2 दिन पहले एक दैनिक समाचार पत्र के कार्यालय में बैठा था। वहां कुछ मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के मित्र भी थे। मेरे पहुंचते ही उन्होंने कहा कि भारत सहित दुनिया में कमुनिस्टों का नामोनिशान मिट गया है। बात श्रीलंका में हुए चुनाव परिणाम के संदर्भ में व्यंग्य के बतौर कही गई थी।
ये सभी मित्र सामाजिक न्यायवादी थे। मैंने हंसते हुए कहा कि कम्युनिस्ट उस बीज की तरह से होते हैं। जो धरती की मिट्टी में मिल जाता है और अनुकूल मौसम में अंकुरित हो कर विराट वृक्ष का रूप ले लेता है। जिसके फल खाकर और उसकी छाया तले हजारों कमजोर बेसहारा पशु-पक्षी, जानवर सुकून की जिंदगी का सुख लेते हैं।
पिछले पौने दो सौ वर्षों में कम्युनिस्टों का इतिहास इसी तरह का रहा है। क्रूर लुटेरे मानव विरोधी ताकतों से लड़ते हुए धरती पर गिरा कम्युनिस्टों और लोकतंत्र वादियों का खून धरती की मिट्टी में जज्ब होता आ रहा है।
जो समाज के विकास के ऐतिहासिक मोड़ पर मानव समाज की अग्रगति के साथ मिलकर समाज को बदल देने में निर्णायक भूमिका निभाता है। श्रीलंका के चुनाव में इसकी एक छोटी सी झलक दिख रही है।
2022 का श्रीलंकाई विद्रोह, लगभग 50 वर्षों से आंतरिक गृहयुद्ध, तानाशाही, खून, आग, और मौत के बीच झूलता हुआ श्रीलंका असमाधेय आर्थिक संकट में उलझ गया था। जिससे नागरिकों के अप्रत्याशित विद्रोह और जन उभार के कारण तानाशाह गोटाबाया राजपक्षे की सरकार हवा में उड़ गई और जनसैलाब ने राजमहल पर कब्जा कर लिया।
रात्रि के अंधेरे में श्रीलंका के तानाशाह राजपक्षे परिवार को देश छोड़कर भागना पड़ा। जिस कारण रानिल विक्रम सिंघे के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ।
यहां ध्यान देने की बात है कि बांग्लादेश की तरह श्रीलंका की जनता ने राजमहल में लूटपाट नहीं की। एक जन-सैलाब के इस अनुशासित कार्रवाई ने तानाशाही को उखाड़ कर लोकशाही की स्थापना की तरफ आगे बढ़ गई।
उस विद्रोह में अघोषित लेकिन सुनिश्चित लक्ष्य के साथ नागरिकों की जन पहल कदमी ने आने वाले श्रीलंका के भविष्य का संकेत दे दिया था।
उस समय प्रेक्षकों का ध्यान इस बात की तरफ गया था कि नौजवानों, छात्रों, नागरिकों के साथ मजदूरों की सशक्त भागीदारी ने श्रीलंका को अराजकता की तरफ बढ़ने से रोक दिया था और जनविद्रोह को ठोस लक्ष्य तक पहुंचाने में भूमिका निभाई थी।
आज श्रीलंका के चुनाव परिणाम आने के बाद यह विश्वास सुदृढ़ हो गया है कि निश्चित ही श्रीलंकाई क्रांति में ऐसी राजनीतिक शक्तियां सक्रिय थीं, जिनके पास श्रीलंका के भविष्य के लिए सुनिश्चित परियोजना थी।
इस स्थिति को समझने के लिए हमें श्रीलंका के जन जीवन में ‘मार्क्सवादी-लेनिनवादी’ पर्टियों द्वारा दी गई कुर्बानी, समाज पर गहरी पकड़, जनता का उनपर विश्वास और वामपंथियों द्वारा समय-समय पर लिए गए साहसिक राजनीतिक पहलकदमियों के प्रभाव का विश्लेषण करना होगा।
इस संदर्भ में श्रीलंका में वामपंथी आंदोलन के संक्षिप्त इतिहास पर चर्चा करना समीचीन होगा।
श्रीलंका का स्वतंत्रता संघर्ष और वामपंथियों की भूमिका
