Saturday, April 20, 2024

कोरोना से संघर्ष: हठधर्मिता, अतिरेक और अहंकार छोड़े नेतृत्व

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने पुनः कहा है कि नेशनल लॉकडाउन ही कोविड-19 की दूसरी लहर पर काबू पाने का एक मात्र जरिया है। आईएमए का कहना है कि वह पिछले 20 दिनों से पूर्ण और योजनाबद्ध लॉकडाउन की वकालत कर रही है, जिसकी घोषणा पर्याप्त समय पूर्व की जानी चाहिए, ताकि अफरातफरी न मचे। लॉकडाउन ही कोविड-19 के विनाशक संक्रमण की चेन तोड़ पाएगा। आईएमए का कहना है कि राज्यों द्वारा अलग-अलग समयावधि के लिए लगाए जा रहे लॉकडाउन और रात्रि कालीन कर्फ्यू निष्प्रभावी रहे हैं। यही कारण है कि कोविड-19 संक्रमण का आंकड़ा चार लाख व्यक्ति प्रतिदिन और इससे मृत्यु का आंकड़ा 4000 रोजाना के डरावने स्तर तक पहुंच गया है। आईएमए ने कहा कि जीवन अर्थव्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। अमेरिका के जाने माने महामारी विशेषज्ञ एंथोनी फाउची भी भारत में संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए कुछ हफ़्तों के नेशनल लॉकडाउन का सुझाव दे चुके हैं।

मिशिगन विश्विद्यालय के महामारी विशेषज्ञ भ्रमर मुखर्जी का भी यही सुझाव रहा है। सीआईआई के अध्यक्ष तथा कोटक महिंद्रा बैंक के सीईओ उदय कोटक ने सीआईआई की तरफ से जारी एक बयान में कहा, “इस नाजुक मौके पर जब मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है, सीआईआई राष्ट्रीय स्तर पर कठोरतम आर्थिक कदमों की वकालत करती है, जिसमें आर्थिक गतिविधियों को सीमित करना भी सम्मिलित है जिससे मानव जीवन की रक्षा हो सके।” सीआईआई ने अप्रैल के अपने उस रुख में बदलाव किया है जब उसने एक सर्वेक्षण द्वारा नेशनल लॉकडाउन को अनुचित बताया था।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 7 मई को प्रधानमंत्री जी को संबोधित अपने पत्र में लिखा, “भारत सरकार की विफलता ने आज राष्ट्रीय स्तर पर एक और विनाशकारी लॉकडाउन को अपरिहार्य बना दिया है। …इन तथ्यों के आलोक में, यह महत्वपूर्ण है कि हमारे लोग ऐसी संभावित परिस्थितियों के लिए तैयार रहें। पिछले साल के लॉकडाउन के कारण होने वाली अथाह तकलीफों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए, सरकार को सह्रदयतापूर्वक कार्य करते हुए हमारे सबसे कमजोर वर्ग के लोगों को जरूरी वित्तीय और खाद्य सहायता प्रदान करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, उन लोगों के लिए एक परिवहन रणनीति भी तैयार की जानी चाहिए, जिन्हें इसकी आवश्यकता हो सकती है। मुझे पता है कि आप लॉकडाउन के आर्थिक प्रभाव के बारे में चिंतित हैं। इस वायरस को भारत के अंदर और बाहर अपना विनाश जारी रखने की अनुमति देने के त्रासदीपूर्ण परिणाम होंगे और उसकी मानवीय लागत आपके सलाहकारों द्वारा सुझाई गई किसी भी आर्थिक गणना से अधिक होगी।”

इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट की एक त्रिसदस्यीय बेंच भी यही सुझाव दे चुकी है। बेंच ने केंद्र सरकार से कहा कि लोगों की भलाई को मद्देनजर रखते हुए कोविड की इस दूसरी लहर में वायरस पर नियंत्रण करने के लिए लॉकडाउन लगाने पर विचार करें। हम लॉकडाउन के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों से अवगत हैं, विशेष रूप से हाशिए पर जीवन यापन करने वाले समुदायों पर पड़ने वाले असर से, इसलिए यदि लॉकडाउन का उपाय अपनाया जाता है तो इन समुदायों की जरूरतों को पूरा करने के लिए उपाय पहले से ही किए जाने चाहिए।

