जो पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, बार और जनता का प्रतिनिधित्व करे । लोगों को बताए कि हमारे न्यायाधीश कौन होंगे और उनकी क्षमता, योग्यता क्या है। क्या देश में रहस्य, गोपनीयता और अंधेरे में डूबी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए? जॉन ब्रिटस ने कहा कि मुझे डर है कि हम एक कुलीन तंत्र बना रहे हैं। 

जॉन ब्रिटस ने कहा था कि सरकार भी कॉलेजियम के प्रस्तावों पर चुप्पी साधे रहती है। ऐसे मामले हैं, जब सरकार ने सालों तक कॉलेजियम द्वारा भेजे नामों पर सहमति नहीं दी। इस तथ्य के बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने जोरदार तरीके से कहा था कि नाम दोबारा भेजने पर उन्हें सहमति देनी होगी। केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा में जॉन ब्रिटस के एक अतारांकित सवाल के जवाब में खुलासा किया था कि हाईकोर्ट के कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए की गई 164 सिफारिशों में से 126 वर्तमान में केंद्र सरकार के पास लंबित हैं।

विजयवाड़ा स्थित सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय में पांचवें श्री लवु वेंकेटवरलु धर्मार्थ व्याख्यान में ‘भारतीय न्यायपालिका- भविष्य की चुनौतियां’ विषय पर बोलते चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि हाल के दिनों में न्यायिक अधिकारियों पर शारीरिक हमले बढ़े हैं और कई बार अनुकूल फैसला नहीं आने पर कुछ पक्षकार प्रिंट और सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों के खिलाफ अभियान चलाते हैं। ये हमले ‘‘प्रायोजित और समकालिक’ प्रतीत होते हैं। उन्होंने कहा कि लोक अभियोजकों के संस्थान को स्वतंत्र करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि उन्हें पूर्ण आजादी दी जानी चाहिए और उन्हें केवल अदालतों के प्रति जवाबदेह बनाने की जरूरत है।

जस्टिस रमना ने कहा कि इन दिनों न्यायाधीश खुद न्यायाधीशों की नियुक्ति कर रहे हैं  जैसे जुमलों को दोहराना चलन हो गया है। मेरा मनाना है कि यह बड़े पैमाने पर फैलाए जाने वाले मिथकों में से एक है। तथ्य यह है कि न्यायपालिका इस प्रक्रिया में शामिल कई हितधारकों में से महज एक हितधारक है। जस्टिस रमना ने कहा कि कई प्राधिकारी इस प्रक्रिया में शामिल हैं, जिनमें केंद्रीय कानून मंत्रालय, राज्य सरकार, राज्यपाल, उच्च न्यायालय का कॉलेजियम, खुफिया ब्यूरो और अंतत: शीर्ष में कार्यकारी शामिल है, जिनकी जिम्मेदारी उम्मीदवार की योग्यता को परखने की है। मैं यह देखकर कर दुखी हूं कि जानकार व्यक्ति भी यह धारणा फैला रहा है। आखिरकार यह कथानक एक वर्ग को अनुकूल लगता है।( नोट,मीलार्ड आप ने यह नहीं बताया कि आखिर संघ के कैडर से जुड़े लोग कैसे कालेजियम द्वारा जज बनाये जाने के लिए अनुशंसित हो रहे हैं। अब तो हाईकोर्ट कालेजियम द्वारा अनुशंसित नामों पर ही पहले सुप्रीम कोर्ट कालेजियम ,फिर केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी दी जाती है फिर विवादस्पद राजनीतिक टिप्पणी करने वाले कैडर के लोग कैसे जज बन जाते हैं।)  

जस्टिस रमना ने अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की कोशिश को लेकर केंद्र सरकार की प्रशंसा करते हुए कहा कि उच्च न्यायालयों द्वारा की गई कुछ नामों की अनुशंसा को अब भी केंद्रीय कानून मंत्रालय की ओर से उच्चतम न्यायालय भेजा जाना है। उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार मलिक मजहर मामले में तय समय सीमा का अनुपालन करेगी।

जस्टिस रमना ने कहा कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों, खासतौर पर विशेष एजेंसियों को न्यायपालिक पर हो रहे दुर्भावनापूर्ण हमलों से निपटना चाहिए।उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब तक न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता और आदेश पारित नहीं करता, तब तक आमतौर पर अधिकारी जांच की प्रक्रिया शुरू नहीं करते। जस्टिस रमना ने कहा कि सरकार से उम्मीद की जाती है और उसका यह कर्तव्य है कि वह सुरक्षित माहौल बनाए ताकि न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारी बिना भय के काम कर सकें।

उन्होंने कहा कि मीडिया के नए माध्यमों के पास जानकारी फैलाने की बहुत अधिक क्षमता है,लेकिन ऐसा लगता है कि वह सही और गलत, अच्छे और बुरे, वास्तविक और फर्जी के बीच अंतर करने में अक्षम है।मामलों में फैसला तय करने में ‘मीडिया ट्रायल’ निर्देशित करने वाला तथ्य नहीं होना चाहिए।उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक रूप से भारत में अभियोजक सरकार के नियंत्रण में रहते हैं।चीफ जस्टिस ने कहा कि इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वे स्वतत्रं रूप से कार्य नहीं करते। वे कमजोर और अनुपयोगी मामलों को अदालतों तक पहुंचने से रोकने के लिए कुछ नहीं करते। लोक अभियोजक अपने विवेक का इस्तेमाल किए बिना स्वत: ही जमानत अर्जी का विरोध करते हैं। वे सुनवाई के दौरान तथ्यों को दबाते हैं ताकि उसका लाभ आरोपी को मिले।

उन्होंने सुझाव दिया कि पूरी प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए काम करने की जरूरत है। लोक अभियोजकों को बाहरी प्रभाव से बचाने के लिए उनकी नियुक्ति के लिए स्वतंत्र चयन समिति का गठन किया जा सकता है। अन्य न्यायाधिकार क्षेत्रों का तुलानात्मक अध्ययन कर सबसे बेहतरीन तरीके को अंगीकार किया जाना चाहिए। कानून बनाने के दौरान कानून निर्माताओं को उसकी वजह से उत्पन्न समस्याओं के प्रभावी समाधान के बारे में भी सोचना चाहिए और ऐसा लगता है कि इस सिद्धांत को नजरअंदाज किया जा रहा है।

उन्होंने बिहार मद्य निषेद कानून, 2016 का हवाला दिया, जिसकी वजह से उच्च न्यायालय में जमानत अर्जियों की बाढ़ आ गई। सीजेआई ने कहा कि कानून बनाने में दूरदर्शिता की कमी के कारण अदालतों में सीधे तौर पर रुकावट आ सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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