भारत का पड़ोसी होने और भारत के साथ गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक संबंधों के कारण तत्कालीन सीलोन (आज का श्रीलंका) में स्वतंत्रता आंदोलन लगभग भारत के ही साथ आगे बढ़ा। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के अंदर चल रहे वैचारिक राजनीतिक संघर्षों का श्रीलंका पर भी गहरा असर पड़ा था।
जहां भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 के आसपास होती है, वहीं श्रीलंका में इसकी शुरुआत 30 के दशक में ही हो पायी। 1935 में सम समाज पार्टी की स्थापना के साथ श्रीलंका में वाम आंदोलन की शुरुआत हुई और तेजी से वामपंथी पार्टियों का प्रभाव बढ़ने लगा।
बाद में श्रीलंका को डोमिनियन स्टेट के रूप में स्वतंत्रता मिली। श्रीलंका के डोमिनियन स्टेट बनने के बाद श्रीलंकाई कम्युनिस्टों ने श्रीलंका को पूर्ण स्वतंत्र सार्वभौम राष्ट्र बनाने के लिए अनेक तरह के संघर्ष चलाए।
वहां की दोनों विपक्षी पार्टियों यूनाइटेड श्रीलंका पार्टी और श्रीलंका फ़्रीडम पार्टी के साथ मिलकर सम समाज पार्टी ने कई बार संयुक्त मोर्चा सरकारों में भी भागीदारी की।
वामपंथी सम समाज पार्टी ट्राटस्की वादी थी। इसलिए 1946 में इससे अलग होकर श्रीलंका कम्युनिस्ट पार्टी बनी। बाद के दिनों में विभाजन का यह सिलसिला चलता रहा। मोटे तौर पर श्रीलंका में निम्न कम्युनिस्ट पर्टियां काम कर रही हैं।
एक– जनता विमुक्त पैरामुना। दो – श्रीलंका की कम्युनिस्ट पार्टी। तीन -सीलोन कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)। चार– लंका समाज पार्टी। पांच – श्रीलंका की कम्युनिस्ट पार्टी (माले)। छ: – नव लोकतांत्रिक मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी। और सात– फ्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी।
इसी तरह से 4 ट्रॉटस्की वादी पार्टियां भी थीं। जिसमें- एक- नव समाजवादी पार्टी। दो– विप्लवी लंका समाजवादी पार्टी। तीन – समाजवादी समानता पार्टी (श्रीलंका)। चार– लंका समाज पार्टी (वैकल्पिक समूह)।
पूरे विश्व में श्रीलंका ही एक ऐसा देश है जहां ट्रॉटस्की वादी कम्युनिस्ट आंदोलन ताकतवर रहा है और कई संयुक्त सरकारों में भागीदारी भी की है।
समय-समय पर श्रीलंका में कई गठबंधन और संयुक्त मोर्चे भी बनते रहे। जैसे – एक– संयुक्त मोर्चा। दो– संयुक्त वाम मोर्चा। तीन– राष्ट्रीय जनशक्ति। श्रीलंका पीपुल्स पावर आदि।
इस तरह वैचारिक राजनीतिक और कार्यनीतिक सवालों को लेकर श्रीलंका में वाम आंदोलन कई भागों में विभाजित रहा है और अनेक दौरों से गुजरते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा। 1952 में मज़दूरों के सवाल पर तत्कालीन सम समाज पार्टी और श्रीलंका की कम्युनिस्ट पार्टी ने एक विराट आंदोलन खड़ा किया था।
जिससे श्रीलंका की सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा था। बाद के दिनों में डोमिनियन स्टेटस खत्म करने से लेकर स्वतंत्र सार्वभौम श्रीलंका बनने तक कम्युनिस्टों ने भारी कुर्बानी दी और सीलोन से सार्वभौम राष्ट्र यानी श्रीलंका बनने तक की यात्रा में गौरवशाली भूमिका निभाई।