कोविड-19 की स्थिति पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने 20 अप्रैल 2021 को कहा, “आज की स्थिति में हमें देश को लॉकडाउन से बचाना है। मैं राज्यों से भी अनुरोध करूंगा कि वो लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में ही इस्तेमाल करें। लॉकडाउन से बचने की भरपूर कोशिश करनी है। और माइक्रो कन्टेनमेंट जोन पर ही ध्यान केंद्रित करना है। हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत भी सुधारेंगे और देशवासियों की सेहत का भी ध्यान रखेंगे।”

25 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री जी द्वारा जब पहले नेशनल लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब देश में कोविड-19 के कुल 606 मामले थे और 10 लोगों की मृत्यु इसके कारण हुई थी। लॉकडाउन चरणबद्ध रूप से पुनः आगे बढ़ाया गया। 75 दिन की पूर्ण तालाबंदी के बाद जब 8 जून 2020 से अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई तब देश में कुल मिलाकर संक्रमण के दो लाख 50 हजार मामले थे और 7200 लोगों की मृत्यु हो चुकी थी। यदि इसकी तुलना वर्तमान स्थिति से करें तो आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 20 अप्रैल 2021 को कोरोना संक्रमित लोगों की दैनिक संख्या 259160 थी, 9 मई 2021 को यह रोजाना का आंकड़ा बढ़कर 403738 हो गया, जबकि मृतकों की दैनिक संख्या 20 अप्रैल के 1761 से बढ़कर 9 मई को 4092 पर पहुंच गई।

यह दावा कि पहला राष्ट्रीय लॉकडाउन अनिवार्य था, क्योंकि तब हम वायरस के विषय में कुछ जानते नहीं थे और इस 75 दिन की अवधि का उपयोग हमने तैयारी के लिए किया, जितना कमजोर है उससे भी ज्यादा नामुमकिन प्रधानमंत्री का आज का यह ख्वाब है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत भी सुधारेंगे और देशवासियों की सेहत का भी ध्यान रखेंगे। पहले नेशनल लॉकडाउन की घोषणा के पहले न तो संसद को विश्वास में लिया गया था न ही राज्यों को। निष्पक्ष राय रखने वाले वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और आर्थिक मामलों के जानकारों से यदि कोई परामर्श लिया भी गया था तो उसे माना नहीं गया था। नतीजतन देश के आर्थिक हालात बिगड़ गए।

घटनाक्रम अभी भी कुछ वैसा ही चल रहा है। अभी भी बहुसंख्य वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की राय की अनदेखी की जा रही है। नेशनल लॉकडाउन की मांग करते विरोधी दलों और राज्यों के सुझावों की अब भी उपेक्षा हो रही है। केवल परिणाम में अंतर है- 25 मार्च 2020 को देश पर अविचारित लॉकडाउन थोप दिया गया था और अब जब कोविड-19 की भयावह दूसरी लहर चरम पर है, कमजोर स्वास्थ्य तंत्र अंतिम सांसें ले रहा है, सर्वत्र मौत का तांडव है, हाहाकार मचा हुआ है तब विशेषज्ञों की निरंतर गुहार के बाद भी हम ‘जान भी, जहान भी’ के पुराने स्लोगन पर अटके पड़े हैं।

