अडानी-हिंडनबर्ग मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी की रिपोर्ट आते ही अडानी और भाजपा समर्थक नोएडा मीडिया ख़ुशी से झूम रहा है। इस रिपोर्ट में जो बातें नहीं कही गई हैं, उसे हेडलाइंस बनाकर अडानी को क्लीन चिट मिल गई, क्लीन चिट मिल गई गाया जा रहा है। जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी के पास जांच का काम ही मुख्यतया सेबी की रेगुलेटरी पॉवर और उसमें अनियमितता की जांच तक सीमित था।
जांच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में असल में क्लीन चिट किसी को दी है तो वह सेबी को दी है, लेकिन साथ ही कुछ गहरे प्रश्न भी पूछे हैं, जिसका जवाब सेबी को अगले 3 महीने के भीतर सर्वोच्च न्यायालय के सामने देना है।
ध्यान से देखने पर आप पाएंगे कि वो चाहे नोटबंदी को लेकर सर्वोच्च न्यायलय की जांच कमेटी की रिपोर्ट हो अथवा राफेल घोटाला मामले की बात हो, सुप्रीम कोर्ट द्वरा गठित कमेटी के दायरे में जांच का दायरा सीमित अर्थों में था, लेकिन जिसके पास मीडिया हो, सरकार हो और उसकी आवाज को दस गुना जोर-शोर से देश में चिल्लाने वाले हों, वही सत्य बना दिया जाता है। जबकि सत्य अंधेरे की गुमनामी में किसी कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है।
इस बारे में फाइनेंशियल समाचार पत्र और मीडिया कहीं ज्यादा संयत प्रतिक्रिया दे रहे हैं, और बेहद सावधानी से घटनाक्रम पर शुरू से ही निगाहें जमाए हुए हैं। इसकी बड़ी वजह उनकी स्वयं की साख और वित्तीय एवं स्टॉक एक्सचेंज से जुड़े होने में है। वे किसी राजनीतिक उद्देश्य से पहले अपने पाठकों के वित्तीय हितों के लिए जवाबदेह हैं, और ऐसा होना भी चाहिए।
लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया और समाचार-पत्रों के लिए हेडलाइन मैनेजमेंट और अडानी बनाम वैश्विक कॉर्पोरेट की साजिश और भारत को बदनाम करने के लिए बड़े-बड़े पश्चिमी हेज फण्ड द्वारा हिंडनबर्ग रिसर्च फर्म को आगे कर भारत को आगे बढ़ने से रोकने के नैरेटिव से ज्यादा सस्ती लोकप्रियता का खुमार हावी रहता है।
असल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एएम सप्रे की एक्सपर्ट कमेटी ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को रेगुलेटरी विफलता के प्रश्न पर क्लीन चिट जारी की है। लेकिन इसके साथ ही सेबी के अधिकारियों के लिए कुछ मुद्दों, विशेषकर शीर्ष अदालत द्वारा नियमों पर मजबूती से कायम रहने संबंधी कुछ हिदायतें भी जारी की हैं। लेकिन सेबी को मिली इस क्लीन चिट को कथित रूप से अडानी समूह को मिली क्लीन चिट का दावा किया जा रहा है। हालांकि अडानी मुद्दे पर भी, कुछ जांचों पर जो अभी चल रही हैं, कुल मिलाकर कमेटी ने सेबी की भूमिका को संतोषजनक पाया है।
अपनी रिपोर्ट में कमेटी ने कहा है, “रेगुलेटरी विफलता के बारे में निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं होगा क्योंकि सेबी के पास उच्च मूल्य एवं वॉल्यूम के उतार-चढ़ाव पर निगरानी रखने के लिए एक सक्रिय एवं कामकाजी निगरानी ढांचा है और इस प्रकार की निगरानी से उत्पन्न होने वाले डेटा को उसने स्वयं लागू किया है, जिसमें वस्तुनिष्ठ मानदंडों को लागू करते हुए, यह पता लगाने कि क्या स्वाभाविक कीमत की खोज प्रक्रिया की अखंडता में कोई हेरफेर किया गया है अथवा नहीं।”
जहां तक अडानी का मुद्दा है, जो कि अपने-आप में बेहद विशालकाय मुद्दा है, जिसके लिए जांच का दायरा भारत की सीमा से बाहर तक जाता है, को लेकर कमेटी तीन पहलुओं से पर खुद को केंद्रित की हुई थी: 1) न्यूनतम पब्लिक शेयर होल्डिंग (एमपीएस); 2) कानून सम्मत संबंधित पक्षों के साथ किस प्रकार के लेन-देन का खुलासा; और 3) स्टॉक की कीमत में किसी प्रकार के हेरफेर की संभावना।