साठ के दशक में श्रीलंका के कम्युनिस्ट आंदोलन में अनेक तरह के उतार चढ़ाव आने शुरू हुए। इसी दौर में श्रीलंका कम्युनिस्ट पार्टी (पेकिंग विंग ) से विभाजित होकर जनता विमुक्ति पेरामुना यानी जेवीपी नाम का मार्क्सवादी लेनिनवादी आंदोलन शुरू हुआ। जो पार्टी में बदल गया।
आज इसी जेवीपी के नेता अनुरा कुमारा दिसानायके श्रीलंका में राष्ट्रपति चुने गए हैं। जो पहले वामपंथी यानी मार्क्सवादी लेनिनवादी राष्ट्रपति कहे जा रहे हैं।
जेवीपी का जन्म और विकास
जेवीपी आंदोलन के निर्माण में लुंबा यूनिवर्सिटी से मेडिकल की पढ़ाई करके आने वाले एक युवा रोहाना विजेवीरा की मुख्य भूमिका थी। जिनके पिता एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे। जो यूनाइटेड श्रीलंका पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा पिटाई करने से जीवन भर के लिए विकलांग हो गए थे।
युवा रोहाना ने तत्कालीन वाम पार्टियों के पूंजीवादी पर्टियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने और सरकार में शामिल होने की कार्यनीति से असहमत होकर अपने तीन साथियों सनथ, करुन्नारथे और लोकुअथुला के साथ मिलकर जेवीपी की स्थापना की।
इसके पहले रोहना विजेवीरा कम्युनिस्ट पार्टी सीलोन पैकिंग विंग से जुड़े थे। सशस्त्र विद्रोह की उनकी विचारधारा के कारण 1966 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया और यहां से जेवीपी की स्वतंत्र यात्रा शुरू हुई। यह श्रीलंका में जोशीले युवाओं की मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारों वाली पार्टी थी।
जिसने 1971 में श्रीलंका के डोमिनिकन स्टेटस का विरोध करते हुए स्वतंत्र सार्वभौम श्रीलंका के निर्माण के लिए सशस्त्र संघर्ष शुरू किया। जेवीपी के रेड गार्डों ने श्रीलंका के दक्षिणी मध्य प्रांतों के 74 प्रमुख गढ़ों पर कब्जा कर लिया और उसे बरकरार रखने में सफल रहे। विद्रोही युवा थे। उनके हथियार और प्रशिक्षण उन्नत स्तर के नहीं थे। इसलिए सुरक्षा बलों ने भारत जैसे देशों के सहयोग से उन्हें पराजित कर दिया गया।
श्रीलंका के इस विद्रोह ने श्रीलंका की स्थिति को बदल दिया और सीलोन कहा जाने वाला यह प्रायद्वीप श्रीलंका गणराज्य के रूप में सामने आया। लेकिन इस विद्रोह ने श्रीलंका में कई तरह के सवालों को जन्म दे दिया। (यहां याद रखें 60 के दशक का आखिरी समय भारतीय उपमहाद्वीप में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के तूफानी वेग से आगे बढ़ने का दौर था। जिससे भारतीय उपमहाद्वीप का कोई भी ऐसा देश नहीं था जो प्रभावित न हुआ हो)।
श्रीलंकाई समाज
श्रीलंका में मुख्यतः सिंहली और तमिल (मुसलमान भी ) दो समूह रहते हैं। बहुसंख्यक सिंहली अपने को श्रीलंका के मूल निवासी मानते हैं। तमिल भारतीय मूल के कहे जाते हैं। 50 के दशक में भी तमिल विरोधी दंगे हुए थे। जिसमें भारी तादात में लोग मारे गए थे।
श्रीलंका की सरकारों ने हर समय बहुसंख्यक सिंहलियों का पक्ष लिया। तमिल जनता के अधिकारों और उनकी पहचान तथा संस्कृत के साथ बार-बार नस्लवादी भेदभाव होता रहा है।
जिस कारण से वहां तमिल विद्रोह की शुरुआत हुई। हालांकि तमिलों में भी कई तरह के वामपंथी संगठन थे। लेकिन बिलपुरी प्रभाकरन के नेतृत्व में लिट्टे (LTTE) के उभार के बाद उग्र तमिल राष्ट्रवाद ने आतंकवादी रास्ता ले लिया।