प्रधानमंत्री नेशनल लॉकडाउन के प्रश्न पर मौन क्यों हैं? 20 अप्रैल 2021 को देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने लॉकडाउन लगाने के प्रति जो अनिच्छा व्यक्त की थी क्या अब भी वह कायम है? क्या उनके मन के किसी अप्रकाशित कोने में कहीं यह अपराध बोध छिपा है कि पहला अविचारित लॉकडाउन एक गलती था, जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई? क्या प्रधानमंत्री जी इतने दुविधाग्रस्त हो गए हैं कि जब हालात और जानकार चीख-चीख कर राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन जैसे किसी निर्णय की मांग कर रहे हैं तो उनमें ऐसे किसी सुझाव पर अमल करने का साहस नहीं है? क्या अभी भी उनका व्यवहार देश के प्रधानमंत्री की भांति न होकर एक सत्ता पिपासु कठोर राजनेता जैसा ही है? राज्यों पर लॉकडाउन की जिम्मेदारी डालकर कहीं वे केंद्र-राज्य नामक पुराने खेल को तो बढ़ावा नहीं दे रहे हैं जो इस समय अनावश्यक ही नहीं खतरनाक भी है? क्या वे इस सत्य से अवगत नहीं हैं कि इन बेकाबू हालात में केंद्र और राज्य के पारस्परिक दोषारोपण का यह खेल आत्मघाती सिद्ध होगा? क्या वे नेशनल लॉकडाउन की घोषणा करने के लिए इस कारण अनिच्छुक हैं, क्योंकि उन्हें पता है ऐसी किसी घोषणा के साथ गरीबों के लिए आर्थिक राहत पैकेज के ऐलान का नैतिक उत्तरदायित्व अपरिहार्य रूप से जुड़ा है? क्या देश के आर्थिक हालात इतने खराब हैं कि हाशिए पर जीवन यापन कर रहे लोगों को कोई राहत देने की स्थिति में सरकार अब नहीं है? या गरीब अब सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं, क्योंकि सरकार सेंट्रल विस्टा जैसे प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए कटिबद्ध नजर आ रही है।

क्या राज्यों द्वारा अलग-अलग समय पर पृथक-पृथक नियमों के साथ लगाए गए लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित नहीं हो रही हैं? क्या टुकड़े-टुकड़े में राज्यों द्वारा लगाए गए लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान एकमुश्त दो या तीन हफ्ते के लिए लगाए गए नेशनल लॉकडाउन के कारण होने वाली हानि से बहुत अधिक नहीं है?

क्या प्रधानमंत्री जी सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के उन आंकड़ों से अवगत नहीं हैं, जिनके अनुसार अप्रैल 2021 के दौरान देश में 70 लाख से ज्‍यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है, इस कारण देश में बेरोजगारी दर मार्च के 6.5 फीसदी से बढ़कर 7.97 फीसदी पर पहुंच गई है? क्या प्रधानमंत्री जी सीएमआईई की भांति यह नहीं मानते कि लॉकडाउन के कारण ठप हुई व्यापारिक गतिविधियों की वजह से ही नौकरियों में गिरावट दर्ज की गई है? क्या प्रधानमंत्री जी प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी के दृश्यों को देख नहीं पा रहे होंगे? क्या वे ट्रेन और बसों में टिकट के लिए मारामारी करते इन प्रवासी मजदूरों की पीड़ा से अवगत नहीं होंगे? कहीं प्रधानमंत्री जी समय बिताने की रणनीति पर तो नहीं चल रहे हैं? महामारी जितने लोगों को प्रभावित कर सकती है वह कर लेगी और धीरे धीरे जीवन पटरी पर लौट आएगा, हालांकि तब तक लाखों जिंदगियां नष्ट हो चुकी होंगी। क्या देश के बिगड़ते हुए आर्थिक हालात आंख मूंद लेने से सुधर जाएंगे? क्या बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़ों को अस्वीकार कर देने में ही इसका समाधान निहित है?

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या प्रधानमंत्री इतने विनम्र एवं उदार हैं कि वे वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, महामारी विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों एवं विपक्षी राजनेताओं के सकारात्मक सुझावों को स्वीकार करें, उन्हें अमल में लाएं? अथवा क्या देश को प्रधानमंत्री के एक और चौंकाने वाले निर्णय के आघात को झेलने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर लेना चाहिए? प्रधानमंत्री की अब तक की कार्य प्रणाली से तो कुछ ऐसा ही लगता है।

(राजू पांडेय लेखक और गांधीवादी चिंतक हैं।)

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