न्यूनतम पब्लिक शेयर होल्डिंग का मुख्य मुद्दा 13 विदेशी संस्थाओं, जिनमें से 12 विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) हैं, के इर्द-गिर्द घूमता है। 2018 से पहले एफपीआई रेगुलेशन में किसी भी “अपारदर्शी ढांचे” से निपटने के लिए प्रावधान मौजूद थे, जिसके तहत एफपीआई के लिए इस श्रृंखला में मौजूद अंतिम सिरे तक बैठे व्यक्ति के बारे में खुलासा करने का प्रावधान था। लेकिन एक वर्किंग ग्रुप की सिफारिश के बाद 2018 में इस अनिवार्य शर्त को समाप्त कर दिया गया। अधिनियम (पीएमएलए) पर्याप्त अनुपालन का गठन करता है। इसे इस वादे के साथ खत्म कर दिया गया था कि प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लांड्रिंग (पीएमएलए) के तहत की जाने वाली घोषणाएं आवश्यक अनुपालन के लिए पर्याप्त हैं।
2018 में किये गये इस बदलाव के चलते आज सेबी के लिए जांच को अंतिम सिरे पर ले जाना असंभव हो गया है। छह सदस्यीय इस एक्सपर्ट कमेटी, जिसकी अध्यक्षता रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज, एएम सीकरी कर रहे हैं, का निष्कर्ष है कि 2018 के बाद प्रतिभूति कानून में जिस प्रकार से निरंतर बदलाव किये गये हैं, उससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना काफी दुष्कर होगा कि अडानी समूह ने न्यूनतम 25% की पब्लिक शेयर होल्डिंग की अनिवार्य सीमा का उल्लंघन किया है या नहीं।
कमेटी ने कहा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अडानी समूह ने जानबूझकर उन फंड्स के असली मालिकों की पहचान छिपाने की कोशिश की है, जिन्होंने 13 “अपारदर्शी” संस्थाओं, जो कि दुनिया के कई टैक्स हेवन में रह रहे हैं, के जरिये इस व्यावसायिक समूह में डाला है। 8 मई को सर्वोच्च नयायालय के समक्ष पेश अपनी रिपोर्ट में कमेटी ने कहा है कि स्टॉक की कीमत में हेराफेरी के आरोप स्थापित नहीं हुए हैं।
सेबी को संदेह है कि 13 विदेशी संस्थाओं का ढांचा “अपारदर्शी” है, क्योंकि इस श्रृंखला के अंत में कौन व्यक्ति इसका असली मालिक है, उसे स्थापित नहीं किया जा सकता है।
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में आगे कहा है कि हालांकि 2020 में जांच और प्रवर्तन अधिकारियों ने विपरीत दिशा पकड़ी, और घोषणा की कि एफपीआई में हर आर्थिक हित के पीछे उसके अंतिम मालिक की शिनाख्त को सुनिश्चित करना आवश्यक है। विशेषज्ञ समिति ने सेबी की इस अजीबो-गरीब विरोधाभासी स्थिति के बारे में कहा है, “प्रतिभुति बाजार नियामक आर्थिक हेराफेरी के बारे में तो सशंकित हैं, लेकिन अपनी ही नियमावली के भीतर विभिन्न शर्तों के अनुपालन से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।”
विशेषज्ञ समिति ने जो मार्के की टिप्पणी की है, वह अपने आप में काफी कुछ कह देती है। उसके अनुसार, “यही वह विरोधाभास है जिसने सेबी को, इसके भरसक प्रयासों के बावजूद दुनिया भर से खाली हाथ लौटने के लिए विवश कर दिया है। इस सूचना के बिना सेबी अपने काम से संतुष्ट नहीं रह सकती, जो उसके भीतर उठे संदेह को शांत करने में सहायक सिद्ध हो। रिकॉर्ड इस बात का खुलासा करते हैं कि यह पहले मुर्गी या अंडा वाली स्थिति पैदा हो गई है।”
संक्षेप में कहें तो कमेटी का कहना है कि 2014 में सेबी के हाथ में जो अधिकार थे, जिसमें उसके पास एफपीआई हितधारकों के बारे में गहराई से जानने का अधिकार हासिल था, 2018 में उसमें संशोधन कर उन अधिकारों को बड़े पैमाने पर सीमित कर दिया गया है। निवेशक संस्थाएं इस नियम के तहत अपना काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। यही करण है कि सेबी को अपनी जांच को मुकम्मल अंजाम तक पंहुचाने के लिए सर्वोच्च न्ययालय से और समय मांगने की जरूरत पड़ी, लेकिन यह कैसे इसे हासिल कर सकती है, इस बारे में संदेह के बादल इस खुलासे ने बढ़ा दिए हैं।
यहां तक कि जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में पाया है कि 2018 में कानून में बदलाव के बावजूद सेबी अक्टूबर 2020 से ही 13 विदेशी संस्थाओं के मालिकाने की पड़ताल में जुटी हुई थी। इसमें सेबी को 13 विदेशी संस्थाओं के 53 आर्थिक योगदान करने वालों का पता लगा था। इसके लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया गया, जिसमें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टैक्सेज (सीबीडीटी) और प्रतिभूति बाजार के विभिन्न नियामकों को लगाया गया, जहां पर ये 43 योगदानकर्ता रह रहे हैं। लेकिन इन सभी कोशिशों का नतीजा अभी तक सिफर रहा है।
मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने न्यायमूर्ति सप्रे की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमेटी की नियुक्ति की थी। इस कमेटी के अन्य सदस्यों में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया (एसबीआई) के पूर्व अध्यक्ष, ओपी भट्ट, न्यायमूर्ति जेपी देवदत्त, केवी कामत, नंदन निलेकणी और सोमशेखर सुन्दरसेन हैं।
जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सेबी ने इस बात का भी पता लगाया है कि कुछ संस्थाओं ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन से पहले ही शॉर्ट पोजीशन ले ली थी और रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाने के उपरांत कीमतों में आई तेज गिरावट से मुनाफा कमाया।
भारतीय प्रतिभूति बाजार प्रकटीकरण आधारित व्यवस्था पर काम करता है। हालांकि कमेटी के अनुसार, “आत्मनिरीक्षण करने और इस बात पर कड़ी नज़र रखने की तत्काल आवश्यकता है कि क्या खुलासे का एक आधिक्य है जो निवेशकों को इतने अधिक डेटा और शोरगुल में डाल देता है कि एक सुचिंतित फैसला लेने के लिए जो आवश्यक वास्तविक सामग्री हो सकती है, वह उससे हाथ धो बैठता है।”
न्यायमूर्ति सप्रे समिति ने भी सेबी के भीतर शक्तियों के पृथक्करण की सिफारिश की है। सिफारिश में कहा गया है कि नियामक की अर्ध-न्यायिक शाखा को आवश्यक रूप से कार्यकारी शाखा से घिरा होना चाहिए ताकि इसमें वास्तव में चेक एंड बैलेंस का सामंजस्य हो। यदि कार्यकारी विभाग द्वारा अर्ध-न्यायिक अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाता है, तो शक्तियों के पृथक्करण की बुनियाद ही नष्ट हो जाती है।”
विशेषज्ञ समिति ने जटिल प्रवर्तन मामलों में जानकीरमन समिति की तर्ज पर एक बहु-एजेंसी जांच समिति की भी सिफारिश की है, जिसमें कई नियामक एवं प्रवर्तन एजेंसियों के कौशल और विशेषज्ञता की जरूरत होगी।
विशेषज्ञ समिति ने अपनी सीमित जांच परिधि में अडानी समूह या हिंडनबर्ग रिपोर्ट को शामिल ही नहीं किया था। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारे देश का मीडिया और नेतागण आखिर किस एजेंडे के तहत अडानी को क्लीन चिट देने के लिए बावले हुए जा रहे हैं? यह न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक्सपर्ट कमेटी की निष्ठा को सवालों के घेरे में लाने का काम कर रही है, बल्कि सेबी और सरकार की उन गलतियों पर पर्दा डालने का काम कर रही है, जिसके चलते आज सेबी के हाथ बंधे हैं, और वह संदेह होने पर भी उन अपारदर्शी संस्थाओं और लेन-देन की बारीकियों को उधेड़कर दूध का दूध और पानी करने में खुद को अक्षम पा रही है।
भले ही इस बीच अडानी समूह ने भारत में आज रिटेल निवेशकों के समूह को अपने पक्ष में करने में सफलता पा ली हो, लेकिन सच तो यह है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद वैश्विक स्तर पर इस समूह की साख बुरी तरह से गिरी है। अडानी समूह लगातार विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास गिरवी रखे अपने शेयरों को छुड़ाने के लिए एक के बाद एक कर्ज की व्यवस्था में व्यस्त है। उसके सभी भावी प्रोजेक्ट या तो ठप पड़े हैं या निरस्त किये जा चुके हैं। अभी भी उसे बड़े पैमाने पर कर्ज अदायगी की प्रक्रिया से जूझना बाकी है। हालांकि भारतीय सत्ता-संस्थान की मदद से सार्वजनिक बैंकों, एलआईसी और ईपीएफओ के फंड के दरवाजे खुले हैं। लेकिन कल यदि ऐसा करते रहने में कोई कमी रह जाती है, तो आम भारतीय निवेशकों की गाढ़ी कमाई तो कौड़ियों के भाव बिकनी तय है।
ऐसे में सेबी को गंभीरता से तय करना होगा कि क्या वह इस जांच को अंतिम अंजाम पर पहुंचाने के लिए खुद को अधिकार संपन्न पा रही है? यदि नहीं तो उसे खुलकर यह बात सर्वोच्च न्यायालय और भारत सरकार के सामने रखनी होगी, और निष्पक्ष जांच के लिए आवश्यक क़ानूनी बदलावों के साथ स्टॉक एक्सचेंज में पारदर्शिता और निवेशकों के हितों के साथ न्याय करना होगा। वरना भारतीय निवेशक ही नहीं बल्कि दुनिया भर से निवेश की भारत सरकार की ख्वाहिश एक दिवा-स्वप्न ही रह जायेगी।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)