दूसरी तरफ सिंहली बौद्धों के नेतृत्व में धुर दक्षिणपंथी सिंहली राष्ट्रवाद पहले से ही संगठित था। जिसे सरकारों का समर्थन हासिल था। जिस कारण दोनों समुदायों में नस्लवादी संघर्ष शुरू हो गया। बड़े पैमाने पर श्रीलंका में जनसंहार हुए। पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री से लेकर श्रीलंकाई राष्ट्रपति तक आतंकवादी घटनाओं में मारे गए।
तमिल व सिंहल नस्लवादी संघर्ष ने श्रीलंका के बुनियादी संघर्षों की दिशा ही पलट दी और लंबे समय के लिए श्रीलंका गृहयुद्ध में फंस गया। यह वह दौर था। जब किसी वामपंथी संगठन के लिए सही वर्गीय दिशा तय करना बहुत ही कठिन था। जेवीपी के साथ भी ऐसा ही हुआ।
1971 के विद्रोह में पराजित होने के बाद जेबीपी धीरे-धीरे सिंहली राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ती गई। हालांकि इसकी विचारधारा में प्रगतिशील मार्क्सवादी लेनिनवादी आईडियोलॉजी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की अवधारणा मौजूद रही।
लेकिन एक समय ऐसा आया जब जेवीपी ने तमिल नरसंहार का समर्थन किया और तत्कालीन सरकार को इसमें सहयोग दिया। वाम सिंहली राष्ट्रवाद का झंडा लिए जेवीपी सिंहली समाज की पार्टी जैसा दिखने लगी और उसका मार्क्सवादी लेनिन वादी चरित्र धुंधला हो गया।
जेवीपी ने 1977 में लोकतांत्रिक राजनीति में प्रवेश किया। राष्ट्रपति जे आर जयवर्धने ने जेबीपी नेता रोहाना विजे वीरा को जेल से रिहा कर दिया। 82 के चुनाव में रोहाना ने भाग लिया। उन्हें 4.15% वोट मिला था। चुनाव से पहले उन्हें राज्य को हिंसक तरीके से उखाड़ फेंकने की साजिश रचने के लिए आपराधिक न्याय आयोग द्वारा दोषी ठहराया गया और जेल में डाल दिया गया था।
दूसरा विद्रोह
1987/ 88 में श्रीलंका और भारत के बीच शांति संधि होने के बाद शुरू हुआ। तमिल विद्रोहियों को नियंत्रित करने के लिए भारत श्रीलंका के बीच शांति संधि हुई। जिसके बाद भारत ने श्रीलंका में शांति सेना भेजी। भारतीय शांति सेना के खिलाफ जेवीपी ने युद्ध की घोषणा कर दी और हथियारबंद संघर्ष में उतर आई।
इस दूसरे विद्रोह के बाद तत्कालीन सरकार ने जेबीपी पर भारी दमन ढाया। ऑपरेशन कंबाइन में रोहन विजेवीरा के मारे जाने के बाद जेवीपी बहुत कमजोर हो गई।
विद्रोह के असफल होने के बाद जेवीपी चुनाव में वापस लौट आई। जेवीपी के बचे हुए सदस्यों ने 1994 के चुनाव प्रचार में भाग लिया। लेकिन वे फिर चुनाव से वापस हथियारबंद संघर्ष की राजनीति में लौट आए। इस दौरान कुछ समय के लिए उन्होंने राष्ट्रवादी फ्रीडम पार्टी को राजनीतिक समर्थन भी दिया था।
रोहाना विजेवीरा ने जब जेवीपी आंदोलन की शुरुआत की थी तो उनकी विचारधारा मार्क्सवाद लेनिनवादी थी। उनका लक्ष्य था क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर हथियारबंद संघर्ष द्वारा पूंजीवादी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकना और सत्ता पर कब्जा करके मजदूर वर्ग का राज्य कायम करना।
1971 में उन्होंने सफलतापूर्वक विद्रोह किया भी। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक शक्तियों (भारत और पाकिस्तान) के सहयोग से तत्कालीन श्रीलंका सरकार ने विद्रोह को कुचल दिया।
बाद के दिनों में घटनाक्रमों के लगातार बदलते जाने से जेवीपी को कई बार कार्यनीतिक और राजनीतिक बदलाव करना पड़ा था। करिश्माई नेता रोहाना के न रहने के बाद जेबीपी ने श्रीलंका की लोकतांत्रिक राजनीति में पूरी शक्ति से प्रवेश किया।
महिंद्रा राजपक्षे द्वारा तमिल जनता के जनसंहार का पक्ष लेने या तमिल विद्रोह को महिंद्रा राजपक्षे द्वारा कुचलने की नीति का समर्थन करने के कारण जेवीपी को वामपंथी राष्ट्रवादी के खोल में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी माना जाने लगा। उनके ऊपर कई तरह के आरोप भी लगे। तथा मार्क्सवाद लेनिनवाद से विचलित होने और धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का समर्थन करने का आरोप लगा।
अनुरा कुमारा दिसानायके का उत्थान
अनुरा अनुराधापुरा जिले के एक पिछड़े गांव के खेत मजदूर के बेटे हैं। जेवीपी ने जब 1987- 88 में भारतीय शांति सेना के खिलाफ दूसरा विद्रोह शुरू किया। तो प्रेमदासा सरकार ने विद्रोह को कुचल दिया। इस संघर्ष में 1998 में उनके बड़े भाई की सरकार द्वारा हत्या कर दी गई और उनके पैतृक घर को जला दिया गया।
1968 में पैदा हुए अनुरा छात्र जीवन से ही वामपंथी राजनीति से जुड़ गए थे। उनके भाई की हत्या और पैतृक घर को सेना द्वारा जला देने से उनका विश्वास जेवीपी के क्रांतिकारी चरित्र के प्रति बढ़ता गया। 80 के दशक में वह सक्रिय तौर पर वामपंथी छात्र राजनीति में काम करने लगे।
1998 के बाद जेवीपी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनके कंधे पर आ गई। शुरू में जेवीपी के युवा शाखा के साथ जुड़े थे।जेवीपी ने विभिन्न तबकों का संगठन खड़ा किया था। जिसमें युवा विंग, मजदूर विंग, महिला विंग और राहत सेवक संगठन प्रमुख थे।
जिनके द्वारा जनता में नीचे तक राजनीतिक प्रचार अभियान और राहत कार्य चलाया जाता था। जिस कारण से जेवीपी का श्रीलंका की जनता से जमीनी रिश्ता गहरा था।
1998 के बाद जेवीपी ने श्रीलंका के मुख्य धारा की राजनीति में पूरी ताकत से प्रवेश किया। अनुरा सन 2000 में श्रीलंका की संसद के सदस्य बने। 2004 में अनुरा श्रीलंका फ़्रीडम पार्टी के चंद्रिका कुमार की गठबन्धन सरकार में शामिल हुए और कृषि मंत्री बनाए गए। लेकिन नीतियों के प्रति मतभेद के कारण 2005 में उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया।
2014 में सोमवंशा अमर सिंघे के बाद जेवीपी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी उनके कंधे पर आई। यह जिम्मेदारी मिलते ही उन्होंने जेवीपी के हथियारबंद संघर्ष कालीन अतीत से अपने को धीरे-धीरे अलग करना शुरू किया और उस दौर के प्रति खेद प्रकट किया।
यहां से अनुरा श्रीलंका के मुख्य धारा की राजनीति के खिलाड़ी बनकर उभरे। 2018 में नेशनल पीपुल्स पावर नामक गठबंधन बनाया। इस गठबंधन में दो दर्जन से ज्यादा छोटे बड़े वामपंथी, प्रगतिशील, मानवाधिकार वादी, पर्यावरण वादी, सामाजिक संगठन और राजनीतिक समूह शामिल हुए।
2019 के चुनाव में गठबंधन के उम्मीदवार के वतौर अनुरा राष्ट्रपति का चुनाव लड़े। लेकिन उन्हें सिर्फ 3.15% वोट मिले। उस समय तीन प्रतिशत वोट वाली पार्टी कह कर विपक्षियों द्वारा जेवीपी और अनुरा का मजाक उड़ाया जाता था।
लेकिन इस असफलता का अनुरा के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह और मेहनत के साथ जन सवालों पर सक्रिय हो गए। श्रीलंका धीरे-धीरे आर्थिक संकट की तरफ बढ़ रहा था। राजपक्षे परिवार की तानाशाही बढ़ती जा रही थी। महंगाई बेरोजगारी और कुव्यवस्था के कारण जनता में आक्रोश फैल रहा था। छात्र युवा अंदर-अंदर उबल रहे थे।
अनुरा के ज़ोरदार भाषणों ने छात्रों युवाओ को प्रभावित करना शुरू किया। किसी पारिवारिक खानदानी पृष्ठभूमि से रहित गरीब दिहाड़ी मजदूर के बेटे की उनकी छवि ने श्रीलंकाई नागरिकों में नए तरह का आत्मविश्वास पैदा किया।
उनका साधारण रहन-सहन सामान्य लोगों की तरह की वेशभूषा नौजवानों को आकर्षित करने लगी और उनकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा। वह नागरिकों में परिवर्तन के प्रति विश्वास पैदा करने में सफल रहे।
2022 का जन विद्रोह-देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था। देश आईएमएफ और विश्व बैंक के कर्जजाल में फंसा था। महंगाई चरम पर थी। नौजवान बड़ी संख्या में बेरोजगार थे। छोटे से देश में 20 लाख से ज्यादा छात्र युवा बेरोजगारी की मार झेल रहे थे। ऊपर से महिंद्रा और गोटाबाय राजपक्षे परिवार ने दमन उत्पीड़न तेज कर दिया।
तमिल जनता का नरसंहार करके सत्ता में आए और सिंहली जनता का नायक बने महिंद्रा राजपक्षे ने खानदानी तानाशाही थोप दी थी। विश्व का इतिहास गवाह है कि कॉर्पोरेट नियंत्रित दुनिया में नस्ल और धर्म के नाम पर नरसंहार कर सत्ता हथियाने वाले अंततोगत्वा क्रूर तानाशाही की ही शरण लेते हैं।
यही काम राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका में भी किया। तमिलों के जनसंहार के अपराध में घिरी राजपक्षे सरकार पूरे देश पर तानाशाही थोपने लगी। विरोधियों को दंडित किया जाने लगा। जिस कारण से जन आक्रोश ज्वालामुखी की तरह से फूट पड़ा। ऊपर से आर्थिक हालात दिन प्रतिदिन बदतर होते जा रहे थे।
एक छोटसी घटना ने आग में घी का काम किया और दुनिया ने देखा की हजारों-हजार छात्र युवा महिला के संगठित, असंगठित मजदूर राष्ट्रपति भवन की तरफ कूच कर गए और उस पर कब्जा कर लिया। राजपक्षे परिवार को रात के अंधेरे में देश छोड़कर भागना पड़ा। उस समय सेना ने तटस्थ रहना ही बेहतर समझा।
अनुशासित जनसैलाब के समक्ष सुनिश्चित लक्ष्य था। विशाल जन समूह के द्वारा की गई शांतिपूर्ण अनुशासित कार्रवाई ने दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया। राष्ट्रपति के गोटाबाय राजपक्षे के देश छोड़ने के बाद अंतरिम सरकार का गठन हुआ।
रानिल विक्रम सिंघे अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने। जिनकी पृष्ठभूमि वामपंथी राजनीति की रही थी। लेकिन यह माना जाने लगा था कि वह राजपक्षे परिवार के सहयोग से प्रधानमंत्री बने हैं।
चुनाव 2024
अंतरिम सरकार बनने के बाद देश में एक अनिश्चितता का माहौल बना था। अप्रत्याशित जन उभार को कैसे संगठित, संयमित और अनुशासित रखा जाएगा। श्रीलंका की जनता ने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए दुनिया के सामने नई मिसाल पेश की।
2 साल बीतते-बीतते अंतरिम सरकार ने चुनाव कराने का फैसला किया और शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न हो गया। सितंबर के चुनाव में जेवीपी के अनुरा कुमारा दिसानायके जो श्री लंका पीपल्स पावर के साझा उम्मीदवार थे। चुनाव जीत गए।
2019 के चुनाव में तीन प्रतिशत वोट पाने वाले जेवीपी के प्रत्याशी अनुरा अचानक 42% से ऊपर मत पाकर दूसरी वरीयता की मतगणना में राष्ट्रपति चुने गए। यह एक आश्चर्यजनक विकास था।
आउटसाइडर से मुख्य धारा के नायक
आमतौर पर कम्युनिस्टों को दुनिया भर में लोकतांत्रिक राजनीति में आउटसाइडर या हासिए की राजनीति का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जेवीपी जो 30 वर्षों तक हथियारबंद संघर्ष की पार्टी थी। वह अनुरा के नेतृत्व में 20 वर्षों में अपने को रूपांतरित कर श्रीलंका के राष्ट्रपति का चुनाव जीत गयी।
चुनाव अभियान में अनुरा ने एक लोकतांत्रिक तटस्थ नेता के रूप में अपनी छवि पेश करने की कोशिश की। ऐसा आभास होता है कि क्रांतिकारी मार्क्सवादी लेनिनवादी पहचान से अनुरा ने अपने को धीरे-धीरे अलग करते हुए सर्वजन के प्रतिनिधि बनने की कोशिश की।
जब भी उनसे पार्टी के अतीत के बारे में और तमिल विरोधी नरसंहार के समर्थन पर सवाल पूछा गया तो उन्होंने इसे यह कह कर जवाब देने की कोशिश की कि वह हमेशा जनता के साथ रहने के पक्ष में हैं।
उन्होंने लेवल चस्पा करने की राजनीति का विरोध किया और कहा कि हम किसी लेवल के तहत राजनीति करने के पक्षधर नहीं है। यानी वामपंथी पहचान को उन्होंने धीरे-धीरे नजरअंदाज करने की कोशिश की।
इसलिए अनुरा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अनेक तरह के सवाल उठ रहे हैं। क्या मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा की एक पार्टी धीरे-धीरे पूंजीवादी राजनीति में खप जाएगी? और रेडिकल वामपंथी पार्टी की अपनी पहचान खो देगी।
या वह स्थापित कम्युनिस्ट सरकारों के मॉडल को बदलकर मेहनतकश वर्ग की सत्ता के किसी नए राजनीतिक मॉडल को विकसित करने की तरफ चुनावी रास्ते के आगे बढ़ेगी। अभी तक की स्थिति देख कर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता कि आने वाले समय में अनुरा के नेतृत्व में एक धुर वामपंथी पार्टी जेवीपी किस दिशा का अनुगमन करेगी।
जटिल वर्तमान
लेकिन एक बात स्पष्ट है कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। बेरोजगारी महंगाई आसमान छू रही है। नौजवान छोटे कारोबारी किसान मजदूर सब की जिंदगी के सामने गंभीर आर्थिक संकट है। अभी तक श्रीलंका की अर्थव्यवस्था आयात आधारित रही है।
अनुरा ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान देश की अर्थव्यवस्था को उत्पादक बनाने का वादा किया था। यही नहीं उन्होंने विश्व बैंक आईएमएफ के द्वारा थोपी गई शर्तो से बाहर आने का ऐलान किया था। अब देखना है कि वह इस जटिल काम को कैसे कर पाते हैं?
क्या वह दुनिया को कोई नया रास्ता दिखाने की तरफ आगे बढ़ेंगे। उनके भाषणों और प्रचार अभियान से जो जानकारी मिली है। उसमें उनकी एक उदारवादी नेता की ही छवि झलकती है।
अभी तक चुनाव के द्वारा वामपंथी सरकारों के गठन का अनुभव सकारात्मक उपलब्धियों का नहीं रहा है। (नेपाल ग्रीक ब्राज़ील आदि)। जेवीपी की चीन समर्थक होने की पहचान रही है। अनुरा ने भी समय-समय पर चीन के प्रशंसा की है।
जब श्रीलंका में विद्रोह का दौर चल रहा था। राजपक्षे देश छोड़कर भाग चुके थे। तो अनुरा के नेतृत्व में सात सदस्यीय सांसदों के एक प्रतिनिधि मंडल ने भारत की यात्रा की थी।
जिसकी विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात हुई थी। बाद में लौटने के बाद अनुरा ने कहा यह यात्रा भारत सरकार ने ही प्रायोजित की थी। उनके इस बयान के कई अर्थ लगाए जा सकते हैं।
भारत श्रीलंका का पड़ोसी देश है। भारतीय मूल की बहुत बड़ी आबादी श्रीलंका में रहती है। श्रीलंका के साथ भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संबंध बहुत पुराना है। देखना है कि भारत में धुर हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी मोदी सरकार के साथ एक वामपंथी राष्ट्रपति अनुरा कुमार दिसानायके कैसे संबंधों बेहतर बना पाते हैं।
वर्तमान दौर में श्रीलंका पर चीन का गहरा असर है। जो भारत और श्रीलंका के संबंधों के लिए बड़ी चुनौती बनेगा। वैसे भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते इस समय सामान्य नहीं हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप
हिंद महासागर इस समय वैश्विक साम्राज्यवादी ताकतों के खेल का अखाड़ा बना हुआ है। अभी क्वॉड की मीटिंग से यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिकी ब्लॉक हिंद महासागर और भारतीय उपमहाद्वीप में चीन विरोधी नया ब्लॉक खड़ा करने की कोशिश में है। जाने-अनजाने भारत अमेरिका के इस जाल में फंसता जा रहा है।
दूसरी तरफ कॉर्पोरेट कंट्रोल्ड दुनिया में नव उदारवादी नीतियों के जाल में फंसे विकासशील देश बेरोजगारी भुखमरी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। खास तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के गहरे आर्थिक संकट में फंसे होने के कारण एक-एक कर देश उथल-पुथल के शिकार हो रहे हैं।
इन देशों में धुर दक्षिणपंथी फासिस्ट पर्टियां और लोकतांत्रिक प्रगतिशील ताकतों के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। जन आक्रोश जन आंदोलनों में संगठित हो रहें है। जिससे आमजन खासकर छात्र, नौजवान, युवा, मजदूर, किसानों में नई राजनीति और मध्य वाम दिशा वाली पर्टियों का प्रभाव बढ़ रहा है।
श्रीलंका की घटनाओं के बाद बांग्लादेश ने भी एक नया संकेत दे दिया है।
और अब श्रीलंका में धुर वामपंथी पार्टी के उम्मीदवार का राष्ट्रपति चुना जाना वस्तुतः पिछले 30 वर्षों में एलपीजी के लागू होने के बाद बने वैश्विक आर्थिक राजनीतिक ऑर्डर के निषेध का संकेत दे रहा है। हमें श्रीलंका में अनुरा कुमारा दिसानायके के राष्ट्रपति चुने जाने की परिघटना को इसी अर्थ में देखना चाहिए।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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